सरयूसुत मिश्रा
मध्यप्रदेश के चुनावी साल में पहली बार सड़क पर कांग्रेस का हल्लाबोल देखने को मिला है. प्रदर्शन कितना सफल रहा, प्रदर्शन में कितनी जनता शामिल हुई, प्रदर्शन कांग्रेस कार्यकर्ताओं में कितना जोश पैदा करने में कामयाब रहा, प्रदर्शन के उद्देश्यों पर जनता को संदेश देने में यह हल्ला बोल कितना सार्थक रहा, इस पर सोशल मीडिया में टिप्पणियां भरी पड़ी हैं.
विवाद इस बात पर है कि जंगी प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने औपचारिक गिरफ्तारी क्यों नहीं दी? कांग्रेस के जब युवा नेताओं ने अपनी गिरफ्तारियां दीं तो फिर लीडर ने उससे किनारा क्यों किया? ऐसे सवाल सोशल मीडिया पर उठाये जा रहे हैं. शायद कांग्रेस अध्यक्ष उम्र के इस पड़ाव पर गिरफ्तारी की गतिविधि में शामिल होकर अपने स्वास्थ्य को प्रभावित करना नहीं चाहते होंगे?
मध्यप्रदेश में कांग्रेस का जनाधार बाकी राज्यों की तुलना में ज्यादा मजबूत है. सत्ता के संघर्ष में कांग्रेस को लड़ाई से बाहर नहीं माना जा रहा है. कांग्रेस में राजनीति की वास्तविकता को समझने की जरूरत है. सड़क पर संघर्ष तो लोकतंत्र की बुनियाद है लेकिन यह चुनाव के साल में तात्कालिक लाभ के लिए राजनीतिक प्रयास के रूप में ही देखा जाता है. इसे टिकाऊ नहीं माना जाता.
मध्यप्रदेश में कांग्रेस बिकाऊ और टिकाऊ से पूरी तरह से ग्रसित लगती है. कांग्रेस ने कमलनाथ की सरकार गंवाने के बाद विद्रोहियों को बिकाऊ स्थापित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है. विद्रोही विधायकों ने नया जनादेश प्राप्त कर बीजेपी की सरकार को न केवल मजबूती प्रदान की थी बल्कि कांग्रेस के बिकाऊ आरोपों को भी जनता ने अस्वीकार किया था. तब से लगातार कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बिकाऊ और टिकाऊ की राजनीतिक बहस को कायम रखा है. पार्टी शायद ऐसा मानती है कि सिंधिया समर्थक नेताओं को बिकाऊ साबित कर वह चुनाव में इसका लाभ ले सकती है.
किसी भी विचार के जनदृष्टि से विश्लेषण अलग-अलग निकाले जाते हैं. जब भी कांग्रेस पार्टी बिकाऊ और टिकाऊ की बात करती है तब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ऐसी क्या परिस्थितियां बनती हैं कि पार्टी के निर्वाचित विधायकों को विद्रोह करना पड़ जाता है. क्या पार्टी संगठन पर एकाधिकार की नीति के चलते नेताओं और कार्यकर्ताओं में असंतोष पनपता है? सेवा की राजनीति में बिकाऊपन का तो कोई स्थान ही नहीं होना चाहिए. बिकाऊपन वहां होता है जहां लाभ-हानि का सौदा होता है. जब संगठन में एकाधिकार और लाभ हानि का गणित निर्धारित किया जाता है तब समीकरण में जो समायोजित नहीं होते, उनमें असंतोष और विद्रोह पनपना स्वाभाविक है.
कार्यकर्ताओं को बिकाऊ और टिकाऊ बनने की जो परिस्थितियों कारण बनती हैं सबसे पहले उन पर नियंत्रण करना जरूरी है. यह जिम्मेदारी पार्टी के उन वरिष्ठ नेताओं की है जो पार्टी पर कब्जा बनाए हुए हैं. दलों में विद्रोह के लिए विद्रोह से ज्यादा नेतृत्व के आचरण को जिम्मेदार माना जाना चाहिए.
कांग्रेस बिकाऊ और टिकाऊ की कितनी भी बात कर ले लेकिन जब तक नेतृत्व के स्तर पर कार्यकर्ताओं और नेताओं की सुनवाई नहीं होगी, सतत संवाद की व्यवस्था नहीं होगी, कार्यकर्ताओं की समस्याओं का निराकरण नहीं होगा, संगठन में गुटों और पसंदगी को प्राथमिकता देने की नीति चलती रहेगी, तब तक बिकाऊ परिस्थितियां लगातार बनती रहेंगी. यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि बिकाऊपन की स्थितियां कांग्रेस में ही क्यों सबसे ज्यादा बनती हुई दिखाई पड़ती हैं?
कांग्रेस का हल्लाबोल विधानसभा के सदन में दिखाई नहीं पड़ना भी राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका रहा है. सामान्य रूप से देखा जाता है कि जब भी किसी राजनीतिक दल का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है और विधानसभा का सत्र चल रहा होता है तो प्रदर्शन के सभी मुद्दों पर विपक्ष के लोग मजबूती के साथ आवाज उठाते हैं. सदन के अंदर मुद्दे उठाए जाते हैं, ये मुद्दे रिकॉर्ड में आते हैं. उस पर मीडिया का भी ध्यान आकर्षित होता है. तब जनता के बीच प्रदर्शन के मुद्दों पर सही ढंग से संदेश जाता है. कांग्रेस के जंगी प्रदर्शन के मुद्दों पर विधानसभा में कोई बात रिकार्ड में नहीं आना समझ से परे है.
कांग्रेस विचारों के भ्रम में दिखाई पड़ रही है. जब भी कोई पार्टी विचारों में भ्रमित हो जाती है तब संगठन को ऐसी कमजोरियों का सामना करना पड़ता है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व और सेकुलर विचारों के बीच में भ्रमित दिखाई पड़ती है. अल्पसंख्यक वर्ग जो कांग्रेस को सेकुलर दल के रूप में देखते रहे हैं अब सॉफ्ट हिंदुत्व के कांग्रेसी चिंतन के कारण उनका भी कांग्रेस से मोहभंग होता दिखाई पड़ रहा है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के भोपाल से अल्पसंख्यक समर्थक कद्दावर नेता के चुनाव मैदान में होने के बावजूद भी अल्पसंख्यकों ने पूरी ताकत से कांग्रेस का समर्थन शायद नहीं किया.
कमलनाथ सॉफ़्ट हिंदुत्व के साथ चुनाव फतह करना चाहते हैं. कार्यकर्ताओं और नेताओं के बिकाऊ और टिकाऊ होने से ज्यादा किसी भी राजनीतिक दल के विचारों में टिकाऊपन होना जरूरी है. विचारों में इस प्रकार के भ्रमपूर्ण हालात जनमत में टिकाऊपन को समाप्त कर देते हैं. लोकतंत्र में कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल का टिके रहना जरूरी है. दूसरे राज्यों में कांग्रेस जिन हालातों में पहुंच गई है अगर वही हालात मध्यप्रदेश में अगले चुनाव में भी बन गए तो बिकाऊ-टिकाऊ की बहस अप्रासंगिक हो जाएगी।
(आलेख लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट साभार)