दोमुंहे समाज के बीच दैनिक भास्कर समूह की अग्नि परीक्षा


आयकर की कार्रवाई के दौरान एक प्रबुद्ध पाठक ने कहा कि देश में एक अच्छे और सच्चे अखबार की बेहद जरूरत है। एक ऐसा अखबार जिसकी आत्मा में भारत धड़के। जो न इस पंथ का हो, न उस धारा का। वह देश का अखबार हो।


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हम एक ऐसे समय में हैं, जब हमारे आसपास बहुत कुछ अकल्पनीय घट रहा है। पांच-दस साल पहले जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था, ऐसा बहुत कुछ तेजी से हो रहा है। किसने सोचा था कि हम अपने जीवनकाल में कश्मीर में 370 की हरी-हरी गाजरघास की सफाई देख लेंगे? सुप्रीम कोर्ट के बहाने ही सही, किसे पता था कि पांच सौ साल से उजाड़ अयोध्या में रौनक लौटेगी? दस साल पहले कौन जानता था कि सेक्युलर सियासत का सफाया होने को ही है?

क्या अजूबा है कि तराजू और तलवार के पहले तिलक को चार जूते मारने का जयघोष करने वाली बसपा ब्राह्मणों की चरणागत होकर अयोध्या में मंदिर की तगारी सिर पर उठाने को तैयार है?

सिस्टम को ठेंगे पर रखने के आदी मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और आजम खान अपने जीते-जी अपनी लंका के विनाश देख लेंगे, किसे इल्हाम था? किसे अंदाजा था कि सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता के हीरो रवीश कुमार मेगसेसे पाकर भी बकैतकुमार के नाम से प्रसिद्धि पाएंगे? किसने सोचा था कि अमेठी वाले राहुल गांधी को वायनाड की तरफ खदेड़ देंगे? देखते ही देखते कितनों की कलई खुली है, किस-किस की चमक उतरी है, कितने शिखर धराशायी हैं, कितनी अग्निपरीक्षाएं हैं।

भूमिका ज्यादा लंबी न खींचते हुए मैं मुद्दे की बात पर आता हूं। मैं ‘दैनिक भास्कर’ पर आयकर की कार्रवाई पर दो शब्द कहने के लिए इधर-उधर की यह भूमिका बांध रहा था। यह किसी भ्रष्ट अफसर या हेराफेरी करने वाले कारोबारी पर सरकारी अमले की रोजमर्रा जैसी कार्रवाई की मामूली घटना नहीं है, यह भास्कर पर हाथ डालने की जुर्रत है। कोई सरकारी विभाग ऐसा कर सकता है, हफ्ते भर पहले तक किसने सोचा था?

मैंने अपने जीवन के 25 साल मीडिया में बिताए हैं। आधा समय ‘दैनिक भास्कर’ में गुजरा है। अपने जीवन के वो सर्वश्रेष्ठ पांच साल जब मुझे रिपोर्टिंग के लिए लगातार भारत भर में घूमने का मौका मिला। यह संयोग ही था कि मेरी खबरों के लिए संडे जैकेट का रिजर्व स्पेस मिला, जो बारह राज्यों के पचास से ज्यादा संस्करणों का सुपर मुखपृष्ठ था। हिंदी, मराठी और गुजराती में एक साथ। मैं नेशनल न्यूजरूम में था। इतने संस्करणों की श्रृंखला का मतलब है कि हिंदी में इतने संपादकों की श्रृंखला वाला एक शक्तिशाली अखबार।

एक ऐसा अखबार जिसने इतने संपादक बनाए। कई राज्यों में फैले नेटवर्क के लिए सिर्फ संस्करणों के संपादक ही काफी नहीं थे। विजिटिंग कार्ड पर एक से एक पदनामों के साथ पत्रकारों की सुसज्जित सेना भास्कर के पास रही। एक्जीक्युटिव एडिटर, रेजिडेंट एडिटर, स्टेट एडिटर, नेशनल एडिटर, ग्रुप एडिटर। मुमकिन है कि यह सिलसिला साउथ एशिया एडिटर और ग्लोबल एडिटर तक भी जाए। दुनिया बदलने के लिए भास्कर जैसी जिद चाहिए, जो असंभव के विरुद्ध हर हफ्ते शंखनाद करे।

