देखो रे सियार देखो ठग बटमार देखो कुर्सी की मार देखो नेताजी का प्यार देखो देखो आज बस्ती में देखो आज गाँव में टोपीवाले बगुले आए हैं चुनाव में आए हैं चुनाव में तो सपने दिखाएंगे सपने दिखा के फिर दिल्ली उड़ जाएंगे दिल्ली उड़ जाएंगे तो फिर नहीं आएंगे नोटों में तैरेंगे वोटों की नाव में हर कुर्सी, रुपये की भैंस निराली करती है नोटों की खूब जुगाली नेता के चेहरे पे रहती है लाली नेता का जहाज उड़े फिर तो हवाओं में संसद है गोल भैया नेता भी गोल है ये पैसे वालों का ही एक ठोल है इसका भी सरकारी नाटक में रोल है कव्वे बने हैं कैसे कोयल सभाओं में ए भैया अब तुम भी सोचो-विचारो पानी बिना इनको तड़पा के मारो पांच साल का रे भूत उतारो कुछ नहीं रक्खा है अब कांव कांव में।
कवि यहां जो कहना चाहता है, हम सुधि पाठक जानते हैं। कवि, लेखक और इस तरह के तमाम लोग जिन्हें अब टुकड़े-टुकड़े गैंग या अफज़ल प्रेमी गैंग या खान मार्केट गैंग या सिक्युलर या वामिये जैसे नये-नये अलंकारों से नवाज़ा जा चुका है, तो उसके पीछे इनकी इसी तरह की खुराफातें हैं। बताइए, नेताओं को बगुला, कौव्वा और क्या-क्या तो कह रहे हैं, हालांकि हमारे नेता इतने मजबूत इरादों और फौलादी जिस्मों के बने हैं जिन्हें ऐसा-वैसा सुनने से सेहत पर लोड लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आत्मा और आत्म से हीन हमारे नेता अभी बिहार और मध्य प्रदेश में उस रूप में देखे जा सकते हैं, जैसा बृजमोहन जी हमें बता रहे हैं। अन्य राज्यों के जो नेता दिल्ली में आराम फ़रमा रहे हैं, वो भी उसी रूप में देखे जा सकते हैं जिनका ज़िक्र इस गीत में आया है।
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बिहार पर बहुत बात हो रही है। लगभग एक तरह की ही बात हो रही है। बदलते मौसम की बात करना वैसे भी सबसे बड़ा शगल है हमारे समाज का। चुनाव के संदर्भ में यह शगल सत्ताधारी दल के बदलाव को लेकर है। इस बीच मध्य प्रदेश का उपचुनाव मेले के किसी कोने में लगी उस दुकान की तरह है जहां आम तौर पर सट्टेबाज बैठते हैं जिन पर ध्यान सबका रहता है पर वहां कोई जाता नहीं।
बिहार के चुनाव सत्ता परिवर्तन के चुनाव हैं। पंद्रह साल से येन केन प्रकारेण जमी हुई एक सत्ता को बदलने या दोबारा चुने जाने का चुनाव है जिसमें सत्ता बदलती हुई नज़र आ रही है। यह बदलाव स्वाभाविक और अपेक्षित है। यह बिहार के लिए नयी बात नहीं है। 2015 में भी यहां बदलाव हुआ था। यह बदलाव तब नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ हुआ था। नीतीश एक कॉमन फैक्टर की तरह यहां-वहां होते रहे और जनता के लिए बदलाव को फिर से भाजपा के पक्ष में अपने विधायकों समेत ले गए। उनके इस कदम का तब भी कोई तर्क नहीं था। अब भी उसके लिए कोई सफाई नहीं है।
इसलिए अब जो बदलाव होगा वह इस लिहाज से टिकाऊ होगा कि उसमें ये जो कॉमन फैक्टर है, वो अब एक ही अस्तबल में बंधा हुआ है जबकि जनता इस अस्तबल के खिलाफ जाती हुई लग रही है। बाकी, हमें राम माधव के उस बयान को हमेशा गंभीरता से याद रखना चाहिए कि ‘’भाजपा अब वहां पहुँच गयी है जहां बिना चुनाव लड़े ही सरकार बना सकती है।‘’ यहां तो फिर भी लड़ रही है।
