ये है दहेज का पूरा ब्यौरा : राज्य सरकार इसके अलावा 38 हजार रुपए की राशि का उपहार देगी. इसमें एलपीजी गैस कनेक्शन, 32 इंच की कलर टीवी, रेडियो, स्टील की अलमारी, 6 फाइबर कुर्सी का सेट, निवार वाला पलंग, रजाई गद्दे, चांदी का मंगलसूत्र, पायल, बिछिया, सिलाई मशीन, टेबल फेन, दीवार घड़ी, स्टील के 51 बर्तन का सेट, प्रेशर कुकर और वधु के लिए 4 साड़ियां दी जाएंगी.
ये किसी कन्या पक्ष या किसी जागरूक नागरिक ने आस-पड़ोस में हो रही शादी के दौरान हुए लेन-देन का ब्यौरा किसी पुलिस थाने में दहेज़ प्रतिबंध कानून,1961 के तहत वर पक्ष के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज़ कराते वक़्त नहीं दिए हैं, बल्कि यह बजाफ़्ता राजकीय आयोजन में मध्य प्रदेश सरकार के सामाजिक न्याय एवं निशक्त जन कल्याण विभाग द्वारा 2006 से शुरू हुए सामूहिक कन्या विवाह में दिये जाने वाले दहेज के ब्यौरे हैं। ये ब्यौरे एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल के वेब पोर्टल पर शाया हुई एक खबर के अंश हैं, जो मध्य प्रदेश सरकार की कैबिनेट में हुए महत्वपूर्ण फैसलों पर आधारित हैं।
चूंकि ये विवरण खुद राज्य सरकार ने जारी किए हैं, इसलिए अब दहेज़ को गैर-कानूनी कृत्य या सामाजिक अभिशाप कहना मुनासिब नहीं है।
कोरोना की वजह से दो सालों तक इन सामूहिक कन्या विवाह के आयोजन नहीं हो सके जिन्हें इस वर्ष 21 अप्रैल से फिर से शुरू किया गया है। राज्य सरकार द्वारा दी गयी जानकारी के मुताबिक अब तक इस योजना से करीब पाँच लाख चौसठ हज़ार कन्याओं के विवाह हो चुके हैं।
मध्य प्रदेश सरकार सामूहिक कन्या विवाह को कितना गंभीरता से लेती है, इसे समझने के लिए प्रदेश के सामाजिक न्याय व निशक्त जन कल्याण विभाग के पोर्टल को देखा जाना चाहिए, जो उन कुछ चुनिन्दा पोर्टल्स में से एक है, जो सबसे अद्यतन (अपडेटेड) है।
अप्रैल 2022 से पुन: शुरू हुई इस योजना का लाभ अब सामान्य वर्ग की कन्यायों को भी मिलेगा और यह बाध्यता भी खत्म कर दी गयी है कि वर को मध्य प्रदेश का मूल निवासी होना चाहिए। अब वर किसी और राज्य का भी हो सकता है। चूंकि यह योजना कन्याओं के लिए है, अत: कन्या का मध्य प्रदेश का मूल निवासी होना अनिवार्य है।
इस योजना का मुख्य लाभार्थी प्रदेश की कन्याएँ हैं, जिनके लिए दो दशकों से प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद मामा की भूमिका में पेश करते आए हैं। दहेज़ सामग्री की यह सूची दहेज़ प्रतिबंध कानून, 1961 की धारा 6 (1) के तहत परिभाषित है। लेकिन जब कन्या को ऐसे उपहार खुद राज्य का मुखिया रिश्ते में मामा होने की दुहाई देते हुए न केवल दे रहा हो, बल्कि सरकार के एक विभाग द्वारा बजाफ़्ता उसका प्रचार किया जा रहा हो, तब इस परिभाषा में बदलाव की ज़रूरत है, जिस पर देश की संसद को तत्काल ध्यान देना चाहिए।
मध्य प्रदेश सरकार की इस योजना में शामिल शब्दों को ध्यान से देखें तो यह यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि यह सन 2022 है और देश को आज़ाद हुए 75 साल पूरे होने जा रहे हैं। देश में महिलाओं ने तमाम सामाजिक और सामंती वर्जनाओं को तोड़कर बराबरी का दर्जा हासिल करने की दिशा में लंबा सफर तय कर लिया है।
कन्या, वर, विवाह, दहेज़, मंगलसूत्र, पायल, बिछिया, कन्यादान जैसे शब्दों के जरिये एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य की लोकतान्त्रिक सरकारें किस कदर अतीतजीवी और पुनरुत्थानवादी दिशा में काम कर रही हैं समझने की ज़रूरत है।
