हिंदी दिवस पर शुभकामनाओं की जगह मेरी दुखभरीं भावनाएं


गनीमत है कि मेरे आंसू अभी भी हिंदी में ही निकलते हैं और जब कभी चहकने का मौका आया तो मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैं हिंदी में ही चहक पाया।


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अतिथि विचार Updated On :

सुधीर नायक

आज हिंदी दिवस है।लोग गहराई में गए बिना ही, अन्य दिवसों की भांति हिंदी दिवस की भी शुभकामनाएं प्रेषित कर रहे हैं।हिंदी को कागजों में राष्ट्र भाषा बने हुए और संविधान को लागू हुए 73 वर्ष हो गए, परन्तु हमें आज भी हिंदी दिवस मनाना पड़ रहा है।यह इस बात का द्योतक है कि हिंदी आज भी साल में एक बार याद कर लेने की ही भाषा बनी हुई।दैनंदिन उपयोग के लायक हमने आज भी उसे नहीं समझा। मेरी नजर में तो हिंदी दिवस मनाया जाना गर्व का नहीं,राष्ट्रीय शर्म का विषय है।वैसे भी,शायद आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूरे विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जो अपनी राष्ट्रभाषा का दिवस मनाता है।अंग्रेजी दिवस, चायनीज दिवस, फ्रेंच दिवस कहीं नहीं मनते।

हिंदी दिवस पर किसी तरह के गर्व का अनुभव नहीं होता बल्कि यह दिन हमें याद दिलाता है हमारी मानसिक गुलामी की, यह याद दिलाता है हमारी राष्ट्रीय फूट की। यह याद दिलाता है सत्ता प्राप्ति हेतु निम्नस्तरीय राजनीति की। दक्षिण के नेताओं ने केवल राजनीतिक कारणों से हिंदी को पूर्णरुपेण राष्ट्र भाषा बनने में रोड़े अटकाए। हिंदी विरोध पर चुनाव लड़े गए। जबकि हिंदी से ज्यादा संस्कृत के शब्द तमिल और मलयालम में शामिल हैं।

यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि दक्षिण के नेता एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को बनाए रखने के पक्षधर हैं लेकिन अपने ही देश की भाषा हिन्दी के खिलाफ हैं। यह बड़ी मजे की बात है कि दक्षिण की आम जनता हिंदी सीखना चाहती। पिछले दिनों दक्षिण के एक राज्य में सिलेबस से हिंदी हटा दी तो वहां के लोगों ने कोर्ट में याचिका दायर कर दी।उनका कहना था कि हिंदी न जानने से हमारे बच्चे उत्तर भारतीय राज्यों में नौकरी नहीं पा पायेंगे।फिर भी हिंदी का विरोध है।हिंदी भाषी लोगों ने दक्षिण की भाषाएं सीखने में रूचि नहीं दिखाई और न सरकारों ने ऐसे प्रयास किए कि उत्तर वालों को दक्षिण की और दक्षिण वालों को उत्तर की भाषाएं सिखाईं जायें। इससे मेल-मिलाप बढ़ता और विरोध समाप्त होता।

एक तर्क गढ़ा गया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रगति करने के लिए अंग्रेजी बहुत जरूरी है।रुस,चीन,फ्रांस,जर्मनी-ये सब अंग्रेजी के बिना केवल अपनी मातृभाषा की दम पर ही महाशक्ति बन गए। अंग्रेजी की दम पर अंतरराष्ट्रीय प्रगति करने का तर्क थोथा तर्क है। महाशक्ति बनने के लिए किसी विदेशी भाषा का ज्ञान आवश्यक नहीं है। महाशक्ति बनने के लिए ईमानदारी परिश्रम और चरित्र चाहिए और जब आप महाशक्ति बन जायेंगे तब आपकी भाषा दूसरे सीखेंगे।

