सरयूसुत मिश्रा।
राजनीति के सिकंदर कमलनाथ द्वारा छिंदवाड़ा के साथ सरकार पर भेदभाव के लगाए गए आरोपों से राजनीति में भेदभाव पर स्वाभाविक रूप से ध्यान चला गया। कमलनाथ का कहना है कि छिंदवाड़ा जिले में सभी आठों विधायक कांग्रेस के हैं। नगर निगम भी कांग्रेस ने जीती हैं। इसलिए बीजेपी की सरकार छिंदवाड़ा के साथ भेदभाव कर रही है। छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश का ही हिस्सा है।
कांग्रेस के साथ ही बीजेपी के लिए भी यह जिला उतना ही महत्वपूर्ण है जितना राज्य के दूसरे जिले हैं। इसलिए छिंदवाड़ा के विकास पर किए जा रहे प्रयासों की जानकारी निश्चित ही सरकार की ओर से दी जाएगी। यह बात जरूर है कि कमलनाथ और छिंदवाड़ा एक दूसरे के प्रतीक के रूप में देखे जाते हैं। कमलनाथ जब मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने छिंदवाड़ा के विकास को एक मॉडल के रूप में मध्यप्रदेश में पेश करने की कोशिश की थी।
राजनीति में भेदभाव के आरोप आम बात है। जो भी अपने को राजनीतिक रूप से कमजोर पाता है। वह भेदभाव का आरोप लगाकर जनता के बीच में अपनी कमजोरियों को छिपाने और सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास करता दिखाई पड़ता है। राजनीति में भेदभाव की बात इतने महत्वपूर्ण नेता द्वारा उठाई गई है तो इसका विश्लेषण अवश्य किया जाना चाहिए कि राजनीतिक भेदभाव का सच क्या है?
वैसे तो जहां भी चुनाव का भाव होगा वहां भेदभाव अवश्य होगा। जब भी चयन किया जाता है, चुनाव किया जाता है, तब उपलब्ध लोगों और परिस्थितियों में तुलना कर किसी एक को चुना जाता है। अनेक में जब एक को चुना जाता है तो चुनने वाले ने एक के पक्ष में अपना भाव व्यक्त किया और दूसरे के विपक्ष में।।! भेदभाव व्यक्तिगत, संस्थागत, सामूहिक, संरचनात्मक, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष, नकारात्मक और सकारात्मक हो सकता है। राजनीतिक विचारधारा के आधार पर भेदभाव के आरोप आम बात है।
पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा अपने गृह जिले को लेकर सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाना बहुत गंभीर बात है। प्रदेश में 15 महीने तक कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने काम संभाला था। इस सरकार का निर्धारित कार्यकाल पूरा करने के पहले पतन का कारण भी भेदभाव ही माना जाता है।
2018 के चुनाव में कमल को दरकिनार कर मध्य प्रदेश के नाथ बने कमलनाथ ने मंत्रिमंडल के गठन के समय पहली बार सभी मंत्रियों को कैबिनेट मंत्री बनाने का दुस्साहस किया था। कैबिनेट के गठन में वरिष्ठ विधायकों को दरकिनार कर लगाये गए राजनीतिक भेदभाव के आरोपों के कारण ही उनकी सरकार की आधारशिला कमजोर हो गई थी। जो इतने कम समय में चरमरा कर गिर गई। ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के साथ भेदभाव नहीं किया गया होता तो मध्य प्रदेश में सरकार का नजारा कुछ और हो सकता था। उस दौर में भेदभाव के कारण प्रताड़ित मीडिया आज भी उस दर्द को महसूस कर रहा हैं।
15 महीनों में प्रशासन में भी भेदभाव का नजारा स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे दागी अधिकारी को केस वापस लेकर प्रशासन का मुखिया बनाने के निर्णय को भेदभाव नहीं तो क्या समभाव कहा जाएगा। जो केस वापस लिया गया था बाद में सुप्रीम कोर्ट में केस वापसी के निर्णय को निरस्त कर दिया गया। संबंधित अधिकारी के खिलाफ फिर से जांच प्रक्रिया सरकार द्वारा प्रारंभ की गई।
