गांधी के विचार आचरण में मृत, राजनीतिक आवरण में जीवित


इस बार की गांधी जयंती (2 अक्टूबर) को समाज के तो कोई कार्यक्रम होते नहीं दिखाई पड़े लेकिन राजनीतिक कार्यक्रम पूरे देश में, हर राज्य में गांधी पर राजनीतिक दावेदारी पुख्ता करने के लिए जरूर किए गए।


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अतिथि विचार Published On :
mahatma gandhi 2 october

सरयूसुत मिश्रा।

गांधी जयंती पर गांधी के विचारों के राजनीतिक अनुयायियों की बाढ़ आ जाती है। बारिश के मौसम के पहले जैसे छातों, रेनकोट और बरसाती की दुकानें सज जाती हैं। दीपावली के पहले जैसे पटाखे की दुकानें सज जाती हैं, वैसे ही गांधी जयंती के दिन राजनीतिक दलों द्वारा गांधी के विचारों की दुकानें सजा ली जाती हैं। गांधी के विचारों का आज कोई खरीदार नहीं है। केवल राजनीतिक दलों में विचारों का व्यापार चल रहा है।

गांधी की विरासत का दावा करने वाले गांधी के विचारों की हर दिन हत्या करते हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि गांधी के विचार आचरण में तो मृत हो गए हैं अब केवल राजनीतिक आवरण के लिए ही गांधी के विचार जीवित दिखाई पड़ते हैं। जब गांधी जीवित थे, तब देश को क्या मिला? महात्मा गांधी के दौर में देश के जो हालात थे, आज उन हालातों में थोड़ा बहुत सुधार ही दिखाई पड़ता है। गांधी के विचार को लेकर राजनीतिक धोखाधड़ी समाप्त हो जाएगी तो देश के हालात वास्तविक सुधार की ओर बढ़ते जाएंगे।

इस बार की गांधी जयंती (2 अक्टूबर) को समाज के तो कोई कार्यक्रम होते नहीं दिखाई पड़े लेकिन राजनीतिक कार्यक्रम पूरे देश में, हर राज्य में गांधी पर राजनीतिक दावेदारी पुख्ता करने के लिए जरूर किए गए। मध्यप्रदेश भी गांधी जयंती पर गांधीगिरी से कैसे पीछे रहता? गांधीगिरी के नाम पर नशामुक्ति के अभियान की मदारीगिरी पूरे जोशो-खरोश के साथ संपन्न हुई है। शराबियों को नशे से दूर करने के लिए गांधी जी के बहु प्रचलित भाषण को बार-बार दोहराया गया।

गांधी जी कहते थे शराब शरीर का ही नहीं बल्कि आत्मा का नाश करती है। सनातन धर्म तो ऐसा मानता है कि आत्मा का कभी कोई नाश नहीं होता लेकिन गांधी जी ने शराब के प्रति घृणा के लिए शायद प्रत्येक मानव की आस्था और उसकी आत्मा से इसको जोड़ा था। गांधी जी का यह भाषण वैज्ञानिक रूप से कितना सटीक है, इस पर पुख्ता रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता लेकिन अगर समाज में सुधार की दृष्टि से ही इसको देखें तो क्या शराब ही आत्मा को प्रभावित करती है?

राजनीति को समाज की आत्मा के रूप में देखा जाता है। हर वर्ग समुदाय राजनीति से जुड़ा होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो जनता ही राजनीतिक सत्ता और उसकी आत्मा का निर्धारण करती है। शराब भले ही एक आत्मा को परेशान करती हो लेकिन राजनीतिक रूप से समाज को जो शोषण और संताप मिलता है उससे तो न मालूम कितनी आत्माएं प्रभावित होती हैं। सत्ता और पद का अहंकार हर गली चौराहे में आत्माओं को लहूलुहान करता दिखाई पड़ जाएगा। शराब के नशे से ज्यादा सत्ता का नशा चढ़ा हुआ दिखाई पड़ता है।

जो सत्ता में हैं उनका नशा तो एक बार स्वीकार भी किया जा सकता है लेकिन सत्ताधीशों की पत्नियों और बेटे-बेटियों, चमचों और शागिर्दों का नशा तो सारी सीमाएं तोड़ रहा है। समाज में नशा मुक्ति, क्या शराब और दूसरे नशीली पदार्थों के रुकने से हो जाएगी? जिन राज्यों में शराबबंदी है वहां क्या शराब नहीं मिल रही है? सत्ता के नशे के सामने सारे नशे फीके हैं। सत्ता हो तो चाहे शराबबंदी हो, चाहे ना हो, जो नशा चाहो वह मिल जाएगा।

