भाजपा की नई ‘महाजम्बो’ कार्यसमिति यानी ‘एजडस्टमेंट’ की आजमाई हुई ‘वैक्सीन’


संगठन की कार्यसमिति न हुई, राजनीतिक रेवड़ी का भंडारा हो गया, जहां सब को कुछ न ‍कुछ टिकाना जरूरी है। कुल मिलाकर ‘एजडस्टमेंट’ की यह आजमाई हुई ‘वैक्सीन’ है, जिसे हर पार्टी को लगाना ही पड़ती है, चाहे वह सिद्धांतो की कितनी ही बात करे।


अजय बोकिल
अतिथि विचार Updated On :
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क्या सत्ता की मजबूरियां राजनीतिक संगठनों में ‘जम्बो कल्चर’ को बढ़ावा देती हैं? अगर मध्य प्रदेश में प्रदेश भाजपा की नई कार्यसमिति और प्रदेश कांग्रेस की तीन साल से चली आ रही प्रदेश कार्यसमिति को देखें तो इस सवाल का जवाब ‘हां’ में होगा। या यूं कहें कि राज्य के दो मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों में अब जम्बो कार्यसमिति को लेकर एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ लगी है।

कमलनाथ के नेतृत्व वाली प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी में तीन साल पहले जब 84 सदस्यों को शामिल किया गया था, तब भाजपाई उस पर हंसते थे। अब प्रदेश भाजपा की 403 सदस्यों वाली ‘महाजम्बो कार्यसमिति’ के कांग्रेसी मजे ले रहे हैं। कांग्रेस ने कटाक्ष कर भाजपा को ‘भारतीय जाति पार्टी’ तक बता दिया।

लगता है ऐसी जम्बो कार्यसमितियों के गठन के पीछे भाव यही रहता है कि संगठन की रेल में सवार होने से कहीं कोई छूट न जाए। किसी कार्यकर्ता को यह अहसास न हो कि सत्ता की मलाई उसे भले न मिल रही हो, लेकिन पार्टी के जनरल कोच में खुरचन तो उसके हिस्से में आई ही समझो। यानी संगठन की कार्यसमिति न हुई, राजनीतिक रेवड़ी का भंडारा हो गया, जहां सब को कुछ न ‍कुछ टिकाना जरूरी है। कुल मिलाकर ‘एजडस्टमेंट’ की यह आजमाई हुई ‘वैक्सीन’ है, जिसे हर पार्टी को लगाना ही पड़ती है, चाहे वह सिद्धांतो की कितनी ही बात करे।

भाजपा में पिछले साल शामिल हुए सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के भोपाल फेरे के ठीक पहले आधी रात को प्रदेश भाजपा कार्यसमिति की लिस्ट जिस तरह आनन-फानन में जारी हुई, फिर वापस ली गई और संशोधन के बाद पुन: जारी हुई, उससे संदेश यही गया कि प्रदेश कार्यसमिति की यह बहुप्रतीक्षित सूची भी हड़बड़ी में ही बनाई और सुधारी गई है।

यूं तो भाजपा सहित देश की हर राजनीतिक पार्टी जातीय गुणा भाग पर ही चलती है। लेकिन संगठन की घोषित सूचियों में सदस्यों की जाति के नाम का उल्लेख करने से अमूमन बचा जाता है, लेकिन प्रदेश भाजपा कार्यसमिति की पहली सूची सदस्यों के जातिगत उल्लेख के साथ लीक हो गई। गोया फलां जाति का होने से ही उसे संगठन में जगह मिली।

और तो और जातियां लिखने में भी गलतियां हुईं। बाद में उन्हें भी सुधारा गया। ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इसको लेकर कई चर्चाएं हैं। कहा जा रहा है कि सिंधिया के आने के पहले संगठन की सूची फाइनल करने का प्लान था ताकि बाद में ‘एडजस्टमेंट’ से पल्ला झाड़ा जा सके।

यह भी कहा जा रहा है कि सूची तो पिछले साल दिसंबर में ही घोषित होनी थी पर कोविड के चलते उसमें देरी हुई। क्योंकि आलाकमान से हरी झंडी नहीं मिली। अब कार्यसमिति गठन के लिए कोविड की तीसरी लहर का इंतजार तो नहीं ही किया जा सकता था। लिहाजा ताबड़तोड़ लिस्ट जारी कर दी गई।

गौरतलब है कि प्रदेश भाजपा की पुरानी प्रदेश कार्यसमिति वर्ष 2016 में तत्कालीन प्रदेश अध्ययक्ष स्व. नंदकुमार‍ सिंह चौहान के समय बनी थी। ऐसे में वर्तमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी.डी. शर्मा से कार्यकर्ताओं को अपेक्षा थी कि वो अपनी नई कार्यकारिणी जल्द घोषित करेंगे।

ध्यान रहे कि पुरानी कार्यसमिति भाजपा के प्रदेश में सत्ता पर काबिज रहते बनी थी। उस कार्यसमिति ने पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य में सत्ता भाजपा के हाथ से जाती देखी और पिछले दरवाजे से वापस हाथ आते भी देखी। और ऐसा करने में संगठन ने भी सक्रिय भूमिका निभाई।

इसकी तुलना अगर आज प्रतिपक्ष में बैठी कांग्रेस से करें तो वहां प्रदेश कार्यसमिति कमलनाथ की अध्यक्षता में 2018 में बनी थी, जो अब तक जारी है। उसमें 84 सदस्य हैं। इनमें 19 उपाध्यक्ष, 25 महामंत्री व 40 सचिव बनाए गए थे। इसमें पार्टी का गुटीय, जातीय व क्षेत्रीय संतुलन साधने की पूरी कोशिश की गई थी।