आयकर की कार्रवाई के बाद भास्कर से निकले संपादक-पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर मन की बातें खुलकर की हैं। मुझे ताज्जुब है कि सबने अपने पूर्व संस्थान के बारे में हिसाब बराबर करने के अंदाज में लिखा है। न्यूज चैनलों की चकाचौंध टीवी पर उतरने के पहले मैं हिंदी पत्रकारिता की विद्यापीठ माने जाने वाले इंदौर के ‘नईदुनिया’ में भी नौ साल तक रहा हूं। मगर उस नईदुनिया में जहां राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी और शरद जोशी के समय की सुगंध हवाओं में बची थी। वह एक शहर से छपने वाला अखबार पत्रकारों की नर्सरी था, जहां तरह-तरह के नामधारी एडिटर पॉली हाऊस की काली पन्नियों में कलमों की तरह नहीं सजे थे। लेकिन वहां से निकले पत्रकारों ने हिंदी पत्रकारिता में अपनी छाप छोड़ी थी।

बदकिस्मती से वह अखबार बाजार में टिक नहीं सका। एक दिन बिक गया। वहां से निकले अनगिनत लोग देश भर के अखबारों और टीवी चैनलों में हैं। दैनिक भास्कर में भी कई आए। लेकिन अभय छजलानी के फैसलों से लाख असहमतियों, अल्प वेतन और न्यूनतम अवसरों के बावजूद मजाल है कि नईदुनिया के बारे में कोई एक बुरी बात लिख दे। जबकि मुंह मांगे दामों की तरह भास्कर ने कई गुना ज्यादा सुविधाएं और तनख्वाहें अपने संपादकों को दीं। उन्हें दुनिया घुमाई। उन्हें पांच सितारा हैसियत में पहुंचाया।

लेकिन बरसों तक अपनी सेवाओं के बावजूद जैसे वे आयकरवालों के हाथ की इस घड़ी में सुबह के साढ़े पांच बजने का इंतजार ही कर रहे थे। मैं चकित हूं कि ऐसा क्यों है?
स्वर्गीय रमेश अग्रवाल अक्सर भोपाल गैस हादसे के कठिन समय की याद दिलाया करते थे, जब कांग्रेस की ताकतवर सरकार के मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह चाहते थे कि भास्कर सरकार के सुर में सुर मिलाए। संपादक महेश श्रीवास्तव के साथ रमेशजी को तब अर्जुनसिंह ने बुलाकर ऐसा प्रस्ताव रखा था। भोपाल लाशों का ढेर बना था। दफ्तर लौटकर रमेशजी ने यह हिसाब लगाया था कि बिना सरकारी मदद के हम कितने दिन अखबार निकाल सकते हैं। उनका फैसला था कि हम जनता का पक्ष लेंगे। जनता की आवाज बनेंगे।
भास्कर ने ऐसा ही किया। उस कवरेज ने भास्कर को रातों-रात पाठकों का भरोसेमंद बना दिया और तब यह अखबार ग्वालियर और भोपाल की अपनी दूसरी और तीसरे नंबर की भूमिका से आगे निकलकर इंदौर तक जा पहुंचा। नब्बे के दशक में इंदौर में नंबर वन होते ही राज्यों की सीमाएं लांघने का समय आया। वह भास्कर की अश्वमेध यात्रा थी, जो जयपुर से होती हुई तेरह राज्यों तक गई।

मैं कई ऐसी खबरों का साक्षी और सहभागी रहा हूं, जो किसी अखबार में कभी छप नहीं सकती थीं और सरकार के साथ ही सरकार के कई अफसरों के हितों से जुड़ी थीं लेकिन भास्कर ने स्टैंड लिया कि हम छापेंगे। बेशक ऐसी किसी भी खबर को 360 डिग्री पर मापने के बाद ही अंतिम निर्णय एमडी सुधीर अग्रवाल के स्तर पर हुए। सबसे अच्छे रिश्तों वाले एक अखबार मालिक के लिए यह बिल्कुल आसान नहीं होगा। उन्होंने खबरों को धार से ज्यादा चमक भी दी।