प्रशासन की सबसे बड़ी कुर्सी के लिए हकदार और काबिल अधिकारियों को लूप लाइन में रखना क्या भेदभाव की मानसिकता नहीं कहीं जाएगी। इसे मध्यप्रदेश के नाथ का समभाव तो नहीं माना जा सकता। ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जहां अधिकारियों को पद सहित ट्रांसफर किया गया। ऐसे भी उदाहरण है जहां अधिकारी को भेज दिया गया लेकिन पद नहीं भेजा जा सका। जहां भेदभाव कि पराकाष्ठा की गई हो वहां से ही भेदभाव का आरोप सामने आए तो हास्यास्पद ही लगता है।
कांग्रेस में आज संगठन की स्थिति लचर है तो क्या काबिज नेताओं द्वारा कार्यकर्ताओं के साथ समान व्यवहार की कमी नहीं कहा जाएगा। छिंदवाड़ा में कांग्रेस को इतना बड़ा जन समर्थन मिला था तो कोई दूसरा व्यक्ति भी सरकार में प्रतिनिधित्व के लिए क्यों नहीं मिल सका? छिंदवाड़ा से सांसद के निर्वाचन में कोई दूसरा कार्यकर्ता उपयुक्त नहीं पाया गया तो क्या यह कार्यकर्ताओं के साथ समभाव कहां जाएगा।
राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कुछ उद्योगपतियों के हित में फैसले लेने के लिए आरोपित करने से चूकते नहीं है। जब कोई उद्योगपति ही राजनीति में हो तो उसके फैसलों को उद्योगपतियों को मदद करने के नजरिए से क्या नहीं देखा जाना चाहिए। लोकतंत्र में लगातार महंगे हो रहे चुनाव में पैसे वाले राजनेता सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं।
मध्य प्रदेश में ही देखा जाए तो कितने राजनेता हैं जिनके पास हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज है। जो नेता जमीन पर चलने के लिए समय नहीं दे सकता उससे समभाव और समानता की कल्पना करना और उसकी ओर से भेदभाव के आरोप लगाना कहां तक स्वीकार किया जा सकता है। छिंदवाडा में राजनीति के सिकंदर और उनके विरुद्ध चुनाव लड़ें प्रत्याशियों के बीच माली हालत के नजरिये से कोई मुकाबला हो ही नहीं सकता। छिंदवाडा के कई कांग्रेस नेता भेदभाव की राजनीति के कारण ही पार्टी छोड़कर क्या दुसरे दलों में नहीं चले गए हैं।
राजनीति समाज को नई दिशा देने से भटकती हुई दिखाई पड़ रही है। समाज में विभाजन राजनीतिक उद्देश्यों के लिए पैदा करना राजनीतिक लाभ का धंधा बन गया है। राजनीतिक पार्टियों के लिए नैतिक अनैतिक किसी भी ढंग से जनादेश हासिल करना सबसे बड़ा राजनीतिक धर्म बन गया है। राजनीतिक विचारधारा में विश्वास को बढ़ाने के लिए विभाजनकारी काम किए जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा मुफ्तखोरी की योजनाओं के जरिए लोगों को लाभ पहुंचाकर कर्महीन समाज का निर्माण राजनीतिक चालबाज़ी बन गई है। राजनीति में न कोई विचारधारा बची है ना कोई सिद्धांत, राजनीतिक सुख सुविधाएं और जनधन पर राजनीतिक जमीन खड़ी करना बेसिक सोच बन गया है।
जाति और धर्म के आधार पर श्रद्धा और विश्वास का राजनीतिक फायदा कौन उठाने की कोशिश नहीं कर रहा है। राजनीतिक हालात ऐसे बने हुए हैं कि संविधान और विचारधारा को भी राजनीतिक लक्ष्यों से परिभाषित और क्रियान्वित करने की कोशिश की जाती है। राष्ट्रभक्ति पर भी राजनीति की अनीति करने से गुरेज नहीं किया जाता। भेदभाव आज राजनीति की जरूरत और सफलता का पैमाना बन गया है। वक्त के साथ राजनीति में बदलाव दिख रहा है। भविष्य में नए और युवा चेहरों के नेतृत्व पर भारत का राजनीतिक भविष्य नया आकार लेगा ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।
(आलेख लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)