किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में तीन नए कृषि कानूनों का एक विश्लेषण


ज्यादा अहम बात यह है कि भारत की खेती के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश और निर्यात बाज़ारों पर अधिक निर्भरता देश की खेती में फसलों के चयन को बदल देगी। इससे हमारी खेती की पूरी व्यवस्था को बुरी तरह क्षति पहुंचेगी। जिस तरह गुलामी के दौर में हमारे किसान अपनी ज़मीन पर वह फसल उगाने के लिए स्वतंत्र नहीं थे जो वे उगाना चाहते थे या जो उनकी जरूरत थी, बल्कि उन्हें अंग्रेजों के डर से वह उगाना होता था जिसमें अंग्रेजों को फायदा था और जो अंग्रेजों की जरूरत थी। सन 1917 में चम्पारण में गांधीजी ने अंग्रेजों द्वारा करवाई जा रही नील की जबरिया खेती के खिलाफ अपना पहला सत्याग्रह किया था। तब में और अब में फर्क इतना ही है कि अब यही काम डंडे, बूटों और हंटर के बजाए ऊंची कीमत के लालच और मुनाफे की राजनीति के द्वारा किया जा रहा है और हमारे किसान फिर से अपनी जरूरत की फसल चुनने के अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं।


जया मेहता
अतिथि विचार Updated On :

देशभर में लॉकडाउन घोषित करने के डेढ़ महीने बाद प्रधानमंत्री महोदय को यह ख्याल आया कि कोरोना वायरस की महामारी से निपटने में जनता की कुछ मदद भी करना चाहिए और 12 मई 2020 को उन्होंने बीस लाख करोड़ रुपए के एक राहत पैकेज कि घोषणा की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “ये पैकेज देश के मजदूरों और किसानों के लिए है जिन्होंने हर हालत में, हर मौसम में और चौबीसों घंटे अपने देशवासियों के लिए काम किया”। बाद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अगले पांच दिन तक इस पैकेज में शामिल प्रावधानों की विस्तार से व्याख्या की। उन्होंने कहा कि खेती के क्षेत्र के लिए इस पैकेज में ग्यारह कदम उठाये गए हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर का कोष स्थापित किया गया है, जानवरों के लिए टीकाकरण, खाने-पीने की चीजों के छोटे उद्यम आदि के लिए इस पैकेज में प्रावधान किये गए हैं, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण घोषणा उन्होंने की खेती के बाजार कि संरचना में किये जाने वाले तीन सुधारों के बारे में।

इसमें एक सुधार आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 से संबंधित है, दूसरा विभिन्न राज्यों के कृषि उत्पाद मार्केटिंग कमेटी कानूनों को ख़तम करने के बारे में और तीसरा ठेका खेती को संस्थागत रूप देने के बारे में है। ये तीनों सुधार मौजूदा कृषि उत्पादों के बाजार की संरचना पर से सरकार का नियंत्रण हटाने के मकसद से किये गए हैं। जब कोविड और लॉकडाउन की वजह से खेती में पहले से चले आ रहे संकट में और भी इज़ाफ़ा हो गया, और जब वंचितों और हाशिये पर मौजूद परिवारों को राज्य की सहायता की जरूरत थी ताकि निर्दयी और निरंकुश बाजार की अनिश्चितताओं और क्रूरताओं से राज्य उनकी रक्षा करे तब मोदी सरकार ने बाजार को और अधिक खोलकर और अपना नियंत्रण हटाकर समाज के कमजोर तबकों को बाजार के सामने पूरी तरह असहाय छोड़ दिया। वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश की जनता को आत्मनिर्भर बनाने का एजेंडा यही था।