मध्य प्रदेश और बिहार के चुनाव में एक बात कॉमन है। वो ये कि दोनों ही जगहों पर जनादेश का खुल्लमखुला सौदा हुआ है। बिहार में इसका पैमाना अलग था, जहां मुख्यमंत्री ही अपने दल के तमाम विधायकों को लेकर दूसरे दल में चला गया। मध्य प्रदेश में सत्ता से बंधे हुए करीब 22 घोड़े बाहर निकले। इससे दोनों ही जगहों की सरकारें बदल गयीं। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री भी बदल गया, लेकिन पिक्चर अभी बाकी रह गयी। बिहार में जनादेश के खिलाफ जाकर भी बदली हुई सरकार निर्बाध रूप से चलती रही। मध्य प्रदेश में इसे चलने के लिए फिर से उतने घोड़े जुटाने की ज़रूरत पड़ गयी जो अस्तबल बदल चुके हैं। इसीलिए मध्य प्रदेश के उप-चुनाव लगभग मुख्य चुनाव जैसे ही हैं। इसीलिए दोनों दल इन्हें लेकर उतने ही गंभीर हैं जितने 2018 में हुए चुनाव को लेकर थे।
उपचुनाव आमतौर पर मुद्दाविहीन होते हैं। इनकी नौबत भी तभी आती है जब कोई मौजूदा विधायक मर जाए। ऐसे चुनाव से सत्तासीन सरकार पर कोई आंच नहीं आती। अबकी बार हालांकि मध्य प्रदेश में हिन्दू कैलेंडर के माफिक एक महीना ऊगड़ हो गया है। मतलब पांच साल की अवधि में ही दो बार विधानसभा चुनाव जैसा मामला हो गया है। किसी की भी जीत या हार यहां सरकार बदलने की नौबत ला सकती है।
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समीकरण बहुत स्पष्ट है। कुल 28 विधानसभा सीटों पर चुनाव हो रहे हैं। भाजपा को सरकार बचाये रखने के लिए 5-6 घोड़े दरकार हैं। कांग्रेस को पूरे घोड़े वापस चाहिए। इस लिहाज से कांग्रेस के लिए यह चुनाव बहुत मुश्किल होने चाहिए थे, लेकिन उलटबांसी देखिए कि भाजपा इस समर में हलक़ान हुई पड़ी है। जिसे साम दाम दंड भेद कहते हैं, वह उससे भी आगे जाकर इन 5-6 घोड़ों के शिकार में लगी हुई है।
कांग्रेस का सपना बहुत बड़ा है और उसे भरोसा है कि जनता ‘बिकाऊ’ और ‘टिकाऊ’ के बीच भेद करना जानती है। जनता की सहानुभूति कांग्रेस के साथ है। जनता को डेढ़ साल पहले लिए अपने ही फैसले पर फिर मुहर लगानी है या अपने किए से मुकर जाना है। बाज़ी हमेशा की तरह जनता के हाथ में है और बाज़ीगर भी हमेशा की तरह सत्ता की दौड़-भाग में लगे हुए हैं।
MP: A poster that reads 'Bikau nahi, tikau chahiye' & 'Maaf karein gaddar' seen outside Congress office in Bhopal. Party leader PC Sharma says, "There's sentiment against the 25 people who sold people's mandate for money. They had won on Congress ticket but sold vote of public." pic.twitter.com/G5iXpCI8VL
— ANI (@ANI) September 8, 2020
टिकाऊ और बिकाऊ इस उपचुनाव के बीज शब्द हैं। जनता सब होते हुए देख रही है और कहीं-कहीं अपने तेवरों के साथ यह बता भी रही है शिवराज सिंह चौहान या ज्योतिरादित्य सिंधिया के छल उसे पसंद नहीं आये। जनता भी अपनी जगह सही है। है न? आखिर जब 2018 में जनता ने शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद से उतार दिया तो ज़रूर कुछ नाराजगियां रही होंगी और कमलनाथ को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था तो ज़रूर उनमें कुछ खूबियां देखी होंगी। कमलनाथ ने अभी ठीक से काम करना शुरू ही किया था, प्रशासन को अपने अनुकूल बनाने की कोशिशें शुरू हुई ही थीं कि शिवराज सिंह की बेचैनी इतनी बढ़ गयी कि तमाम तिकड़म भिड़ा कर ठीक उस समय उन्होंने मध्य प्रदेश से कमलनाथ को सत्ताच्युत करके अनाथ जैसा बना दिया जब कोरोना जैसी वैश्विक आपदा देश में दस्तक दे चुकी थी। इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया।