भ्रष्टाचार का नशा कहां पहुंच गया है? राजनीतिक भ्रष्टाचार के जिस तरह के मामले ईडीदृष्टि से दिखाई पड़ रहे हैं, उनको देखकर तो ऐसा लगता है कि इस नशे से ज्यादा आत्मा और देश को नुकसान पहुंचाने वाला दूसरा नशा और क्या हो सकता है? नशे पर राजनीति का नशा हावी हो गया है। कोई पद के नशे में डूबा हुआ है, कोई चुनावी मैनेजमेंट से चुनाव जीतकर सत्ता पाने की कला के नशे से अभिभूत है। ऐसा लगता है कि एक फिल्म का दृश्य चल रहा है और उसमें सभी तरह के नशेड़ी अलग-अलग दृश्यों में दिखाई पड़ रहे हैं। गांधी जी ने तो कभी भी लाखों रुपए के विज्ञापन प्रकाशित करा कर नशा मुक्ति अभियान का आव्हान नहीं किया होगा।

विज्ञापनों में स्वयं की प्रशंसा और चित्र देखना भी एक नशा बन गया है। गुमनामी में रहने वाले लोग कुर्सी पर एक बार पहुंचने के बाद सरकारी धन का उपयोग कर अपनी राज्य की सीमाओं से बाहर भी अपना दिव्य ज्ञान पहुंचाने से पीछे नहीं रहते हैं। राजनीतिक दल गांधी की विरासत के लिए लड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं, कोई गांधी के नाम पर नशा मुक्ति अभियान का मार्च निकाल रहा है तो कोई गांधी चौपाल के नाम पर लोगों को आकर्षित करने में लगा हुआ है। गांधी के चित्र के साथ छपे भारत के रुपए का भ्रष्टाचार में जिस गति और खूबसूरती के साथ आदान-प्रदान हो रहा है, वह तो गांधी के दौर में भी नहीं होता था इसे तो प्रगति ही माना जाएगा।

महात्मा गांधी का सत्य-अहिंसा, शोषण मुक्त समाज, समानता, भाईचारा, सामाजिक एकता, जातिवाद से मुक्ति, ग्राम स्वराज की अवधारणा का आज कौन सा रूप हमें दिखाई पड़ रहा है? स्वयं महात्मा गांधी को उनके जीवनकाल में क्या मिला था? एक अपराधी के रूप में उन्हें गोलियों का शिकार होना पड़ा था। हिंदू-मुस्लिम एकता को जीने वाले गांधी के दौर में ही धर्म के नाम पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन हुआ था।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि महात्मा गांधी अपने बेटे को भी शराबी होने से नहीं रोक सके थे, जब महात्मा गांधी के जीवित रहते ही देश को हर तरह से विभाजन ही मिला था तो फिर आज गांधी के विचार के नाम पर उसमें किसी प्रकार के सुधार की बात सोचना क्या राजनीतिक बेईमानी नहीं होगी? भारत में हिंदू मुस्लिम एकता आज गांधी के दौर से ज्यादा है। शराब और नशीले पदार्थों के सेवन में भी कमी आई है। आज आज युवा तरक्की की मंजिलें छू रहे हैं तो कोई उसके पीछे गांधी के विचार नहीं हैं और ये गलतफहमी कोई और भी न पाले कि ये किसी और के विचारों का नतीज़ा है। यह युवाओं के अपने निजी विचार और सोच का नतीज़ा है।

अब गांधी के विचार को तो पूरी तरह से खारिज करने का समय है। अपने अनुभव से हर व्यक्ति और राजनीतिक दल को वर्तमान में जीने की जरूरत है और देश इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। गांधी के विचारों की आज कोई प्रासंगिकता नहीं बची है। इन विचारों के नाम पर केवल राजनीतिक डमरु बजा कर स्वार्थ साधने की मदारीगिरी चल रही है। अगर गांधी के विचार भारत की भावना में समाहित होते तो अभी तक हम नया महात्मा गांधी पैदा कर सकते थे। नहीं पैदा करते तो महात्मा गांधी बना सकते थे। इसके विपरीत गांधी के नाम पर राजनीति ही हम पैदा कर सके हैं।

गांधी के नाम पर न नशा रुकेगा और न नशामुक्ति हो पाएगी। नशामुक्ति के नाम पर नए राजनीतिक व्यापार जरूर अभी तक होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। हर इंसान में आत्म सुधार की ताकत है जब तक उस ताकत का उपयोग नहीं होगा तब तक किसी भी सुधार की कल्पना बेईमानी होगी।

(आलेख सोशल मीडिया से साभार)