– इरफान इंजीनियर और नेहा दाभाड़े
हाथरस सामूहिक बलात्कार कांड और इस जघन्य अपराध पर उत्तरप्रदेश सरकार और हमारे समाज की प्रतिक्रिया उस दौर को प्रतिबिंबित करती है जिसमें हम आज रह रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है कि आज हमारे प्रजातंत्र और हमारी प्रजातांत्रिक संस्थाओं में किस तरह की कमजोरियां और कमियां आ गई हैं।
हाथरस कांड एक महिला के शरीर के साथ क्रूर खिलवाड़ था जिसका अंत उसकी मौत में हुआ। और यह अपने आप में एक गंभीर और गहन भर्त्सना योग्य अपराध था। परंतु इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इस कांड पर राज्य की प्रतिक्रिया जो हमारे समाज में जातिगत, लैंगिक और धार्मिक भेदभाव की बानगी है।
राज्य ने क्या किया?
इस कांड की शिकार बीस वर्ष की दलित महिला ने मौत के पहले दिए गए अपने बयान में यह स्पष्ट रूप से कहा था कि उसके साथ चार लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया। उसने इन अपराधियों के नाम भी लिए थे। परंतु सरकारी अधिकारियों ने उसकी बात पर भरोसा करने से इंकार कर दिया। उन्होंने फोरेंसिक रिपोर्ट के आधार पर यह दावा किया कि महिला के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं था। फोरेंसिक जांच घटना के आठ दिन बाद, 22 सितंबर को, की हुई थी।
यह एक सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य है कि यौन संबंध के बाद 72 घंटों तक ही किसी महिला के वेजाइनल स्वाब में वीर्य मिल सकता है। इस अवधि के बाद बलात्कार की फोरेंसिक जांच का कोई अर्थ नहीं है। पुलिस को यह जांच करवाने में आठ दिन क्यों लगे? क्या इसका कोई उचित स्पष्टीकरण है?
जाहिर है कि अपराध की जांच में घोर लापरवाही बरती गई। इसके बाद पुलिस ने पीड़िता के परिवार की सहमति के बगैर उसका अंतिम संस्कार कर दिया। पीड़िता दलित थी और एक गरीब परिवार से थी। उसकी असमय मौत से उसका परिवार शोक और सदमे में था।
ऐसा बताया जाता है कि जब वह अपनी मां के साथ खेत में मवेशियों के लिए चारा काटने गई हुई थी उस समय आरोपियों ने उसकी गर्दन में उसका दुपट्टा फंसाकर उसे जमीन पर घसीटा और उसके साथ अमानवीय मारपीट की जिसके नतीजे में उसकी रीढ़ और गर्दन की हड्डी टूट गई और जीभ कट गई। इसके बावजूद भी पुलिस ने उसका गरिमापूर्ण ढंग से अंतिम संस्कार नहीं होने दिया।
पुलिस शव को दिल्ली से हाथरस ले आई और वहां एक खेत में रात के अंधेरे में उसके शव को जला दिया गया। महिला के परिवार को उनके घर में कैद कर दिया गया और पूरे गांव के आसपास पुलिस का पहरा लगा दिया गया। पीड़िता की मां पुलिस से याचना करती रही कि उसके परिवार को एक बार उनकी बेटी का चेहरा देखने दिया जाए परंतु पुलिस नहीं पसीजी और हिन्दू परंपराओं के विपरीत, रात में ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
परिवार का आरोप है कि हाथरस के जिला मजिस्ट्रेट ने उन्हें धमकाया। एक वीडियो में जिला मजिस्ट्रेट प्रवीण लक्षकार महिला के परिवार को यह कहते हुए धमका रहे हैं कि
“आधे मीडिया वाले जा चुके हैं। बाकी भी कल तक चले जाएंगे। हम ही तुम्हारा साथ देंगे। अब तुम जानो कि तुम लोग अपना बयान बदलना चाहते हो या नहीं”।