इस कार्यसमिति ने बरसों बाद राज्य की सत्ता कांग्रेस के हाथ आते देखी तो सवा साल बाद फटी आंखों से सत्ता हाथ से फिसलते हुए भी देखी। यानी जिन हाथों ने राजदंड ग्रहण किया था, उन्हीं हाथों ने सत्ता का तर्पण भी कर डाला। तब कांग्रेस की इस कार्यसमिति को ‘जम्बो’ कहकर भाजपाइयों ने मजाक उड़ाया था। उन्हें शायद पता नहीं था कि तीन साल बाद उनकी किस्मत में तो ‘महाजम्बो’ कार्यसमिति लिखी है।

कुल मिलाकर मध्यप्रदेश के राजनीतिक अखाड़े में असल मुकाबला इस बात को लेकर दिखता है कि किसकी कार्यसमिति ज्यादा बड़ी और भारी भरकम है। इस दौड़ में यकीनन भाजपा ने बाजी मार ली है। अंग्रेजी में ‘जम्बो’ शब्द का अर्थ ‘वृहदाकार’ या ‘दैत्याकार’ होता है। अब राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए ‘दैत्य’ शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है (तासीर की बात न करें) इसलिए ‘जम्बो’ शब्द ही ज्यादा शिष्ट लगता है।

सवाल पूछा जा सकता है कि राजनीतिक दलों की अपनी कार्यसमितियों को ‘जम्बो’ बनाने के पीछे कौन-सी विवशताएं और फैक्टर काम करते हैं? जैसे-जैसे पार्टी आकार और असर में बड़ी होती जाती है, वह ‘जम्बो कल्चर’ में क्यों ढलने लगती है? इन प्रश्नों के उत्तर कुछ यूं दिए जा सकते हैं। पहला तो यह कि कोई भी सियासी दल जैसे-जैसे आकार-प्रकार में बड़ा होता जाता है, उसके आंतरिक तनाव और दबाव भी उसी अनुपात में बढ़ते हैं। प्रबल सत्ताग्रह के चलते विचार, मू्ल्य, संस्कार, जैसे शब्द स्वत: ट्रेश में चले जाते हैं।

सत्ता में आना, हरसंभव बने रहना और सत्ता का चरणोदक किसी न किसी रूप में कार्यकर्ताओं तक पहुंचाना ही परम उद्देश्य बन जाता है। या यूं कहें कि डिनर पार्टी में न बुला पाए तो कम से कम भंडारे का जनरल न्‍योता तो मिल ही जाए। लिहाजा संगठन में भी ‘अपने भरोसे के’, पसंदीदा, मजबूरी में शामिल किए लोगों के साथ-साथ गुटीय, जातीय व क्षेत्रीय समीकरणों का ध्यान भी रखना पड़ता है।

इस कवायद का नतीजा कई बार यह होता है कि ‘कमांडो टीम’ कब ‘वानर सेना’ में तब्दील हो जाती है, पता नहीं चलता। वैसे इस ‘जम्बो फार्मूले’ का प्रदेश की आबादी से कोई लेना-देना नहीं होता। अगर होता तो देश में सबसे ज्यादा 22 करोड़ जनसंख्या उत्तर प्रदेश की है, लेकिन वहां प्रदेश भाजपा कार्यसमिति में 323 सदस्य ही हैं, जबकि 8 करोड़ आबादी वाले मप्र की भाजपा कार्यसमिति में 403 सदस्य हैं, जिनमें 162 सदस्य, 218 विशेष आंम‍‍त्रित सदस्य और 23 स्थायी सदस्य हैं।

यूपी में तो 8 माह बाद ही विधानसभा चुनाव है, लेकिन एमपी में चुनाव को अभी ढाई साल है। ऐसे में तर्क‍ दिया जा सकता है कि यह प्रदेश भाजपा की दूरदर्शिता है कि उसने अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी (संगठन की दृष्टि से) अभी से शुरू कर दी है।

यूं किसी भी राजनीतिक दल की कार्यसमिति घोषित होते ही पार्टी में असंतोष और नाराजी का गुबार उठता ही है। मसलन फलां को जगह नहीं मिली तो फलां को किस काबिलियत पर जगह मिली? चाहे वरिष्ठ हो या कनिष्ठ, भाषण झाड़ने वाला हो या दरी बिछाने वाला, हर कार्यकर्ता की उम्मीद रहती है कि कम से कम संगठन में तो कोई जगह उसे मिल जाए। ताकि वो अपनी गाड़ी पर कोई पदप्लेट तो लगा सके।

प्रदेश भाजपा की नई कार्यसमिति पर भी सवाल उठ रहे हैं, लेकिन अध्यक्ष को दूरंदेशी से काम लेना पड़ता है। सीमित विकल्पों में से ही चुनना पड़ता है। व्यक्तिगत राजी-नाराजी से संगठन का रथ आगे नहीं बढ़ता। किसी भी सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष के लिए यह और कठिन होता है।

उधर कांग्रेस तो सदा ‘सियासी जिम्नास्टिक्स’ में जीती आई है। वहां आंतरिक संतुलन की हर कोशिश नए असंतुलन को जन्म देती है। इसलिए ‘जम्बो कल्चर’ वहां स्थायी संस्कृति में तब्दील हो चुका है। भाजपा में अभी तक ऐसा नहीं था। लेकिन अब भाजपा ने भी संगठन में ‘महाजम्बो कल्चर’ की नींव रखकर कांग्रेस को एक नया ‘हाथ’ दिखाया है। आगे-आगे देखिए होता है क्या?

(यह आलेख वेबसाइट मध्यमत से साभार ली गई है)





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