सरयूसुत मिश्रा
कर्नाटक चुनाव परिणाम पर विश्लेषण की भरमार है। कांग्रेस क्यों जीती, बीजेपी क्यों हारी? इसके तमाम कारण गिनाए जा रहे हैं। यहां तक कि चुनाव वाले राज्यों में कांग्रेस बजरंग बली को अपनी जीत के सत्य के रूप में स्वीकारते हुए जय जय बजरंगबली के विजयी भाव में आ गई है।
चुनावों में हार गवर्नेंस की कमियों की होती है। कर्नाटक में बीजेपी की राज्य स्तर पर गवर्नेंस की कमजोरियों ने पार्टी को इतनी बड़ी हार दिलाई है। कर्नाटक चुनाव परिणाम को कांग्रेस की बड़ी जीत से ज्यादा बीजेपी की बड़ी हार कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। यह हार ना तो नरेंद्र मोदी की कही जाएगी, ना ही बीजेपी की विचारधारा की कही जाएगी। हार का वास्तविक कारण घटिया गवर्नेंस को ही माना जाएगा।
कर्नाटक के पत्ते खुल गए हैं। अब इसी साल के अंत में जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं वहां कांग्रेस में आया अतिउत्साह और अति आत्मविश्वास उन राज्यों के गवर्नेस के लिए बड़ी चुनौती हो सकती है। जहां कांग्रेस की सरकारें हैं वहाँ भी गवर्नेंस ही जीत और हार का कारण बनेगा।
कर्नाटक चुनाव परिणाम के दिन ही रविवार को मध्यप्रदेश में अटल बिहारी बाजपेयी सुशासन और नीति विश्लेषण संस्थान में गवर्नेंस का जोर का झटका दिखाई पड़ा है। इस संस्थान के आईएएस अफसर को छुट्टी के दिन हटाने की जल्दबाजी डेमोक्रेटिक गवर्नेंस के तरीकों पर बड़े सवाल खड़े कर रही है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस अफसर ने सुशासन संस्थान के गेस्ट हाउस में रहने वाले मेहमानों पर सवाल उठाते हुए यहां परमानेंट रहने वाले गेस्ट से कमरे खाली कराने के निर्देश जारी किए। कांग्रेस के मुताबिक़ इस निर्देश के कारण ही आईएएस अफसर को बिना विभाग के सचिव के रूप में पदस्थ होने की अपमानजनक परिस्थितियों तक पहुंचा दिया गया।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राज्य के पॉलिटिकल नेतृत्व के लिए नीतिगत विषयों पर काम करने वाले कुछ ऐसे ताकतवर लोग हैं जो मुख्यमंत्री सचिवालय के साथ ही इस संस्थान में भी पदस्थ बताए जाते हैं। यह भी बताया जा रहा है कि संस्थान के गेस्ट हाउस में ऐसे मेहमान स्थाई रूप से डेरा डाले हुए हैं। इन्हीं मेहमानों से कमरा खाली कराने के लिए संस्थान में पदस्थ आईएएस अफसर ने हिम्मत दिखाई। परिणाम वही हुआ जो अक्सर स्वतंत्र विचार के साथ सही काम करने वाले अधिकारियों के साथ होता रहता है।
किसी भी आईएएस अफसर की पदस्थापना बहुत सामान्य विषय है। सुशासन संस्थान में किए गए प्रशासनिक फेरबदल पर इसलिए सवाल उठ रहे हैं क्योंकि डेमोक्रेटिक पॉवर से डेमोक्रेटिक सिस्टम को ही ध्वस्त किया गया है। गुड गवर्नेंस की बातें तो बहुत की जाती हैं, सिविल सर्विस डे पर उपदेश और संदेश भी बहुत दिए जाते हैं। सत्यनिष्ठा से काम करने की शपथ भी खाई जाती है। गवर्नेंस का आधार स्तंभ आईएएस अफसर कहे जाते हैं। अगर इनके साथ ही सही काम करने की स्वतंत्रता नहीं बचेगी तो फिर सिस्टम के सामान्य हालात कैसे सुधारे जा सकते हैं?