मीडियाकर्मियों को महिला के परिवार से बातचीत नहीं करने दी गई और परिवार वालों के मोबाइल फोन पुलिस ने छीन लिए। पीड़िता के घर के बाहर पुलिस ने कैमरे लगवा दिए ताकि यह पता चल सके कि घर में कौन आ-जा रहा है। नागरिक समाज संगठनों के प्रतिनिधियों और विपक्ष के नेताओं, जो मृतका के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करना और परिवार को ढांढस बंधाना चाहते थे, को गांव के बाहर ही रोक दिया गया।
पुलिस ने इनमें से कई के साथ हाथापाई भी की। यह विश्वास करना कठिन है कि जिला स्तर के अधिकारियों ने यह सब अपनी मर्जी से किया होगा। और वे भला ऐसा क्यों करेंगे? जाहिर है कि वे केवल लखनऊ में बैठे आला हुक्मरानों की आज्ञा का पालन कर रहे होंगे।
पुलिस और प्रशासन ने यह सब क्यों किया? क्या वे अपराधियों को बचाना चाहते थे? एक दलित महिला के साथ इस तरह के क्रूर अपराध को वे क्यों दुनिया के सामने आने देना नहीं चाहते थे? यह महत्वपूर्ण है कि इस मुद्दे पर भाजपा के शीर्ष राष्ट्रीय नेताओं ने चुप्पी साधे रखी और स्थानीय नेताओं ने प्रशासन और पुलिस के व्यवहार से प्रेरणा लेते हुए ओछी टिप्पणियां करनी शुरू कर दिया।
बलिया से भाजपा विधायक सुरेन्द्र सिंह ने कहा कि बलात्कारों पर रोक लगाने के लिए लड़कियों को ‘संस्कारवान’ बनाया जाना चाहिए। बाराबंकी के एक भाजपा नेता रणजीत बहादुर श्रीवास्तव ने कहा कि पीड़िता के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं और उसका आरोपियों के साथ प्रेम प्रसंग था।
उन्होंने कहा,
“पीड़िता ने आरोपियों को खेत में बुलाया होगा क्योंकि उनके बीच प्रेम संबंध थे। यह बात टीवी चैनल और अखबार भी कह रहे हैं। खेत में वह अपने प्रेमियों के साथ पकड़ी गई होगी”।
हमारा संविधान महिलाओं, दलितों और अन्य सभी वर्गों के सदस्यों को समानता का अधिकार देता है। संविधान ने अछूत प्रथा को गैर-संवैधानिक घोषित किया है परंतु ये सारे अधिकार और ये सारी वर्जनाएं केवल सैद्धांतिक रह गई हैं। व्यावहारिक स्तर पर न तो महिलाओं और ना ही दलितों को उनके अधिकार मिल सके हैं।
इस पृष्ठभूमि में जब भी कोई जाति समूह, किसी अन्य जाति के साथ कोई अन्याय करता है तो राज्य का यह कर्तव्य है कि वह पीड़ित पक्ष के साथ खड़ा हो और उसे हर संभव सहायता और संरक्षण उपलब्ध करवाए। हाथरस मामले में राज्य ने न सिर्फ अपना यह कर्तव्य नहीं निभाया वरन् उसने आरोपियों का साथ दिया और उन्हें बचाने की कोशिश की। मामले की ठीक ढंग से जांच नहीं की गई और पीड़ित पक्ष को धमकाया गया।
एक ओर राज्य ने पीड़ितों को सुरक्षा और सहायता उपलब्ध नहीं करवाई तो दूसरी ओर उसने नागरिक समाज संगठनों और विपक्षी दलों को भी पीड़ितों की मदद नहीं करने दी। उसने मीडिया को भी पीड़ितों से संपर्क स्थापित करने से जबरन रोका।
ऊपर से तुर्रा यह कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी सरकार की आलोचना को बकवास बताते हुए उसे एक ‘अंतर्राष्ट्रीय साजिश’ का हिस्सा करार दिया। उन्होंने कहा,
“कुछ अराजकतावादियों को प्रदेश में हो रहा विकास सुहा नहीं रहा है और वे साजिशन सांप्रदायिक जुनून और जातिगत वैमनस्य भड़काने का प्रयास कर रहे हैं”।
उत्तरप्रदेश में सांप्रदायिकता