रमेशजी अपने समय का एक और जोरदार किस्सा सुनाया करते थे। यह अस्सी के दशक की शुरुआत होगी जब दस-पांच हजार के विज्ञापन के लिए वे खुद धीरूभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया के दफ्तरों के चक्कर लगाया करते थे और अखबार को चला पाना एक मुश्किल भरा काम था। कड़की के उस कालखंड में उपकृत करने के लिए कहीं शराब का एक कारखाना सरकार ने मंजूर किया। सुधीरजी उसे चलाने के लिए भेजे गए।

आबकारी वालों ने फायदा कूटने के अटपटे गणित उन्हें समझाए। कुछ-कुछ अंतराल से कागजों पर शराब की कुछ जब्ती दिखानी थी और तब मुनाफे की बरसात आसान हो जाती। सुधीरजी ने आकर यह बात पिताश्री को बताई। रमेशजी ने उन्हें फौरन वापस बुला लिया और कहा कि विभाग वाले जब्ती करेंगे और श्रवणजी इंदौर में अपने ही अखबार में खबर छापेंगे। जो है सोे भाई साहब, हमने तय किया कि ऐसी लक्ष्मी हमें नहीं चाहिए। वे कहते थे कि लक्ष्मी दो तरह की होती है। एक वह जो उल्लू पर सवार हैं, दूसरी हाथी पर सवार। हमें उल्लू की सवारी नहीं चाहिए। वह घर को खराब करेगी।

आयकर वालों ने दो दिन की बीच कार्रवाई में 700 करोड़ और 2200 करोड़ रुपयों के दो आंकड़े और सौ कंपनियों के मकड़जाल की जानकारी देश को दी है। हर महीने की पहली तारीख को जीवन भर अपने वेतन का इंतजार करते मुझ जैसे इंसान के लिए ये सिर्फ चकाचौंध करने वाले आंकड़े हैं। अगर इनमें जरा भी सच्चाई है तो आयकर वाले ही बेहतर बताएंगे कि इतनी लक्ष्मी किस पर सवार होकर आती है-उल्लू पर या हाथी पर? क्या नन्हा सा उल्लू इतना भार ढो सकता है?

यह चमत्कार बड़े-बड़े हाथियों की आकर्षक रथयात्रा से ही मुमकिन है। संभ्रांत समाज की एक ऐसी संगत, जिसकी पंगत में सब मिलकर लोकतंत्र को चर रहे हैं। कोई किसी से छिपा नहीं है। नेता अफसरों से नहीं छिपे हैं। अफसर नेताओं की औकात जानते हैं। मीडिया वालों को दोनों की ढीली चडि्डयों के नाप पता हैं। पाखंडी भारतीय समाज आला दरजे का तमाशबीन है और वह अपने छोटे टुकड़ों की घात में ही खुश है। करप्शन और कमाई ड्राइंगरूम की बहसों का भी विषय नहीं बचे हैं।

जो पाठक मजे ले-लेकर टीका-टिप्पणी कर रहे हैं, उन्हें भी जरा पतंजलि फेसवॉश से अपना मुंह धोकर अपना चेहरा साफ आइने में देखना चाहिए। ये वही नाशुक्रे समाज के लोग हैं, जिन्हें अखबार के साथ मुफ्त उपहारों की स्कीमें हर साल चाहिए। भास्कर में संडे जैकेट के साथ एक दिन के अखबार की कीमत पांच रुपए करते समय सौ बार सोचा गया था। बीस रुपए की लागत का अखबार ढाई-तीन रुपए में घर पहुंचता है और आधा घंटा लेट हो जाए तो भोपाल के भाई लोग सीधे सुधीर अग्रवाल को फोन करके सुबह-सुबह स्टेट एडिटर को गालियां खिलवा देते हैं।