जब संसद का मानसून सत्र 14 सितंबर 2020 को शुरू हुआ तब ये तीनों विधेयक राज्यसभा एवं लोकसभा में रखे गए। लोकसभा में यह विधेयक पास हो गए लेकिन 17 सितंबर को शिरोमणि अकाली दल की सांसद और खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इन विधेयकों के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया। 20 सितंबर को ये विधेयक राज्यसभा में रखे गए जहाँ समूचे विपक्ष ने इन विधेयकों की बारीक पड़ताल के लिए एक समिति बनाने कि मांग की। विपक्षी सदस्यों ने यह भी मांग की कि इन विधेयकों को अमान्य करने के उनके प्रस्तावों पर राज्यसभा में मतदान करवाया जाये। राज्यसभा के उपसभापति ने उनकी मांग अस्वीकार कर दी और सदन में घमासान मच गया। सभी नियमों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर वैसी ही अफरा-तफरी में इन विधेयकों को आनन्-फानन पारित कर दिया। तीसरा कानून, “आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन 1955” 22 सितंबर 2020 को पारित किया और 27 सितंबर को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद ये तीनों विधेयक कानून बन गए।

संसद में पारित कृषि विधेयक

1. आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020

आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में भारत में लागू किया गया था। तब इस नियम को लागू करने का उद्देश्य उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता उचित दाम पर सुनिश्चित करवाना था। अतः इस कानून के अनुसार आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, मूल्य और वितरण सरकार के नियंत्रण में होगा जिससे उपभोक्ताओं को बेईमान व्यापारियों से बचाया जा सके। आवश्यक वस्तुओं की सूची में खाद्य पदार्थ, उर्वरक, औषधियां, पेट्रोलियम, जूट आदि शामिल थे।

23 सितम्बर 2020 को पारित अधिनियम में संशोधन के बाद बने इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है। इस प्रकार, इन वस्तुओं पर जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी को सीमित करने और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने जैसे प्रतिबंध हटा दिए गए हैं। अब इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं होगा। हालाँकि इस अधिनियम में प्रावधान है कि युद्ध, अकाल या असाधारण मूल्य वृद्धि जैसी आकस्मिक स्थितियों में प्रतिबंधों को फिर से लागू किया जा सकता है लेकिन जिस समय इस प्रतिबंध को हटाया गया है, क्या यह आपातकालीन समय नहीं है? आज कोविड-19 के दौर में करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए हैं। यह ऐसा समय है जब लोग अपनी मौलिक जरूरतों को पूरा करने लायक भी नहीं कमा पा रहे। इस अभूतपूर्व कठिनाई के दौर में लोकतान्त्रिक राज्य की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को उनकी बुनियादी जरूरतों का सामान सस्ती कीमत पर उपलब्ध करवाए। जीने के लिए बुनियादी जरूरतों में खाद्य सामग्री सबसे पहले क्रम पर आती है, लेकिन कानून में इस तरह का बदलाव करके जरूरतमंदों को खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाने के बजाए अधिक मूल्य पर उपज बेचने जैसी बेहतर संभावनाओं एवं भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटाना बेहद शर्मनाक सोच है। इस कानून से जमाखोरों को वैधता मिल जाती है।

इस संशोधन को उचित ठहराते हुए सरकार तर्क देती है कि किसान अपनी कृषि उपज को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बेचकर बेहतर दाम प्राप्त कर सकेंगे। इससे किसानों को व्यापार एवं सौदेबाजी के लिए बड़ा बाजार मुहैया होगा और उनकी व्यापारिक शक्ति बढ़ेगी। इसी प्रकार खाद्य पदार्थों के भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटा देने से भंडारण क्षेत्र (वेयर हाऊसिंग) की क्षमता बढ़ाई जा सकती है और इसमें निजी निवेशकों को भी आमंत्रित किया जा सकेगा।

देश में किसान परिवारों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को देखते हुए ऐसे किसान गिने-चुने ही हैं जो अपना कृषि उत्पाद मुनाफे की तलाश में दूर-दराज के इलाकों तक भेज पाते हों या जिनके पास इतने बड़े गोदाम हों जहाँ वो अपनी फसल का लम्बे समय तक भंडारण कर सकें। ज़ाहिर है इस संशोधन वाले कानून से केवल बड़े व्यापारियों और कंपनियों को ही फायदा होगा। जो खाद्य पदार्थों के बाजारों में गहराई तक पैठ रखते हैं और ये अपने मुनाफे के लिए खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और परिवहन करके संसाधनविहीन बहुत सारे गरीब किसानों का नुकसान ही करेंगे।

2. कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य  (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020

1970 के दशक में, राज्य सरकारों ने किसानों के शोषण को रोकने और उनकी उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए ‘कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था। इस अधिनियम के तहत यह तय किया कि किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जाएगी। मंडी कमेटी खरीददारों, कमीशन एजेंटों और निजी व्यापारियों को लाइसेंस प्रदान कर व्यापार को नियंत्रित करती है। मंडी परिसर में कृषि उत्पादों के व्यापार की सुविधा प्रदान की जाती है; जैसे उपज की ग्रेडिंग, मापतौल और नीलामी बोली इत्यादि। सरकारी मंडियों या लाइसेंसधारी निजी मंडियों में होने वाले लेन-देन पर मंडी कमेटी टेक्स लगाती है। भारतीय खाद्य निगम (फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया-एफसीआई) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कृषि उपज की खरीददारी सरकारी मंडियों के परिसर में ही होती है।

कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम 2020 के अनुसार कृषि व्यापार की यह अनिवार्यता कि मंडी परिसर में ही उपज बेचना जरूरी है खतम कर दी गई। नए कानून के मुताबिक किसान राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों के बाहर अपनी कृषि उपज बेच सकता है। यह कानून कृषि उपज की खरीद-बिक्री के लिए नए व्यापार क्षेत्रों की बात करता है जैसे किसान का खेत, फैक्ट्री का परिसर, वेयर हॉउस का अहाता इत्यादी। इन व्यापार क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म की भी बात की जा रही है। इससे किसानों को यह सुविधा मिलेगी कि वे कृषि उपज को स्थानीय बाजार के अलावा राज्य के अंदर और बाहर दूसरे बाज़ारों में भी बेच सकते हैं। इसके अलावा, इन नए व्यापार क्षेत्रों में लेन-देन पर राज्य अधिकारी किसी भी तरह का टेक्स नहीं लगा पाएंगे। यह कानून सरकारी मंडियों को बंद नहीं करता बल्कि उनके एकाधिकार को समाप्त करता है, सरकार का दावा है कि इससे कृषि उपज का व्यापार बढ़ेगा।

इस नियम का विरोध इसलिए भी किया जाना जरूरी है क्योंकि यह कानून संविधान में निहित राज्य सरकारों के अधिकार की अवमानना करता है। सत्तर के दशक में कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) को राज्य सरकार की विधानसभाओं ने बनाया था और अब इस नए कानून से कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) निरस्त हो गए हैं और केंद्र सरकार ने इन्हें निरस्त करते समय राज्य सरकार से बात करना भी जरूरी नहीं समझा। केंद्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह लिए बिना उन्हें कैसे खत्म कर सकती है? 2003 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी तो यह निर्णय लिया गया था कि निजी कंपनियों को मंडी परिसर के बाहर कृषि उपज खरीदने की अनुमति दी जानी चाहिए। लेकिन इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, केंद्र सरकार ने केवल एक मॉडल अधिनियम तैयार किया और उसके मुताबिक राज्य सरकारों को मंडी अधिनियम में संशोधन करने की सलाह दी। इसके विपरीत मोदी सरकार की एनडीए गवर्मेंट ने हर क्षेत्र में, हर मामले में संवैधानिक उल्लंघन करने का रिकॉर्ड बनाया है।

