मेरे स्मृति पटल पर जिन गांधीवादियों की छवि अंकित है, सुब्बाराव जी उनमें से एक थे। सुब्बाराव जी की रग-रग में गांधीवाद का प्रवाह था। वे भीतर से बाहर तक सौ फीसदी गांधीवादी थे।
सुब्बाराव को पहली बार बारह साल की उम्र में देखा जरूर था लेकिन समझा नहीं था। समझा 22 साल की उम्र में पत्रकार बनने के बाद। उन्हें देखकर कभी कभी लगता था कि उन्हीं जैसा हो जाऊं,, लेकिन ये आसान काम नहीं था। सुदूर दक्षिण से उजाड़ चंबल के बीहड़ों में गांधी के आदर्शों की स्थापना के लिए जन्मे सुब्बाराव निडर थे, सत्यव्रती थे। यही उनकी शक्ति थी।
सुब्बाराव गांधीवादी थे लेकिन उन्हें संघी वर्दी पसंद थी। हाफ पेंट और भक्क सफेद बिना कलफ की कमीज जिंदगी भर उनसे चिपकी रही। उन्होंने जघन्य अपराध करने वाले डाकुओं का दिल जीता तो अशिक्षा और अवनति के मारे आदिवासियों में जीने की ललक और अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी सिखाया।
हर समय एक स्निग्ध मुस्कान बिखेरने वाले सुब्बाराव के बारे में बताने को बहुत है। वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के रसिक थे। अक्सर तानसेन समारोह में चुपचाप आकर बैठ जाते थे। कुमार गंधर्व उनके अभिन्न मित्र थे। मेरा परिचय कराते हुए वे प्रफुल्लित थे। कबीर के भजन सुनकर वे मुदित हो जाते थे।
सहिष्णुता सुब्बाराव जी के व्यक्तित्व की सुरभि थी। राजा हो या रंक सबके साथ वे घर के बुजुर्ग की तरह रहते थे। सिंधिया परिवार की दो पीढ़ियों को मैंने सुब्बाराव जी के चरणों में बैठा देखा है। आलोचना, निंदा से कोसों दूर रहने वाले सुब्बाराव जी को किसी ने कभी गुस्सा करते शायद ही देखा हो।
वे क्षुब्ध भी होते थे तो बच्चों की तरह। आरएसएस के पूर्णकालिक स्वयं सेवक की तरह अविवाहित रहने वाले सुब्बाराव के पीछे उनका अनुसरण करने वाले असंख्य है। विवाह कर वे कुछ संतानों के पिता हो सकते थे, लेकिन अविवाहित सुब्बाराव के बच्चों की एक फौज है जो उनके रास्ते पर सतत चलने के लिए कृत-संकल्प है।
सुब्बाराव ने अपने जीवन की लंबी पारी निर्विवाद रहकर पूरी की। उनका जाना अवसाद का कारण है किन्तु उनकी प्रेरणा अजर अमर है। हमें उनकी जरूरत कल के मुकाबले आज अधिक थी। आज के असहिष्णु वातावरण में वे एक आसरा थे।
विनम्र श्रद्धांजलि…
(आलेख सौजन्यः मध्यमत.कॉम)