देश में कौन सा दूसरा ऐसा उत्पाद है, जो अपनी लागत से दस या पंद्रह गुना कम कीमत पर मिलता है? अस्सी पैसे का सॉफ्ट ड्रिंक शान से बीस रुपये में पीते हुए हम हर कहीं पाए जाते हैं और पेप्सी के मालिक को दुआएं भर नहीं देते। टेलीविजन चैनलों ने अखबारों का छपना बीस साल से हराम करके रखा और डिजिटल दरवाजे खुलते ही अखबार अस्तित्व के संकट में आ गए हैं। आज आयकर वालों की कार्रवाई की अपडेट जानने को उत्सुक जागरूक समाज के प्रबुद्ध पाठकों ने कभी इस तरफ गौर किया?

हाल ही के वर्षों में भास्कर के कई प्रयोग विवादों में घसीटे गए। कई सालों से भास्कर ने होली और दिवाली पर पर्यावरण केंद्रित अभियान चलाए। पानी की बरबादी रोकने के लिए सूखी होली खेलने की रंगारंग अपीलें छापीं। अखबार के साथ गुलाल तक घरों में भेजा। शुरु में वह बहुत हिट भी रहा। फिर अचानक मौसम बदला। सुप्त समाज की बत्ती जली। उनका ध्यान बेकसूर बकरों पर गया। ईद के दिन कटने वाले करोड़ों बकरों ने अपना कत्ल होते-होते भास्कर पर सवालों के छींटे उड़ा दिए।

पर्यावरण का होली से ज्यादा नुकसान करोड़ों गैलन वह खून है, जो हर मुस्लिम बहुल शहर की नालियों में बहता हुआ हमारे जलस्त्रोतों और मिट्टी को बरबाद करता है। सोशल मीडिया पर मुहिम चल पड़ीं कि भास्कर हिंदुओं को नसीहत न दे। कई खबरों और कॉलम लेखकों ने पाठकों के बीच लगातार यह धारणा मजबूत की कि भास्कर का स्वर हिंदू विरोधी है। ऐसा करके वह कांग्रेस को दम दे रहा है। उसके ताल्लुक नेहरू परिवार से हैं।

राजदीप सरदेसाई, शेखर गुप्ता, प्रीतीश नंदी, योगेंद्र यादव, जयप्रकाश चौकसे जैसे एकतरफा नेरेशन गढ़ने वाले चले हुए शरारती कारतूस भास्कर के चमकीले कीमती न्यूज प्रिंट पर पता नहीं क्यों पसरे रहे हैं? इनकी भड़ास उगलने वाली बकवास लेखनियों ने जमकर किरकरी कराई। महामारी में पहले पन्ने पर जलती हुई चिताओं के वीभत्स कवरेज देख कई पाठकों ने अखबार बंद कर दिए।

दानिश सिद्दीकी हो या दैनिक भास्कर, ऐसा माना गया कि उन तस्वीरों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना पत्रकारीय धर्म कम और कोई छिपा हुआ मकसद ज्यादा था, जो दरअसल छिपा हुआ नहीं रह गया था। लेकिन यह सिर्फ अखबारी बात है, जो हर सुबह हमारे हाथों में होता है। भले ही हम डीबी मॉल में कभी न जाएं, भास्कर इंडस्ट्री के दूसरे उत्पादों के उपभोक्ता न हों, उनके बनाए नमक-तेल को न खरीदें या उनकी बनाई किसी रिहाइशी कॉलाेनी में मकान-दुकान न लें। उनके हिसाब-किताब अलग हैं और आयकर वालों को यह अधिकार है कि वे ऐसे किसी भी कारोबार की पड़ताल जब चाहें तब करें। अगर सब सही है तो कोई क्या उखाड़ लेगा?

