उत्सवधर्मिता भारतीय समाज की विशिष्टता है। ये प्रणम्य भी है, लेकिन अब यही उत्सवधर्मिता जानलेवा हो रही है, इसलिए इस पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है। हाल ही में सम्पन्न हुए गणेशोत्सव में देश भर में तीन दर्जन से अधिक लोगों की जान चली गयी और इसमें से अधिकांश गणेश विसर्जन के दौरान मारे गए। क्या इन हादसों को रोका नहीं जा सकता?
उत्सवधर्मिता जीवन का आवश्यक अंग है, लेकिन इसमें समयानुसार तब्दीली भी आवश्यक है। इस समय मैं देश के उत्सवधर्मी प्रदेश महाराष्ट्र में हूँ। मैंने यहां दस दिन रहकर देखा कि लोगों में उत्सवों को लेकर कितना जोश है, कितना जूनून है। उत्सवधर्मिता अब बाजार से भी जुड़ गयी है। चाहे गणेशोत्सव हो, चाहे नवरात्रि का उत्सव एक बड़ी अर्थव्यवस्था से अपने आप जुड़ गए हैं। इसमें कमी आने के बजाय इजाफा ही हो रहा है लेकिन इसी अनुपात में सुरक्षा के प्रति लापरवाही भी बढ़ रही है।
गणेशोत्सव के दौरान महाराष्ट्र में हजारों विशाल पांडालों में गणेश जी की प्रतिमाएं स्थापित होती हैं। महंगे से महंगे पांडाल बनाये जाने की प्रतिस्पर्द्धा होती है। इन पर अकूत धनराशि खर्च की जाती है। पहले ये उत्सव सामाजिक जागरण का अभियान थे, अब ये उत्सव राजनीतिक जागरण और शोषण के औजार हैं। हर पांडाल के पीछे कोई न कोई राजनेता खड़ा नजर आता है, अन्यथा जन सहयोग से तो ये सब सम्भव नहीं है। लेकिन सवाल ये नहीं है। सवाल ये कि आखिर हम अपनी उत्सव धर्मिता को कौन सा स्वरूप दे रहे हैं?
अब हमारे सामने इन उत्सवों के जरिये लोक जागरण का लक्ष्य नहीं है। हमारा मकसद राजनीतिक है, लेकिन पूरी तरह राजनीतिक भी नहीं है। यदि होता तो इन उत्सवों के जरिये हम अपने सामाजिक सरोकारों के साथ ही दूसरे मुद्दों पर भी काम करते, किन्तु आज ये सभी उत्सव केवल और केवल भीड़ से ज्यादा कुछ नहीं हैं। इन उत्सवों में आप एक ऐसी धर्मभीरु भीड़ के साथ होते हैं जो अपने आसपास के पर्यावरण से आँखें मूँद कर अपने आराध्य के दर्शन करती है और तमाम समस्याओं से निजात के लिए प्रार्थना करती है।
देश में पर्यावरण के अनुकूल प्रतिमाएं बनाने का अभियान अब ठंडा पड़ गया है। अब फिर से प्लास्टर आफ पेरिस की खूबसूरत प्रतिमाएं बनाई जा रही हैं। कला की दृष्टि से ये अद्भुत और अकल्पनीय हैं, लेकिन जब ये ही प्रतिमाएं जलाशयों में जाती हैं तो जहर घोल देती हैं। इस बारे में यदि आप जिक्र भर कर दें तो अधार्मिक कहे जा सकते हैं। हमारे यहां मिट्टी से बनी प्रतिमाओं की स्थापना और उनके विसर्जन का विधान है, किन्तु अब इसका पालन कौन करता है? क्या आदमकद प्रतिमाओं को बनाना जरूरी है? चलिए बना भी लिए तो क्या इनका विसर्जन जरूरी है, यदि है भी तो क्या इनका जहरीले पदार्थों से बनाया जाना नहीं रोका जा सकता?
बड़ी प्रतिमाओं के विसर्जन के बाद जलाशयों की क्या दुर्दशा होती है ये आप देखना चाहें तो मुंबई के समुद्र तटों को देखें। जरूर देखें और सोचें की हमारा कर्मकांड आखिर हमें क्या देकर जा रहा है। हमारी परम्पराएं कहतीं हैं तो प्रतिमाएं बनाई जाएं, लेकिन ऐसी बनाई जाएं जो जल में घुलनशील हों, जिनकी साज-सज्जा में कोई जहरीला रसायन इस्तेमाल न किया जाता हो और जिनके विसर्जन में पूरी सावधानी बरती जाती हो।
महाराष्ट्र में गणेश विसर्जन के दौरान दो दर्जन से अधिक लोग डूब गए। उत्तर प्रदेश में भी कोई एक दर्जन से अधिक लोगों की मौतें डूबने से हो गईं। क्या इन्हें रोका नहीं जा सकता था? क्या हम जीवन की कीमत पर अपने उत्सव मनाते रहेंगे? आने वाले दिन लगातार उत्सवों के हैं। पितृ पक्ष समाप्त होते ही नवदुर्गा उत्सव हमारे सामने होगा। उसमें हम गणेशोत्सव के दौरान हुए अनुभवों से लाभ लेकर प्रतिमाओं के निर्माण से लेकर उनके विसर्जन तक की एक आदर्श आचार संहिता बना सकते हैं।
हमारी उत्सवधर्मिता को हिन्दू-मुसलमान के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए। जो हादसे प्रतिमा विसर्जन में होते हैं वैसे ही हादसे मोहर्रम के दौरान ताजियों के विसर्जन में भी होते हैं। हर हादसा जीवन हानि के आंकड़े बढ़ाता है, लेकिन यहां हमारी संवेदना धर्म के ज्वार में गायब हो जाती है। हमारी धार्मिकता अब स्वच्छंदता का रूप ले रही है। हम इस दौरान हर क़ानून को अपने लिए अप्रयोज्य मानकर चलते हैं।
बहरहाल उत्सवधर्मिता हमेशा जिंदाबाद रहना चाहिए। हर समाज में रहना चाहिए। देश के हर भू-भाग में रहना चाहिए, क्योंकि इसी उत्सवधर्मिता के जरिये हम और हमारा समाज तमाम विसंगतियों के बावजूद ख़ुशी के कुछ क्षण हासिल कर पाता है। इसलिए मैं न मूर्ति निर्माण के खिलाफ हूं और न उनके विसर्जन के। मैं होली में गीले रंगों और दीपावली पर आतिशबाजी के खिलाफ भी नहीं हूं। सब होना चाहिए, लेकिन कायदे से, सीमाओं में।
हम धार्मिक उत्सवों के लिए बिजली चुराना बंद कर सकते हैं। हम कम नुकसानदेह आतिशबाजी का सामान बना सकते हैं। होली के कम जहरीले रंग बना सकते हैं। ये सब किसी सरकार की जिम्मेदारी हो सकती है, लेकिन उससे बड़ी जिम्मेदारी समाज की है। बाजार की है। बाजार हो या सरकार यह समझें कि जीवन सबसे ज्यादा कीमती है। जीवन होगा तभी उत्सव होंगे। आइये जीवन के इन रंगों को बचाने के लिए सचेत हों।
(नोटः आलेख वेबसाइट मध्यमत.कॉम से साभार)