‘हमारी प्रगति की परीक्षा यह नहीं है कि हम समृद्धि में और वृद्धि करते हैं, बल्कि यह है कि हम उन लोगों के लिए पर्याप्त प्रदान करते हैं, जिनके पास बहुत कम है।’ – फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति।
वित्त वर्ष 2024 की विश्व अर्थव्यवस्था की रैंकिंग में भारत 5 वें स्थान पर पहुंच गया है। देश की अर्थव्यवस्था 3.7 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच गई है जो एक दशक पहले 1.9 ट्रिलियन डॉलर थी। यह 10 वीं बङी अर्थव्यवस्था की स्थिति से एक उल्लेखनीय प्रगति को दर्शाता है, परन्तु सवाल उठता है कि इस प्रगति का लाभ हर किसी तक पहुँच पा रहा है या नहीं। खासकर उन लोगों तक जो हाशिये पर हैं, जबकि देश की 80 करोड़ आबादी केन्द्र सरकार के पांच किलो आनाज पर निर्भर है।
वर्ष 2024 के ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ (वैश्विक भूख सूचकांक) में कुल 127 देशों में भारत 105 वें स्थान पर है जो इसे भुखमरी की गंभीर श्रेणी में रखता है। पङौसी देश श्रीलंका (56), नेपाल (68) और बांग्लादेश (84) की स्थिति भारत से बेहतर है। भारत की कुपोषित आबादी 13.7 प्रतिशत है, अर्थात अनुमानित 20 करोड़ आबादी कुपोषित है। भारत में 5 साल से कम आयु के 35.5 प्रतिशत बच्चों का कद कम है,18.7 प्रतिशत बच्चों का वजन कम है और 2.9 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के कारण 5 वर्ष से कम आयु में मर जाते हैं। विश्व के सभी 127 देशों में से सिर्फ़ भारत ने ही इन आंकड़ों को नकारा है। ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भूख को व्यापक रूप से मापने और ‘ट्रैक’ करने का एक औजार है। यह सूचकांक आयरिश मानवीय संगठन ‘कंसर्न वर्ल्डवाइड’ और जर्मन सहायता एजेंसी ‘वेल्थुंगरहिल्फ’ द्वारा प्रकाशित किया जाता है।
दूसरी तरफ विगत 5 सालों में भारत के अरबपतियों की कुल संपत्ति दोगुनी हो गई है। वर्ष 2024 में भारत के टॉप 100 अमीरों की कुल संपत्ति एक ट्रिलियन डॉलर के पार, अर्थात 92 लाख करोड़ रुपए हो गई है। वर्ष 2023 के मुकाबले इनकी कुल संपत्ति में 26.50 लाख करोड़ रुपये की बढोत्तरी हुई है और 2020 की तुलना में इनकी अमीरी दो-गुनी से ज्यादा हो गई है। इस साल 100 सबसे अमीर भारतीयों की संपत्ति बढ़ने में उनके बिजनेस से मुनाफे में बढोत्तरी से ज्यादा शेयरों में तेजी का योगदान रहा है। भारत विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों में से एक है, जहां शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल राष्ट्रीय सम्पत्ति का 77 प्रतिशत है। देश के सबसे समृद्ध 1 प्रतिशत के पास 53 प्रतिशत संपत्ति मौजूद है, जबकि जनसंख्या के आधे गरीब हिस्से के पास राष्ट्रीय संपत्ति का मात्र 4.1 प्रतिशत के बराबर है।
देश के कुल ‘वस्तु एवं सेवा कर’ (जीएसटी) का लगभग 64 प्रतिशत निचली 50 प्रतिशत आबादी से प्राप्त होता है, जबकि इसमें शीर्ष 10 प्रतिशत का योगदान मात्र 4 प्रतिशत है। गरीबों पर लादे गए टैक्स बोझ से यह अर्थव्यवस्था गुलज़ार है। रोजगार विहीन विकास की सच्चाई तो ‘इंडिया एम्पलायमेंट रिपोर्ट 2024’ ने खोलकर रख दिया है। ‘इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन’ (आईएलओ) ने ‘इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट’ के साथ मिलकर यह रिपोर्ट तैयार की है। इसके हिसाब से अगर भारत में 100 लोग बेरोजगार हैं तो उसमें से 83 लोग युवा हैं जिनमें ज्यादातर शिक्षित हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 में पढे-लिखे युवा बेरोजगारों की संख्या कुल युवा बेरोजगारों में 35.2 प्रतिशत थी जो 2022 में बढकर 65.7 प्रतिशत हो गई है। इनमें महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। ऐसी महिलाओं की संख्या 48.4 फीसदी थी, जबकि पुरूषों की मात्र 9.8 फीसदी यानि बेरोजगारों में महिलाएं 95 फीसदी थीं। रिपोर्ट के अनुसार साल 2000 के बाद से औपचारिक रोजगार का अनुपात लगातार बढ़ रहा था, लेकिन 2018 के बाद इसमें भारी गिरावट आई है। ठेके पर आधारित नौकरियां में इजाफा हुआ है, जबकि बहुत कम लोग नियमित और लंबी अवधि के अनुबंध वाली नौकरियों में हैं।
‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) से पता चलता है कि वर्ष 2022 में कृषि क्षेत्र से जुड़े 5207 किसान और 6083 खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की है। यह दर्शाता है कि इस विकास में आम भारतीयों की भागीदारी बहुत ही नाममात्र की है। दूसरा भुखमरी पर बढती आबादी का तर्क थोप दिया जाता है, कहा जाता है कि एक सौ चालीस करोड़ लोगों का पेट भरना आसान काम नहीं है।
जाहिर है, इसी मशक्कत में कई लोगों को भुखमरी बर्दाश्त करना पङ रहा है, जबकि अनाज भंडारण की कमी के कारण देश में साल-दर-साल सङते और बर्बाद होते अनाज को लेकर समाधान निकालने की दिशा में प्रयास होना चाहिए। अनेक अध्ययनों और शोध से पता चलता है कि घटता उत्पादन, भुखमरी और आबादी का कोई सबंध नहीं है। इसकी वजह तत्कालीन आर्थिक, राजनैतिक नेतृत्व है।
सेंटर फॉर इकोनामिक पॉलिसी रिसर्च के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था वर्ष 2030 तक 7.3 ट्रिलियन डॉलर और वर्ष 2035 तक 10 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने की ओर अग्रसर है। भारत सरकार ने भी वर्ष 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र में बदलने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है, जबकि भारत में हम मुक्त बाजार बनाते-बनाते कुछ और ही कर बैठे?
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मुक्त अर्थ व्यवस्था में प्रतिस्पर्धी बाजार को ताकतवर बनाना था मगर यहां तो मुक्त बाजार की ताकत ही कुछ चुनिंदा हाथों में रह गई है। यहाँ एक तरफ बेरोजगारी, असमानता, महंगाई है दूसरी तरफ मोनोपोली वाले शेयरों की कमाई है।
ब्रिटिश अर्थशास्त्री जोआन रोबिंसन ने इसे ही ‘इम्परफेक्ट मार्केट’ कहा है। यह बेईमान बाजार है, जो एक तरफ से उपभोक्ताओं की जेब काटता है और दूसरी तरफ कामगारों को उनकी काबिलियत और मेहनत से कम पैसा देता है। अलबत्ता शेयर निवेशकों के लिए यह परफेक्ट है। इसलिए वृहद समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप और व्यापक सरकारी कार्यवाहियों की आवश्यकता होगी। अगर समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो इस विकास का मानवीय चेहरा धुंधला पड जाएगा।