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इस बार का मामला प्रदेश की जनता भली-भांति समझ रही है। वो मान रही है कि अगर मध्य प्रदेश में सत्ता की हवस इस कदर न होती, तो प्रदेश इस कदर अव्यवस्थाएं न झेलता और जो लांछन पूरे देश की तरफ से आया है कि मध्य प्रदेश की वजह से केंद्र की भाजपा सरकार ने कोरोना को गंभीरता से नहीं लिया, वह भी न झेलना पड़ता। मध्य प्रदेश अगर देश का दिल है तो वह इस बार वह देश के लिए धड़का है। देश की डूबती अर्थव्यवस्था, कोरोना के बढ़ते मामलों और निराशा के इस वातावरण के लिए वह इस छल का भागीदार नहीं होना चाहता, बल्कि इससे किनारा कर रहा है। इसका मुजाहिरा हमें भाजपा नेताओं और कांग्रेस से भाजपा में गए ‘बिकाऊ’ नेताओं के साथ जनता के तेवर में भी हो रहा है।
सबसे दिलचस्प खेल है ज्योतिरादित्य सिंधिया का और यहां भी जैसे बिहार व मध्य प्रदेश में एक समानता है। जब भाजपा अपने शत्रुओं से निपट लेती है, तो उसकी हिंसक आदतें अपने सहयोगियों को खाने लगती हैं। बिहार में अगर नीतीश को निपटाने की तैयारी है, तो मध्य प्रदेश में गले की फांस बन चुके सिंधिया को। आलम ये है कि सिंधिया के प्रभाव-क्षेत्र में बतायी जा रही सीटों पर अब चुनाव नजदीक आते-आते भाजपा के ओरिजिनल नेताओं ने जाना छोड़ दिया है और सारा ज़ोर ग्वालियर-चंबल को छोड़कर बुंदेलखंड और अन्य अंचलों की छिटपुट सीटों पर लगाया जा रहा है। वैसे भी सरकार बनाने के लिए सारी सीटें तो दरकार हैं, वरना बेहतर है कि 4-5 चुनिंदा सीटों पर ज़ोर आजमाइश हो। सरकार बनने के बाद सिंधिया एंड कंपनी को उनकी जगह बतला दी जाये। यह करना अनुचित कदापि नहीं है। विश्वासघात की सज़ा मिलना ही चाहिए। यह सज़ा जनता दे या कोई और। सज़ा मुकम्मल होना चाहिए।
After joining BJP, Jyotiraditya Scindia visits RSS office in Nagpur for first time https://t.co/ngEFHYy2Ns pic.twitter.com/9liao2GYVD
— Newsd (@GetNewsd) August 25, 2020
संकट यह भी है कि 2018 में जो भाजपा नेता कांग्रेस के नेता से हारा था और हार के आंसू अभी सूखे भी न थे, उसे पार्टी ने कह दिया है कि जाओ और उसका प्रचार करो जिसने तुम्हें हराया था। बताइए, कैसा लगेगा! नेता आत्महीन हो सकते हैं, लेकिन इतने भी नहीं।
मंच पर बैठे ऐसे कितने ही हारे हुए नेताओं को देखकर बुरा लगता है। फिर जब वो खुद को हरा चुके नेता के पक्ष में मतदान करने की अपील कर खड़े होते हैं और माइक पर बोलते हैं, तो मुझे तो अचानक ये गाना सुनाई देता है- आंख है भरी भरी और तुम, मुस्कुराने की बात करते हो…।‘’
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बहरहाल, यह भाजपा में विरले ही पाया जाने वाला संकट पैदा हुआ है जो कांग्रेस में इफ़रात में मिलता है और जिसे राजनैतिक शब्दावली में गुटबाजी कहा जाता है। भाजपा जैसा एक कमांड संगठन गुटबाजी जैसी आंतरिक बुराई के साथ जिंदा नहीं रह सकता। और इसलिए नागपुर से मिले संदेश के अनुसार सिंधिया को दरकिनार किया जाना शुरू हो चुका है। नतीजे 10 नवंबर को आएंगे और बताएंगे कि कौन ठग बटमार बाज़ी जीतता है।