राज्य सरकारों के अधिकारों के हनन से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि किसान खुद इस कानून को किसान विरोधी और कॉरर्पोरेट समर्थक मानते हैं। वे जानते और मानते हैं कि इन सुधारों से उन्हें अपनी उपज के लिए उच्च मूल्य प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा। इसके बजाय इन सुधारों से कॉरपोरेट्स को कृषि उपज की सीधी खरीद की सुविधा होगी, जिस पर किसी हद तक कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) होने की वजह से राज्य सरकार का कुछ तो नियंत्रण था। कॉरपोरेट घरानों और बड़े व्यापारियों को खरीद-फरोख्त की खुली छूट मिल जाने से वे उन जगहों से ही किसानों की उपज खरीदेंगे जहाँ लेन-देन के लिए कोई शुल्क या टैक्स नहीं लिया जाएगा। शुरुआत में कंपनियों द्वारा किसानों को लुभाने के लिए कुछ आकर्षक मूल्य के प्रस्ताव दिए जाएंगे लेकिन बाद में फसल के दामों पर पूरा नियंत्रण कंपनियों और व्यापारियों का हो जायेगा। इस नए कानून का यह दुष्परिणाम होगा कि सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों में लेन-देन कमतर होने से व्यापार कम होने लगेगा और अंततः धीरे-धीरे सरकारी मंडियों का विघटन होता जाएगा और साथ ही साथ एफसीआई द्वारा खरीद भी खत्म हो जाएगी। जिसका परिणाम यह होगा कि कृषि मंडियों पर सरकारी एकाधिकार के बजाय कॉरर्पोरेट का एकाधिकार होगा और किसान निजी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दया पर निर्भर हो जाएंगे। कृषि उपज के अंतरराष्ट्रीय बाजारों में आते उतार-चढ़ाव और अनुचित व्यापार के परिणामों से देश के किसानों को बचने के लिए कोई बफर जोन नहीं होगी।

हालाँकि मोदी सरकार बार-बार आश्वासन दे रही है कि एफसीआई द्वारा कृषि उपज की खरीद जारी रहेगी और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। किसानों को इस आश्वासन पर जरा भी भरोसा नहीं है, इस सरकार का रिकार्ड है कि पहले भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बारे में कई वादे किए गए थे जिन्हें कभी पूरा नहीं किया गया। 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में, भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था कि वह स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को लागू करेगी। इस घोषणा पत्र में किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने का वादा किया गया था। स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार उत्पादन के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में उत्पादन की सारी लागतों को शामिल किया जाये जैसे कि श्रम की लागत, जमीन की परोक्ष-अपरोक्ष लागत, मशीन की लागत इत्यादि। फिर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते वक्त इस कुल लागत पर पचास प्रतिशत कि बढ़ोतरी की जाये।

लेकिन जब चुनाव जीत लिया और सरकार बन गई तब 2015 में मोदी सरकार ने सर्वोच्च अदालत में एक हलफनामा दायर किया। इस हलफनामे में सरकार द्वारा कहा गया कि किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दी ही नहीं जा सकती क्योंकि इससे पूरे बाजार में विकृति आ जाएगी। इसके बाद, कृषि मंत्री ने कहा कि उन्होंने आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने के लिए कभी कोई वादा नहीं किया था। 2018-19 में, वित्त मंत्री ने एक बयान दिया कि वो स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के सुझावों को पहले ही लागू कर चुके हैं। संक्षेप में, सरकार ने इस संबंध में सभी प्रकार के गैरजिम्मेदाराना बयान दिए हैं और यह अंतिम कदम वास्तव में किसानों को किसी भी प्रकार के समर्थन मूल्य देने की जिम्मेदारी से बचने की कोशिश है। आखिरकार, इस तरह से सरकार द्वारा अपने आप को हर तरह की जिम्मेदारी से मुक्त कर लेना शायद प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए नारे “आत्म निर्भर” का अनुसरण है।

3. कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 2020

इस अधिनियम का उद्देश्य अनुबंध या ठेका खेती के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संस्थागत ढांचा तैयार करना है। ठेका या अनुबंध खेती में वास्तविक उत्पादन होने से पहले किसान और खरीददार के बीच उपज की गुणवत्ता, उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य के सम्बंध में अनुबंध किया जाता है। बाद में यदि किसान और खरीददार के बीच में कोई विवाद हो तो इस कानून में विवाद सुलझाने के प्रावधान शामिल हैं। सबसे पहले तो एक समाधान बोर्ड बनाया जाये जो कि विवाद को सुलझाने का पहला प्रयास हो। यदि समाधान बोर्ड विवाद न सुलझा सके तो आगे इस विवाद को सबडिविजनल अधिकारी और अंत में अपील के लिए कलेक्टर के सामने ले जाया जा सकता है लेकिन विवाद को लेकर अदालत में जाने का प्रावधान नहीं है। विधेयक विवाद सुलझाने की बात तो करता है लेकिन इसमें खरीद के अनुबंधित मूल्य किस आधार पर तय होंगे इसका कोई संकेत नहीं है। एक बड़ी कम्पनी तरह-तरह के दबाव बनाकर छोटे किसान से कम से कम मूल्य पर अनुबंध कर सकती है। और चूँकि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार नहीं बनाते हुए आस-पास की सरकारी या निजी मंडियों के समतुल्य मूल्य देने की बात की है, इसलिए जरूरी नहीं कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल हो। कानून की भाषा की पेचीदगियों से किसान को गफलत में डालकर कंपनियां अपने मुनाफे को सुनिश्चित करने वाला मूल्य अनुबंध में शामिल करवाएंगी।

नवउदारवादी नीतियों के चलते पंजाब और हरियाणा में कई किसानों ने पेप्सीको और अन्य बड़ी कम्पनियों के साथ अनुबंध या ठेका खेती की है। ठेका खेती करने के बाद अनेक किसानों के अनुभव कड़वे रहे हैं। किसान बहुत सावधानीपूर्वक ठेका खेती के अनुबंधों के अनुसार काम करता है और कंपनियां खेत में खड़ी उपज को लेने से इंकार कर देती हैं। अनेक बार कम्पनियों द्वारा किसानों को समय पर भुगतान नहीं किया जाता है। अनुबंध होने के बावजूद किसान कंपनियों से लड़ने में सक्षम नहीं होता है क्योंकि अधिकांश किसानों के संसाधन कंपनियों कि तुलना में बहुत कम होते हैं। यदि विवाद हो तो उसे इस कानून के तहत सुलझाने की प्रक्रिया तो बताई गई है लेकिन इससे इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसान को न्याय मिलेगा ही। कंपनियों के पास वकीलों कि पूरी फौज होती है जबकि किसान कोर्ट-कचहरी के घुमावदार, पेचीदा चक्करों में बहुत लम्बे समय तक उलझा नहीं रह सकता। ठेका खेती को एक संस्थागत वैधानिक रूप देने से केवल वही किसान नहीं प्रभावित होंगे जो कॉन्ट्रेक्ट खेती कर रहे हैं, बल्कि ठेका खेती समूचे खेती के परिदृश्य को बदल देगी।

हाल में गुजरात में पेप्सीको कम्पनी ने कुछ ऐसे आलू उत्पादक किसानों से मुआवज़े कि मांग की जिन्होंने पेप्सीको के साथ खेती का कोई अनुबंध नहीं किया था। पेप्सीको का इन किसानों पर यह आरोप था कि बिना अनुबंध किये यह किसान आलू की वही किस्म उगा रहे थे जो पेप्सीको कम्पनी अनुबंध करके किसानों से उगवाती है और जिससे ले’ज़ ब्रांड के चिप्स बनते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि किसी खास उत्पाद के लिए अगर कंपनियां किसानों के साथ ठेका खेती का अनुबंध करती हैं तो वे उस फसल के बीज पर भी अपना कॉपीराइट का अधिकार जताती हैं जो बीज उन्होंने किसान को दिया होता है। यानि जो किसान कंपनियों के साथ खेती का अनुबंध नहीं करेंगे वे कम्पनी के बीज की किस्म को उगा भी नहीं सकेंगे।

इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि भारत की खेती के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश और निर्यात बाज़ारों पर अधिक निर्भरता देश की खेती में फसलों के चयन को बदल देगी। इससे हमारी खेती की पूरी व्यवस्था को बुरी तरह क्षति पहुंचेगी। जिस तरह गुलामी के दौर में हमारे किसान अपनी ज़मीन पर वह फसल उगाने के लिए स्वतंत्र नहीं थे जो वे उगाना चाहते थे या जो उनकी जरूरत थी, बल्कि उन्हें अंग्रेजों के डर से वह उगाना होता था जिसमें अंग्रेजों को फायदा था और जो अंग्रेजों की जरूरत थी। सन 1917 में चम्पारण में गांधीजी ने अंग्रेजों द्वारा करवाई जा रही नील की जबरिया खेती के खिलाफ अपना पहला सत्याग्रह किया था। तब में और अब में फर्क इतना ही है कि अब यही काम डंडे, बूटों और हंटर के बजाए ऊंची कीमत के लालच और मुनाफे की राजनीति के द्वारा किया जा रहा है और हमारे किसान फिर से अपनी जरूरत की फसल चुनने के अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं।

साम्राज्यवादी देशों का कृषि व्यापार में यह रवैया अनेक दशकों से रहा है। उष्णकटिबंधीय देशों यानि गर्म जलवायु वाले देशों में विभिन्न प्रकार के फलों, सब्जियों, फूल, मसाले और ऐसे अनेक कृषि उत्पाद उगाये जा सकते हैं जो यूरोप और अमेरिका के ठंडी और मध्यम या समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में नहीं उगाए जा सकते हैं। साम्राज्यवादी व्यवस्था यह चाहती है कि उष्णकटिबंधीय देश अपनी खेती में उन कृषि उत्पादों की पैदावार करें जिनकी जरूरत विदेशों में है और इसके बदले में वे विकसित देशों में भारी मात्रा में उत्पादित होने वाले खाद्यान्न का आयात कर लें। बहुराष्ट्रीय कंपनियां और आयात-निर्यात बाजार किसानों को खाद्यान्न उत्पादन को छोड़ देने और अपनी खेती को विकसित देशों के मुताबिक ढालने के लिए बहुत से लुभावने और आकर्षक प्रस्ताव दे सकते हैं। अफ्रीका में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी देशों ने ऐसा ही किया है और वहाँ की बड़ी आबादी की खाद्य सुरक्षा गंभीर खतरे में पड़ गई है। मौजूदा बदलावों को देखते हुए लगता है कि भारत भी अफ्रीका के रास्ते पर ही आगे बढ़ेगा और ऐसा करने में भारतीय राज्य का सक्रिय समर्थन है।

उम्मीद जगाते संघर्ष

यह कानून उन बड़े बदलावों का एक हिस्सा हैं जो भारत की अर्थव्यवस्था को साम्राज्यवादी देशों की गुलाम अर्थव्यवस्था बनाने के लिए किये जा रहे हैं। हम नवउदारवाद के दौर में अपनी ही चुनी गई सरकारों द्वारा अपने ही देश के सार्वजानिक उद्यमों को निजी हाथों में औने-पौने दामों पर निजी कंपनियों को बेचा जाता देख रहे हैं। हाल ही में अनेक नए श्रम कानूनों को चार कोड के भीतर समेटकर उन्हें इस तरह बदल दिया गया है कि मालिकों को मजदूरों और कर्मचारियों के शोषण की और ज्यादा कानूनी आज़ादी हासिल हो जाये। यह तीन कृषि कानून भी उन व्यापक बदलावों का ही एक हिस्सा हैं जहाँ जनता द्वारा चुनी गई सरकार देशी-विदेशी महाकाय कंपनियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए अपने मजदूरों और किसानों की मेहनत को, उनकी आजीविका को और उनके जीवन को गिरवी रख रही है। किसानों का पिछले कई दिनों से दिल्ली घेराव का आंदोलन इन नीतियों के प्रतिरोध की एक पुरजोर कोशिश है और आने वाले वक्त में प्रतिरोध की ऐसी बहुत सी जोरदार कोशिशें उभरेंगी और शोषितों के अलग-अलग तबकों का सामूहिक प्रतिरोध एक दिन शोषण की व्यवस्था को खत्म कर एक नई व्यवस्था कायम करेगा।


(जया मेहता इंदौर स्थित अर्थशास्त्री हैं)

साभार: जनपथ