हालांकि हिंदू विरोध की तोहमत जड़ने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि नए साल और दिवाली के अंक को पढ़ने और सहेजने लायक बनाने में भास्कर ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को ही केंद्र में रखा और देश के अल्पज्ञात और सबसे शानदार मंदिरों के जैकेट पचास लाख कॉपियों में छापे। मैं खुद उन यादगार कवरेजों में गया हूं। जैसे तमिलनाडू में डेढ़ हजार किलो सोने का लक्ष्मी मंदिर और श्रीलंका में तमिलों द्वारा सहेजा गया सीता मंदिर। दीवाली के दिन अयोध्या से लेकर रामेश्वरम तक सबसे सीनियर रिपोर्टर और फोटो एडिटर भेजे गए।

उन राष्ट्रव्यापी कवरेजों को हजारों पाठकों ने सहेजकर रखा और उत्तर भारत के पाठक सपरिवार दक्षिण के इन मंदिरों को देखने गए। वे भास्कर में फोन करके वेल्लोर की विस्तृत जानकारी लेते थे। हालांकि इस पठनीय सामग्री के निर्दोष पाठकों के पास मीडिया के कारोबारी विराट रूप के दर्शन करने की क्षमता वाले नेत्र नहीं होंगे। इतने अंदर की बातें आयकर वाले ही बता सकते हैं। मुझे लगता है कि 700 करोड़ और 2200 करोड़ के आंकड़े बहुत बड़े हैं। इनके आगे ऐसे चमकदार कवरेज और खबरों को गिनाना बच्चों जैसी बातें हैं।

मैं अपने अनुभव से कहूंगा कि कंटेंट पर भास्कर जितनी ऊर्जा शायद ही किसी अखबार में लगती हो। क्या आपने कभी सोचा कि शाम छह से रात नौ बजे तक टीवी का तथाकथित प्राइमटाइम दस फुरसतिए प्रवक्ताओं और बकवास एंकरों के बीच की फिजूल बहसों में ही क्यों बरबाद किया जाता रहा है? वह जीरो इन्वेस्टमेंट का दो कौड़ी का काम है। दिन भर की कोई एक घटना या बयान पकड़ लो और स्टुडियो में चेहरा पोतकर बैठकर तीन घंटे तक खेलते रहो। भारत जैसे विशाल देश में नागरिकों का हीमोग्लोबिन बढ़ाने वालीं अनगिनत प्रेरक कहानियां और अनुकरणीय किरदार बिखरे हुए हैं। बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जो दूसरों के लिए मिसाल हो सकता है। सरकारी सिस्टम में बहुत कुछ ऐसा है, जिसकी सच्ची चीरफाड़ जरूरी है।

समाज में इतनी सड़ांध है कि जिसे साहस से उघाड़ा जाना जरूरी है। लेकिन टीवी की बहसों ने वितृष्णा पैदा करके रख दी। ये सारे मीडिया हाऊस कंटेंट पर कुछ खर्च नहीं करते। एक यादगार कवरेज के लिए भास्कर ने जेबें हमेशा खोलकर रखीं। आयकर वाले बता रहे हैं कि कई कर्मचारियों के नाम पर कंपनियां पाई गईं हैं, जिन्हें खुद ही पता नहीं है। मैं उन सब परमवीरों के नाम जानने को उत्सुक हूं। डरा भी हूं। कहीं मेरे नाम की कोई कंपनी तो नहीं!

दैनिक भास्कर समूह की उड़ान रातों-रात की नहीं है। इसमें तीन पीढ़ियां खपी हैं। वे अग्रवाल हैं। विशुद्ध कारोबारी पृष्ठभूमि के परिवार और कारोबारी होना गुनाह नहीं है। एक समय नगर सेठ कोई आदरणीय अग्रवाल या जैन या माहेश्वरी ही हुआ करते थे, जो अपने कारोबारों के अलावा धर्मशालाएं, भोजनशालाएं, प्याऊ और मंदिर गांव-कस्बों तक में बनवाया करते थे।

