डॉ. आशीष द्विवेदी।
भारत सहित समूची दुनिया में पत्रकारिता जिस दौर से गुजर रही है, उसमें बरबस ही हिक्की की याद आ जाती है। हिक्की यानी जेम्स अगास्ट हिक्की। आयरलैण्ड मूल के हिक्की ने 29 जनवरी 1780 को बंगाल की सरजमीं से भारतीय मुद्रित पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत की थी। इसके पहले भी हालांकि विलियम बोल्ट ने 1768 में कलकत्ता से ही पत्र प्रकाशित करना चाहा था लेकिन अपरिहार्य कारणों से वह कामयाब नहीं हो सका।
दस्तावेजी रिकार्ड के मुताबिक भले ही हिक्की का अखबार दो बरस दो माह ही चल सका, लेकिन इतने में ही वह पत्रकारिता के बहुतेरे पाठ सिखा गया। पत्रकारिता के पेशे में किस भाव से आना है? किन बातों की सावधानी रखनी है? किन चुनौतियों व संघर्ष के लिए तैयार रहना है? किन बातों से परहेज करना है? ये सारा कुछ उसकी अल्प यात्रा में ही समाया हुआ है।
अब जबकि मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर चौरतफा संदेह के बादल हैं। अब जबकि मीडिया को गोदी मीडिया, सरकारी मीडिया, वामपंथी मीडिया, राष्ट्रवादी मीडिया न जाने कितनी उपमाओं से अलंकृत किया जा रहा है। अब जबकि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अर्नगल प्रलाप चल रहे हैं। हिक्की पर चर्चा मौजूं है। हिक्की कोई पढे़-लिखे डिग्रीधारी पत्रकार तो थे नहीं, न किसी तरह के साहित्य और लेखन से सीधा सरोकार रहा। बस ईस्ट इंडिया कंपनी के एक मुलाजिम को अपने सामने जो नागवार गुजरा, अनैतिक लगा, उसने उन्हें अखबार निकालने प्रेरित कर दिया।
अभिव्यक्ति की यह आवाज उस समय कितने पवित्र भाव से शुरू हुई होगी, उसका जीता-जागता उदाहरण था- हिक्की का वह ध्येय वाक्य जिसे आज कोई भी पेशेवर पत्रकार अपना ले तो सारी समस्या का समाधान हो जाए- अपने पहले ही अंक में हिक्की ने उद्घोष कर दिया था कि- ‘‘ मैं अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिए शरीर को दास बनाना पसंद करूंगा और इसमें मुझे आनंद की अनुभूति होगी‘‘
वाकई उस जमाने में ईस्ट इंडिया कंपनी की करतूतों, धांधलियों पर हिक्की ने जमकर प्रहार किया। हिक्की से सीखने का यह पहला सबक है। वह उस वक्त की सत्ता के ताकतवर केन्द्र वायसराय वारेन हेस्टिंग्स पर भी लिखने से नहीं चूका। भले ही उसको इस बात का भारी खमियाजा चुकाना पड़ा। समझिए उस दौर में स्थिति कितनी विकट और भयावह रही होगी। न कोई प्रेस कानून, न यूनियन, न संगठन, न अपील, न दलील फिर भी हिक्की डटा रहा।
शरीर को दास भी बनवाया, बंदी का सामना भी किया, सब कुछ सहा पर ध्येय वाक्य के प्रति समर्पित रहा। आज सत्ता व व्यवस्था पर दमन व कुचक्र के आरोप लगाने वाले व अभिव्यक्ति की आजादी पर विधवा विलाप करने वाले हिक्की के दौर की कल्पना भी नहीं कर सकते। इसका अर्थ यह कतई नहीं कि आजाद भारत में भी पत्रकारिता उसी तरह शापित रहनी चाहिए, न यहां कोई तुलनात्मक स्थिति का अध्ययन करने का प्रयास है।
संदेश महज इतना सा है कि पत्रकारिता का पेशा अपने उद्भवकाल से ही दुरूह और कंटकाकीर्ण रहा है। जो इसे फूलों की सेज मानने की भूल करते हैं उन्हें भारतीय पत्रकारिता के अतीत का हिक्की से लेकर गणेश शंकर विद्यार्थी, महामना मालवीय से लोकमान्य तिलक, दादा माखनलाल चतुर्वेदी से राजेन्द्र माथुर तक सभी के जीवन चरित्र को उलटना-पलटना चाहिए।
यह लाख तरह की यंत्रणाओं, गलघोंटू कानूनों, त्याग, शहादत से अटा-पड़ा है। घटाटोप अंधकार में भी कोई न कोई दीपक टिमटिमाता रहा है. हिक्की का दूसरा मंत्र था कि-‘‘यह राजनैतिक एवं व्यापारिक साप्ताहिक खुला तो सबके लिए है पर प्रभावित किसी से नहीं‘‘ अर्थात् आप सभी के लिए अपने दरवाजे खुले रखें। सभी का स्वागत करें, लेकिन उनसे प्रभावित होने की जरूरत नहीं है। जाहिर है, यह आचरण अगर पत्रकारिता में उतर आए तो सारी चीजें दुरुस्त हो जाएंगी। इस समय विकृति इसलिए भी है कि मीडिया सारे विचारों के प्रति उदार नहीं है। उसमें भी संकीर्णता आ चुकी है। विचारधाराओं का विभाजन स्पष्ट नजर आता है। आज कोई औसत बुद्धि का आदमी भी यह तय कर देगा कि फलां मीडिया समूह किस विचार को पोषित कर रहा है। मीडिया में यह संभवतः बेहद चिंतनीय पहलू है।