गवर्नेंस में सिस्टम की जिम्मेदारियां और जवाबदेही नियमबद्ध और निर्धारित हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जनसेवा के प्रति समर्पित जन नेता के रूप में मध्यप्रदेश में इतिहास कायम कर दिया है। इसके बावजूद सिस्टम में समय-समय पर जिस तरह के सुर सुनाई पड़ते हैं वह मधुर और लयबद्ध तो नहीं कहे जा सकते।
गवर्नेंस का पूरा सिस्टम जनसेवा के लिए उपलब्ध होता है। सेवा देने वाले की भूमिका और सफलता, सेवा लेने वाले की संतुष्टि पर निर्भर करती है। अक्सर ऐसा देखा गया है कि सेवा देने वाला पक्ष ऐसा कृत्रिम माहौल बनाने में जुटा रहता है कि गवर्नेंस का पूरा सिस्टम सर्वोत्कृष्ट ढंग से काम कर रहा है। जिनके लिए पूरा सिस्टम काम कर रहा है उसके अनुभव और असंतोष को कोई तवज्जो नहीं दी जाती।
गवर्नेंस सिस्टम में व्यक्तिवाद हावी हो गया दिखाई पड़ता है। यह किसी एक राज्य का सवाल नहीं है। हर राज्य में सिस्टम से ज्यादा एक समूह संपूर्ण सिस्टम को संचालित करता दिखाई पड़ता है। निर्वाचित जन नेताओं से कई बार ऐसे फैसले करा लिए जाते हैं, जिनके जन कसौटी पर उचित परिणाम नहीं आते। डेमोक्रेटिक गवर्नेंस में सिस्टम में मत मतान्तर का सम्मान किया जाता है। गवर्नेंस के महत्वपूर्ण स्थानों पर समर्थकों-प्रशंसक समूह को वरीयता और स्वतंत्र विचारों को विरोधी विचारों के रूप में देखना आम बात हो गई है।
हर राज्य में ऐसे हालात दिखाई पड़ते हैं। जहां संविदा के आधार पर पसंदीदा को सिस्टम में महत्वपूर्ण भूमिका दी जाती है। ऐसी शैली के कारण सिस्टम में सत्यनिष्ठा से ज्यादा व्यक्तिनिष्ठा हावी हो जाती है। व्यक्ति इच्छा, व्यक्ति आकांक्षा व्यक्ति स्वार्थ, व्यक्ति पूजा जैसी बुराइयों के कारण डेमोक्रेटिक सिस्टम निहित स्वार्थ का शिकार बन जाता है।
चुनाव परिणामों के बाद विश्लेषणों में राजनीतिक दृष्टिकोण के साथ जाति धर्म और संप्रदाय के आधार पर परिणामों को अपने अपने हिसाब से प्रस्तुत किया जाता है। कभी भी परिणामों में गवर्नेंस की खामियों को ईमानदारी के साथ प्रस्तुत नहीं किया जाता। चाहे वह सिस्टम में भ्रष्टाचार का मामला हो और चाहे सेवा और सुविधा की उपलब्धता के समय लेटलतीफी और सिस्टम के अहंकार का मामला हो। अंततः डेमोक्रेसी के मालिक पब्लिक को ही इसे भुगतना पड़ता है।
कर्नाटक में बीजेपी की पराजय हो गई है। इससे उस राज्य में गवर्नेंस के लिए जिम्मेदार ब्यूरोक्रेसी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। ब्यूरोक्रेसी अब नई सरकार को नए-नए मशवरे और तरीके समझाने में जुट जाएगी । नई सरकार भी उन्हीं तरीकों से घिर जाएगी जिससे पुरानी सरकार घिरी हुई थी। इन्हीं तरीकों के कारण जनादेश में उलटफेर हुआ है।
जिन भी राज्यों में इस साल चुनाव होने हैं, वहां गवर्नेंस के हालात का अगर अध्ययन कर लिया जाए तो अभी चुनाव परिणामों के बारे में आकलन करना कठिन नहीं होगा। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है। राजस्थान में तो अशोक गहलोत और सचिन पायलट की नूराकुश्ती से गवर्नेंस दिखाई ही नहीं पड़ रहा है। मध्यप्रदेश में गवर्नेंस एक अनुभवी नेतृत्व में जनसेवा को अंजाम दे रही है। जनसेवा के इसी भाव को ब्यूरोक्रेसी को आत्मसात् करना होगा। ब्यूरोक्रेटिक सिस्टम को पूरी ताकत के साथ जनसेवा के लिए दौड़ाते रहने की जरूरत है।
ब्यूरोक्रेटिक चालों को समझते हुए गवर्नेंस और परफॉर्मेंस में सुधार समय की आवश्यकता है। गवर्नेंस की बातें ही जनादेश को बनाती और बिगाड़ती हैं। मतदाता हर छोटी-बड़ी बातों पर नजर रखता है। ऐसा दिखता जरूर है कि वह इन बातों से अनभिज्ञ है लेकिन ऐसा होता नहीं है। ना जाति ना धर्म, चुनाव हमेशा गवर्नेंस से ही जीता या हारा जाता है।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)