बेशक दैनिक भास्कर आज जिस ऊंचाई पर पहुंचा है, वह सिर्फ एक पीढ़ी का कमाल है और एक पीढ़ी भी नहीं, मैं कहूंगा कि सिर्फ सुधीर अग्रवाल की बदौलत है। वे समूह के स्वर्गीय चेयरमैन रमेश अग्रवाल के बड़े बेटे हैं और उनके साथ काम करने वाला घाेर आलोचक पत्रकार भी यह मानेगा कि वे एक विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे कोई रियल इस्टेट में अरबों कमाकर किसी बिगड़ैल नव धनाढ्य की तरह अखबार निकालने नहीं आए, न मेडिकल कॉलेज या मॉल खोलकर अखबार छापने निकले और न ही गुटखा-सिगरेट बेचते हुए किसी घटिया दुकानदार की तरह खबरों की दुनिया में यूं ही रुआब गांठने चले आए।

वे खबरों और खबरनवीसों की नस-नस से किसी भी दक्ष संपादक से ज्यादा वाकिफ एक त्रिकालदर्शी अखबार मालिक रहे हैं। मेरा दावा है कि अगर वे अग्रवाल नहीं होते तो किसी भी संपादक से ज्यादा समाज, सरकार और खबरों की बेहतर समझ रखने वाले श्रेष्ठ संपादक होते। मगर वे अग्रवाल हैं और कई लोगों का मानना रहा है कि कामयाबी के लिए मीडिया में उनके प्रेरणास्त्रोत समीर जैन रहे।

एक मीडिया प्रबंधक के रूप में वे बिल्कुल भावनाशून्य भी रहे, जिसे अपने काम को निकालने का हुनर आता है। जिन्हें काम के आदमी की पहचान है और काम के दौरान वे पूरी तरह पेशेवर होंगे। निर्ममता की हद तक। इतने कि शिखर संपादकों के हाथों होते रहे प्रतिभाशाली पत्रकारों के शिकार की वे अनदेखी कर सकते थे, क्योंकि उनकी लक्ष्यपूर्ति अबाधित थी। अखबार का ऐसा मॉडल उन्होंने बनाया, जिसके चप्पे-चप्पे पर उनका सख्त नियंत्रण रहा है।

मैं अक्सर कहा करता था कि स्टेट में कोई भी एडिटर हो, ग्रुप में कोई भी हो और ग्लोबल में कोई भी हो, सबके ऊपर सुधीरजी यूनिवर्सल एडिटर हैं। किसी भी नए प्रयोग या बड़े कवरेज के प्रिंट एमडी ऑफिस की मंजूरी के बाद ही छपने जाते और हम लाल-हरे स्केच की लाइनों को बारीकी से देखते, जो सुधीर अग्रवाल खुद ए-थ्री साइज के प्रिंट पर खींचकर लौटाते। वे हेडिंग और इंट्रो पर भी स्याही फेरते और लेआऊट-डिजाइन पर अलग से क्लास लेते।

मैं मानता हूं कि उनकी संपादकीय प्रतिभा, नेतृत्व क्षमता, विकट परिश्रम और कारोबारी हुनर ने ही अखबार को देश का सबसे बड़ा अखबार बनाकर खड़ा किया। आयकर वालों की कार्रवाई के सारे संभावित निष्कर्ष अपनी जगह एक अलग सच से रूबरू कराएंगे लेकिन इससे मेरे अनुभव का यह सत्य भी नहीं बदल सकता।

दिन-दिन भर, देश भर में जा-जाकर या भोपाल की संस्कार वैली के सभागार में बुला-बुलाकर संपादकों और मैनेजरों की मैराथन मीटिंगों में वे हमेशा ही बहुत “फोकस्ड’ और बहुत कठोरता से “टू द पाइंट’ रहे हैं। आईआईएम से डिग्रीधारी मैनेजर सुधीर अग्रवाल की प्रबंधकीय क्षमता और ज्ञान का लोहा मानते रहे तो संपादक उनके पत्रकारीय कौशल और खबरों की समझ को खामोशी से चकित भाव से देखते। इतना कुछ कमा चुकने के बाद मन में यश की लिप्सा स्वाभाविक है। हर कोई चाहता है कि समाज में लोग उसे जानें। अखबारों में उसकी तस्वीर छपें। वह बड़े आयोजनों और भव्य मंचों पर शिरकत करे।