हालांकि राज्य सरकार पूरी सजगता से इस योजना को इसी शब्दावली में न केवल आधिकारिक प्रचार-प्रसार विभाग के जरिये प्रकाशित करती है बल्कि प्रदेश के तमाम समाचार पत्र इसी शब्दावली का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं।
इस योजना के लिए पात्रता की शर्तों और पात्र लाभार्थियों के बारे में भी देखा जाना चाहिए जिससे सरकार के लैंगिक नज़रिये की पड़ताल की जा सकती है। इस योजना के लिए गरीबी रेखा से नीचे के परिवार की कन्या (लड़की नहीं) और परित्यक्ता (अपनी मर्ज़ी से तलाक देकर नहीं) की श्रेणियाँ हैं। गोया एक गरीब परिवार की लड़की के लिए शादी ही सबसे बड़ी चुनौती है, बल्कि शादी से बड़ी चुनौती है शादी में खर्च किए जाने के लिए अनिवार्य धन-राशि। इसी तरह एकल महिला (तलाक़शुदा) के जीवन में भी सबसे बड़ी चुनौती अपनी दूसरी शादी के लिए खर्च की व्यवस्था करना और इन चुनौतियों में प्रदेश की सभी लड़कियों के ‘मामा’ यानी प्रदेश के मुख्यमंत्री समाधान लेकर प्रकट होते हैं।
कहना व्यर्थ है कि इस योजना से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रदेश के लोगों के दिलों में जगह बनाई है और उन्हें इसका लाभ हर चुनाव में मिल रहा है। हालांकि ऐसे कोई ब्यौरे सरकार द्वारा जारी नहीं होते हैं जिनसे यह जाना जा सके कि इन शादीशुदा जोड़ों की ज़िंदगी कैसे चल रही है।
सरकार द्वारा इनकी शादी करवा देने के बाद उस परिवार की दैनंदिन ज़िंदगी कैसे बसर हो रही है? उनके पास कोई सतत रोजगार के स्रोत हैं या नहीं? इस एकमुश्त दहेज राशि के अलावा क्या उनकी ज़िंदगी में अन्य कोई पुख्ता साधन हैं जिनसे वो अपनी ज़िंदगी आसान ढंग से चला पा रहे हों?
यहाँ भी आम तौर पर एक बार बेटी की शादी के बाद माँ-बाप की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेने का भाव ही है। मामा ने शादी करवा दी है, अपनी भांजी की शादी करवा दी है और उसे विवाह के समय पर्याप्त दहेज़ दे दिया गया है। इसके बाद मामा की ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है। इन मामलों में माँ-बाप तो वैसे भी कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि वो गरीबी रेखा के नीचे बसर कर रहे हैं।
सवाल है कि क्या वाकई इस तरह एक पितृसत्ता को मजबूत करने वाली योजनाओं को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए? इसके अलावा हर कन्या के विवाह को एक ही तरह से यानी हिन्दू रीति से सम्पन्न करवाया जाना क्या राज्य की नीति हो सकती है?
मध्य प्रदेश सरकार हालांकि इन सामूहिक कन्या विवाहों में निकाह को उतनी ही तवज्जो देती है, लेकिन इसी के बरक्स वो आदिवासी कन्यायों को भी हिन्दू रीति-रिवाजों के जरिये हिन्दू बनाए जाने की भी कोशिश करती है। यह प्रलोभन वश किया जाने वाला अपराध ही है, जिस पर प्राय: कोई आपत्ति नहीं उठाई जाती।
इस योजना में हालांकि अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाहों को लेकर कोई बात विशिष्ट रूप से कही नहीं गयी है और राज्य सरकार की तरफ से ऐसी कोई जानकारी पोर्टल पर भी नहीं दी गयी है जिससे हमें यह जानकारी मिले कि राज्य सरकार अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाहों को प्रोत्साहित कर रही है या नहीं। लेकिन 2006 से जारी इस योजना में प्राय: ऐसे मामले देखने को नहीं मिले हैं, जहां कन्या का विवाह ऐसे किसी वर से करवाया गया हो जिसे उस कन्या ने खुद ही चुना हो?
