मुझे जहाँ की गर्द में मत ढूंढना प्यारे।
मैं जब नहीं रहूँगा तो गाँव की उसी ‘सुनहरी-भस्म’ के साथ उड़ता मिलूँगा, जिसे तुम धूल कहते हो।
चाय के इसी मयकश प्याले में सदा घुला रहूँगा, तुम्हारे जिंदगी की मिठास बनकर।
जब भी गाँव की सौंधी मिट्टी का जिक्र होगा, मैं फिज़ा में खुशबू बनकर बिखर जाऊंगा।
तुम ये बात अमल में रखना कि मुझे कहीं और मत खोजना, मैं गाँव की हर चौक- चौपालों में मिलूँगा।
मुझसे गर मिलना ही है, तो तुम अपनी नज़र तराश लेना और सुनो शहर के फरेबी इश्क का लबादा उतारकर आना।
अपनी आत्मा से इस बेहया तन का चोला हटाकर आना, मैं गाँव से मिले देवत्व से फिर जी उठा हूँ। लेकिन मुझे अमरता नहीं चाहिए।
मैं तो तुम्हें मौत के बाद भी जीने की कला सिखाऊंगा। शायद तुम गलत सोच रहे हो, ‘मैं मृत्यु नहीं सिखाता’। मैं मरने के बाद जीने के हुनर को निखारने वाली ‘पाक-कला’ में उस्ताद होना चाहता हूँ।
गर तुम्हें मुझ तक पहुँचने में थोड़ी देर लगे तो बेहतर है। गाँव की ‘सुनहरी-भस्म’ (गाँव की धूल) से ‘आब-ए-जमजम’ (काबा के पास स्थित पवित्र मुस्लिम तीर्थ का जल) बनाने में जरा वक्त तो लगता ही है।
मैं तो अभी किसी बरसाती नाले का गंदा पानी हूँ। बस मुझे उतना वक्त दे दो प्यारे कि गाँव की इश्किया बूंदों से गंगाजल हो जाऊं।
बस मेरा यकीन रखना और ये घड़ी बीत जाने के बाद चले आना। तुम सपने की तरह देख लेना मुझे, मैं गाँव से जुड़े हर ख्वाब-खयालों में मिलूँगा।
गर तुम्हें सपने नहीं आते, तो पढ़ ही लेना मुझे। क्योंकि मैं मौत के बाद ‘शब्द’ हो जाऊंगा। तुम्हें गाँव पर लिखे हर कलाम या किताबों में मिलूँगा।