एक प्रश्न जो स्वाभाविक है वह यह है कि उत्तरप्रदेश में इस तरह की अराजकता की स्थिति कैसे बनी और अपराधियों के हौसले इतने बुलंद कैसे हो गए। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जातिप्रथा, पितृसत्तात्मक सोच और सांप्रदायिकता – तीनों ने मिलकर इस स्थिति का निर्माण किया है। ये तीनों कारक अलग-अलग नहीं वरन् परस्पर गुंथे हुए हैं और इनमें से हरेक दूसरे का खाद-पानी है।
सांप्रदायिकता से जातिप्रथा को मजबूती मिलती है और जातिप्रथा के मजबूत होने से पितृसत्तात्मकता को बढ़ावा मिलता है। योगी के नेतृत्व वाली उत्तरप्रदेश सरकार का साम्प्रदायिक एजेंडा किसी से छिपा नहीं है। वहां गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों की लिंचिंग होती रही है। वहां कई शहरों के नाम केवल इसलिए बदल दिए गए क्योंकि वे ‘मुस्लिम जैसे’ थे।
यहां तक कि ताजमहल को लेकर भी विवाद खड़ा किया गया। वहां सरकार ने एंटी-रोमियो स्क्वाड बनाईं और राज्य में साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा की अनेक घटनाएं हुईं। मोहम्मद अखलाक की लिंचिंग सन् 2015 में हुई थी। तबसे लेकर अब तक राज्य में स्थितियां बद से बदतर ही हुई हैं।
उत्तरप्रदेश, देश के उन राज्यों में है जहां सांप्रदायिक हिंसा की सबसे अधिक घटनाएं हुई हैं। राज्य के मुख्यमंत्री का दावा है कि उनके राज्य में सांप्रदायिक हिंसा नहीं होती। परंतु केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज गंगाराम अहीर ने 11 दिसंबर 2018 को लोकसभा को बताया कि 2014 की तुलना में 2017 में उत्तरप्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में 32 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
सन् 2017 में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में कुल 44 लोग मारे गए। सन् 2014 में यह आंकड़ा 22 था। यह आश्चर्यजनक है कि सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि के बाद भी योगी सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगों से जुड़े प्रकरण जिनमें भाजपा नेता आरोपी थे, वापस ले लिए।
यहां यह महत्वपूर्ण है कि इन दंगों से भाजपा को बहुत लाभ हुआ था और राज्य की समाजवादी पार्टी सरकार को सत्ताच्युत करने में इन दंगों की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
उत्तरप्रदेश में प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक संस्थाओं को खोखला करने में वहां की सरकार की नीतियों और निर्णयों ने महती भूमिका अदा की है। उत्तरप्रदेश की सरकार एनकाउंटर करने के लिए कुख्यात है। कहने की जरूरत नहीं कि इन एनकाउंटरों के जरिए मुख्यतः मुसलमानों को निशाना बनाया गया।
समाज में यह आख्यान प्रचलित कर दिया गया कि मुसलमान, हिन्दुओं के लिए खतरा बन गए हैं। बड़ी संख्या में मुसलमानों के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां (निरोधक) अधिनियम और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के अंतर्गत प्रकरण कायम किए गए।