हिक्की गजट की तीसरी मार्के की बात यह कि उसने मीडिया में लोकतंत्रीकरण की परंपरा को जीवंत करने संपादक के नाम पत्र को भी स्थान दिया था। भारत के पहले पत्र में इस तरह की पहल उसके उदारवादी दृष्टिकोण को दर्शाती है। 25 मार्च 1780 के अंक में फिलन थ्रोप्स ने संपादक के नाम पत्र लिखा था। जिसमें कलकत्ता श्मशान घाट की गंदगी की ओर ध्यान आकृष्ट कराया था। वर्तमान मुख्यधारा के मीडिया में यह चलन लगभग समाप्त प्राय हो गया है, बहुतेरे अखबारों ने तो यह स्तंभ ही बंद कर दिया है।
हिक्की के कृतित्व का अध्ययन करने पर एक बात तो साफ है कि आज की पत्रकारिता की तरह उसका प्राथमिक उद्देश्य मुनाफा कमाना, शोहरत पाना, तो कतई नहीं था, उसका मूल मकसद तो ईस्ट इंडिया कंपनी की कारगुजारियों को सार्वजनिक करना था। वरना अच्छी-खासी नौकरी छोड़ वह खुद के दमन का जीवन क्यों चुनता? उसकी अंतरात्मा की आवाज ने उसे इस पेशे में आने के लिए तैयार किया। वस्तुतः अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों के दौरान भारत में रह रहे कुछ यूरोपियों के अंदर तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों के खिलाफ अंदरूनी आक्रोश पनप रहा था। इसकी ही आवाज बना- हिक्की गजट।
हिक्की की पत्रकारिता का दूसरा पहलू भी है। जिसमें वह हेस्टिंग्स और उनकी पत्नी, मुख्य न्यायाधीश सर एलिज इम्मी के बारे में चारित्रिक आरोप लगाकर सुर्खियां बटोरता है। नीतियों की आलोचना करते-करते जब पत्रकार निजी जिंदगी में ताकझांक शुरू करता है तो उसका हश्र क्या होता है यह भी हिक्की से ही सीखा जा सकता है। सत्ता तंत्र को आप पर प्रहार करने का सीधा अवसर मिल जाता है।
देखिए कैसे वायसराय वारेन हेस्टिंग्ज ने 14 नवम्बर 1780 को आदेश जारी करके हिक्की गजट की कमर तोड़ी-‘‘आम सूचना है कि एक समाचार पत्र जिसका नाम बंगाल गजट और कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर है, जो जे.ए. हिक्की द्वारा मुद्रित किया जाता है, के अंकों में निजी जिंदगी को कलंकित करने वाले अनेक अनुचित अंश पाए गए हैं, जो शांति भंग करने वाले हैं, अतः इसे जीओपी (डाक) के माध्यम से प्रसारित होने की अनुमति नहीं दी जा सकती।”
हिक्की पर मानहानि के प्रकरण के तहत दोष सिद्ध हुआ, उसे भारी जुर्माना चुकाना पड़ा और जेल भी हुई। दूसरे आरोप में मुख्य न्यायाधीश ने वारेन हेस्टिंग्स को पांच हजार रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में चुकाने का आदेश पारित किया। यह साफ दर्शाता है पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा लांघने के क्या दुष्परिणाम होते हैं। व्यक्तिगत जीवन में पसंद-नापसंद अपनी जगह है, लेकिन इसे लेखन में शामिल करना पेशे के साथ न्याय नहीं।
ये तमाम तथ्य दर्शाते हैं कि हिक्की की पत्रकारिता पूरी तरह निरापद नहीं रही। न इसका आशय यह है कि हिक्की की तस्वीर अखबारों के दफ्तर में लगा ली जाए। संदेश इतना जरूर है कि हिक्की से प्रत्येक पत्रकार को वो सारी प्रेरणास्पद बातें अवश्य सीखना चाहिए, जो आपके लिए इस पेशे में अनिवार्य और अपरिहार्य हैं। आज समाचारों में तथ्यों के साथ विचारों, पूर्वाग्रहों और धारणाओं का जो घालमेल हो रहा है, संभवतः उसी से पत्रकारिता की मान-प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता में गिरावट आई है।
सबक यह है कि हिक्की ने जो संघर्ष किया, साहस दिखाया, व्यवस्था से टकराने का हौसला भी दिया, यह सब लीजिए पर अखबार को चर्चा में रखने के लिए हल्केपन पर मत उतरिए। नीतियों, निर्णयों से खूब असहमति दिखलाइये पर अकारण किसी की निजता में दखल न दीजिए। नीतिगत आलोचना की बजाय जब आप व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी पर उतरते हैं तो वह पत्रकारिता के मूल धर्म व कर्म के हिसाब से उचित नहीं ठहराया जा सकता। वैसे भी आग्रह, दुराग्रह और पूर्वाग्रह पत्रकारिता के ऐसे नासूर हैं जिनको त्यागे बिना आप कभी अपने पेशे से न्याय नहीं कर सकते। पर दुर्भाग्य से समकालीन पत्रकारिता में इसकी बहुतायात है।
(आलेख वेबसाइट मध्यमत.कॉम से साभार)