आज पूरी दुनिया की कंपनियां भारत में या भारत से व्यापार कर रही हैं। हम यह शर्त क्यों नहीं लगा सकते कि भारत से व्यापार करते समय हिंदी का प्रयोग आवश्यक होगा।उत्पादन का नाम हिंदी में रखना पड़ेगा।और अगर हिंदी से दिक्कत है तो शर्त लगा दीजिए कि किसी भी भारतीय भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा। फिर आप देखिए पूरी दुनिया में हिंदी या भारतीय भाषाओं के स्कूल खुल जायेंगे। मुझे जितनी प्रिय हिंदी है उतनी ही प्रिय तमिल तेलुगु मलयालम बंगाली मराठी उड़िया पंजाबी है।हिंदी मेरी मां है,संस्कृत नानी है,तमिल नानी की बहन है और बाकी सब भारतीय भाषाएं मेरी मौसियां हैं जो प्रेम करने में मां से भी आगे निकल जाती हैं।और बुंदेली तो मां का आंचल है जो हरबार मेरे आंसू पोंछ देता है।

सरकार और हम -दोनों ने ही हिंदी के साथ षडयंत्र किया है।सगी बहनों को आपस में लड़ाया गया।आज भी न्यायपालिका अंग्रेजी में फैसले देती है।हम बच्चों को टूटीफूटी अंग्रेजी बोलते देखकर गर्वित होते हैं।हम यह बात बड़े गर्व से अपने रिश्तेदारों को बताते हैं कि हमारे बच्चे हिन्दी में कमजोर हैं। उनसे तो अंग्रेजी में बात करिए आप।लोग तो अब अपने कुत्तों को भी अंग्रेजी में ही बुलाना पसंद करते हैं।यह सब लक्षण हमारी गहरी मानसिक गुलामी को व्यक्त करते हैं।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मातृभाषा में बच्चा जितना अच्छा और जितना जल्दी सीखता है,उतना अन्य भाषा में नहीं सीख पाता।मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के विपरीत हमारी शिक्षा प्रणाली नर्सरी से ही बच्चों के कोमल दिमागों में जबरदस्ती अंग्रेजी थोपने में लगी हुई है। अब तो नर्सरी से ही अंग्रेजी पढ़ाकर हम धीरे धीरे अंग्रेजी को मातृभाषा बनाने में लगे हुए हैं।कुछ पीढ़ियों के बाद हमारी मातृभाषा हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी हो जायेगी। जो काम अंग्रेज नहीं कर पाये वो हम स्वयं कर रही हैं।हिन्दी अपने बच्चों की ही गद्दारी की शिकार है।हिंदी फिल्मों के स्टार अपनी रोजीरोटी, अपना वैभव, अपनी विलासिता हिन्दी की बदौलत कमाते हैं,परन्तु पर्दे के बाहर दैनंदिन जीवन में अंग्रेजी में व्यवहार करते हैं।

अंग्रेजी का एक शब्द भी न जानने वाला व्यक्ति भी कम से कम अपने हस्ताक्षर तो अंग्रेजी में ही करना सीख लेता है और अंग्रेजी में हस्ताक्षर करने में गर्व का अनुभव करता है। मैं जब इंजीनियरिंग पढ़ने गया और मैंने अपने हस्ताक्षर और नाम हिंदी में लिखा तो वह क्षण आज भी याद है कि मेरे प्रोफेसर ने किस नजर से मुझे देखा था। मैंने अंग्रेजी केवल इसी कारण से सीखी थी ताकि कोई यह न कह सके कि अंग्रेजी न जानने के कारण मैं हिंदी का समर्थन करता हूं।

फिलहाल तो हमने भाषारहित पीढ़ियों को जन्म दिया है। आज के बच्चे न तो अंग्रेजी में पारंगत हो पा रहे हैं और हिन्दी में उन्हें पारंगत हम होने नहीं दे रहे हैं।
अंग्रेजी प्रेमियों से क्षमा याचना और हिंदी दिवस पर शुभकामनाओं की जगह दुखभरी भावनाओं सहित। गनीमत है कि मेरे आंसू अभी भी हिंदी में ही निकलते हैं और जब कभी चहकने का मौका आया तो मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैं हिंदी में ही चहक पाया।