ये अधिनियम ऐसे दुर्दांत अपराधियों के विरूद्ध कार्यवाही के लिए बनाए गए हैं जिनकी गतिविधियों से राष्ट्रीय सुरक्षा को किसी प्रकार का खतरा हो। इनके अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्तियों को उनके विरूद्ध आरोप लगाए बिना एक साल तक जेल में रखा जा सकता है। योगी आदित्यनाथ सरकार ने आपरेशन क्लीन शुरू किया जिसके अंतर्गत पुलिस को ऐसे लोगों को गोली मारने के लिए प्रोत्साहित किया गया जिनके बारे में यह संदेह हो कि उन्होंने कोई अपराध किया है।
योगी ने विधानसभा को काफी गर्व से बताया कि उनकी पुलिस ने 40 व्यक्तियों की गोली मारकर हत्या की है। ऐसा बताया जाता है कि फरवरी 2017 और फरवरी 2018 के बीच उत्तरप्रदेश पुलिस ने एक हजार मौकों पर कथित अपराधियों पर फायरिंग की। यह एक रिकार्ड है। अब तो एनकाउंटर का प्रयोग मुसलमानों के खिलाफ ही नहीं वरन् हर उस व्यक्ति के खिलाफ किया जा रहा है जिससे सरकार को किसी प्रकार का खतरा महसूस होता है।
कानपुर के विकास दुबे की गोली मारकर जान ले ली गई। ऐसा बताया जाता है कि उसे सत्ताधारी दल के कई शीर्ष नेताओं और सरकार में उच्च पदों पर बैठे कई व्यक्तियों के बारे में ऐसी जानकारियां थीं जो उनकी पोल खोल सकती थीं। ये वे लोग हैं जो दुबे के संरक्षक हुआ करते थे।
उत्तरप्रदेश सरकार अपने विरोधियों की आवाज कुचल रही है। उन लोगों का दमन किया जा रहा है जो सरकार से सवाल पूछ रहे हैं और उसकी जवाबदेही चाहते हैं। भीम आर्मी और उसके अध्यक्ष के साथ जो हुआ वह इसका उदाहरण है। जिन लोगों ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन किए थे उन्हें अपमानित और शर्मिंदा करने के लिए उनके नाम व फोटो की होर्डिगें सार्वजनिक स्थलों पर लगवाई गईं।
उन्हें नोटिस जारी कर कहा गया कि वे आंदोलन के दौरान सरकारी संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई करें। आंदोलनकारियों पर तोड़फोड़ और लूटपाट करने के आरोप लगाए गए। उन्हें धमकी दी गई कि वे सरकारी संपत्ति, जिसमें पुलिसकर्मियों की मोटरसाइकिलें, सड़कों पर लगाए गए बैरियर और यहां तक कि पुलिसकर्मियों के टूटे डंडे शामिल थे, की कीमत अदा करें वरना उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाएगी।
इलाहबाद उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक रूप से होर्डिग लगाकर आरोपियों, जिनके खिलाफ कोई अपराध अदालत में प्रमाणित नहीं हुआ था, को अपमानित करने को “नागरिकों के निजता के अधिकार में अवांछित हस्तक्षेप” और “संविधान का उल्लंघन” निरूपित किया।
निष्कर्ष
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हाथरस और उसी तरह की अन्य घटनाओं से यह स्पष्ट है कि उत्तरप्रदेश में कानून का राज नहीं है वरन् ऊंची जातियों का शासन है। वहां की कानून और व्यवस्था मशीनरी सरकार और सत्ताधारी राजनीतिज्ञों की चेरी है जो उनके राजनैतिक विरोधियों, उनसे असहमत लोगों और वंचित समुदायों का उत्पीड़न कर रही है।
मुख्यमंत्री चाहे जो दावा करें तथ्य यह है कि राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति में जबरदस्त गिरावट आई है और आम लोगों का शांति से रहना दूभर हो गया है। सरकार ने साम्प्रदायिकता और जातीय हिंसा के जिन्न को बोतल से निकालकर एक बहुत बड़ी भूल की है। यह जिन्न अब भस्मासुर बन चुका है।
(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)