देश का संविधान अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाहों को लेकर स्पष्ट है कि इन्हें राज्य द्वारा प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। अपना जीवन साथी चुनने की आज़ादी संविधान के अनुच्छेद 21 का ही विषय है और इसके लिए कई प्रगतिशील राज्य मसलन महाराष्ट्र या दक्षिण भारत के राज्य लंबे समय से प्रोत्साहन और संरक्षण दे रहे हैं।
मध्य प्रदेश में भी अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाहों को लेकर एक योजना डॉ. सबीता बेन अंतरजातीय विवाह योजना, 2020 मौजूद है, लेकिन सरकार की तरफ से उनका प्रचार-प्रसार न के बराबर है। बल्कि अब सरकार के पास ऐसे युवाओं के घरों पर बुलडोजर चलाने की कार्यवाइयाँ हैं जिन्होंने अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह किए हैं और अपने ‘पसंद के अधिकार’ का इस्तेमाल किया है। लेकिन सरकार ने इस सांवैधानिक अधिकार को हाल ही में गढ़े गए लव-जिहाद के तौर पर देखा है।
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा इस योजना को कल्याणकारी योजना कहा गया है। जैसे एक कल्याणकारी राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि की व्यवस्था अपने नागरिकों के लिए करता है और यह उसकी सांवैधानिक ज़िम्मेदारी होती है। जब कोई ज़िम्मेदारी योजना के रूप में क्रियान्वित होती है तो उसमें सिस्टम की अनिवार्य बुराई भ्रष्टाचार अंतर्निहित होता है।
आजकल मध्य प्रदेश में इस योजना के तहत दिये जाने वाले दहेज़ और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं और इससे निपटने के लिए मध्य प्रदेश सरकार पर्याप्त समय कैबिनेट की चर्चाओं में लगा रही है।
पंचायत से लेकर मध्य प्रदेश शासन तक इस भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए तमाम युक्तियाँ अपना रहे हैं। मसलन अब दहेज़ के टेंडर किस तरह से दिये जाएँ? जिन सप्लायर्स ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है, घटिया सामग्री दी है या समय पर नहीं दी है, उन्हें सप्लायर्स की सूची से हटाना और किसी दूसरे सप्लायर्स से टेंडर हासिल करना आदि आदि।
लेकिन जब एक योजना स्वयं में आधुनिक राज्य की संकल्पना के खिलाफ भ्रष्टाचार हो, उसमें खरीद बिक्री से जुड़े ये भ्रष्टाचार महज़ नज़रअंदाज़ किए जाने लायक हैं।
एक कन्या के विवाह पर मध्य प्रदेश सरकार कुल 51 हजार रुपये खर्च करती है। इसमें ऐसी संस्था को भी 3 हजार रुपए दिये जाते हैं जो पात्र कन्या को सामूहिक विवाह की इस योजना के लिए सरकार तक लेकर आती है। यानी एक दलाली व्यवस्था भी यहाँ आधिकारिक रूप से मान्यता हासिल कर चुकी है।
शादी-ब्याह में बिचौलियों (मध्यस्थों) की भूमिका अब निकट के रिश्तेदारों के पास नहीं रही है बल्कि उसका भी संस्थानीकरण किया जा चुका है। दिलचस्प है यह समझना कि जब यह योजना गाँव की पंचायत से शुरू होती है तो इसमें किसी गैर-सरकारी संस्था को अतिरिक्त ब्रोकरेज देने की ज़रूरत सरकार को क्यों आन पड़ी?
क्या वाकई इस योजना को लेकर कन्याओं के मन में उत्साह नहीं है और वो स्वत: प्रेरित होकर इस योजना का लाभ नहीं लेना चाहतीं? योजना का लाभ न लेने का सीधा अर्थ यही है कि वो क्या विवाह को लेकर इच्छुक नहीं हैं और विवाह को ही अपनी अंतिम मंज़िल नहीं मानना चाहतीं? लेकिन सरकार जैसे किसी भी तरह से उन्हें विवाह में धकेल देने पर आमादा है।
बहरहाल, कोई भी समाज अपने पिछड़ेपन से निकलना चाहता है। लड़कियां इस इक्कीसवीं सदी में नए सपने और इरादे लेकर बड़ी हो रही हैं। ज़रूरत है इनकी आकांक्षाओं को परवाज़ दिये जाने की न कि इन्हें वापिस उसी सामंती और पितृसत्तातमक व्यवस्था में धकेल देने की। हालांकि जब यह काम योजनाबद्ध ढंग से राजकीय संरक्षण में ही किया जाये तब क्या ही कहा जा सकता है!
(लेखक लंबे समय से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। यहाँ व्यक्त विचार व्यतिगत हैं)