आपने पिछली बार कब सुधीर अग्रवाल को किसी मंच पर किसी नेता या अभिनेता के साथ देखा? भास्कर के करोड़ों पाठकों को उनकी शक्ल भी याद नहीं होगी। हमें बड़ा विचित्र लगता कि भारतीय संस्कृति और इतिहास पर अपनी जिज्ञासाओं के लिए वे देशके प्रसिद्ध विद्वान अध्येता डॉ कपिल तिवारी से घंटों बात करते और गेट के बाहर आकर उनकी कार का दरवाजा आदरपूर्वक खुद खोलते। किसी मंत्री या मुख्यमंत्री के लिए हमने उन्हें ऐसा करते कभी नहीं देखा।

2010 में अभिलाष खांडेकर भास्कर समूह के मराठी अखबार “दैनिक दिव्य मराठी’ की शुरुआत के लिए महाराष्ट्र गए। औरंगाबाद के दफ्तर में जब अखबार का पहला अंक एक जोरदार जलसे में जारी होना था तब दफ्तर की इमारत के बाहर दरबान ने सुधीर अग्रवाल से ही पूछ लिया था कि महाशय आप कौन? रमेशजी के जीते-जी अखबार उनके ही नेतृत्व में पूरे समूह का ताकतवर केंद्र बना और कई राज्यों में विस्तृत उसकी परिधि पर कामयाब कारोबारों की शानदार कड़ियां जुड़ती गईं। आयकर वाले शायद इन्हें ही सौ से ज्यादा कंपनियां बता रहे हैं।

दैनिक भास्कर समूह में रमेश अग्रवाल की उपस्थिति एक छायादार घने वृक्ष सरीखी थी। हालांकि वे खबरों की दुनिया से दूर थे और आखिर तक सामाजिक कार्यों में ही पूरे समय सक्रिय रहे। हम भारतीय विश्वास करते हैं कि परिवार में कोई ही ऐसा होता है, जिसके होने मात्र से ही पूरे वंश के लिए आश्वासन और आशीर्वाद बरसते हैं। रमेशजी ऐसे ही थे। वे भास्कर का प्रकट परिचय थे और क्योंकि वे प्रकट थे इसलिए सुधीरजी ने स्वयं को अपने स्वभाव के अनुकूल परदे के पीछे ही अपनी कारोबारी साधना में टिकाए रखा। सुधीरजी कभी रमेशजी नहीं हो सकते। कोई पुत्र अपने पिता सा नहीं हो सकता। वह उनसे आगे हो सकता है। उन सा नहीं हो सकता। रमेशजी के जाने के बाद भास्कर में ऐसा लगा जैसे अचानक बिजली चली गई हो और बत्तियां बुझ गई हों।

अपने 25 साल की पत्रकारिता यात्रा में मैंने ज्यादा समय रिपोर्टिंग में बिताया और ढोल, गंवार, शूद्र, पशुओं से भरे धरती के इस दुष्ट संपादकीय संसार में सौभाग्य से ही मिले कई अच्छे सहकर्मियों के साथ टिकाऊ रिश्ते कमाए। लिखने के शौक ने गणित के अध्यापन से मुझे हर पल अनिश्चय से भरे अखबारी जगत में धकेला था। जब मैंने पांच साल की भारत की परिक्रमाओं को पूरा किया तो बड़े जोश से कहा था कि अब अगर अपने गांव भी लौट जाऊं तो बाकी जिंदगी इस सुकून के साथ गुजार सकता हूं कि मैं एक ऐसे पेशे में रहा, जहां से मुझे भारत को उसके महान विस्तार में इतनी गहराई से देखने और समझने का दुर्लभ अवसर मिला। कोई भी पेशा और कितना भी पैसा मुझे यह अनुभव दे ही नहीं सकता था। वह बिल्कुल एवरेस्ट छूने जैसा अहसास था।

अखबार में रहते हुए मेरी कोई लालसा नहीं थी और उस अनुभव के बाद लगा कि अब पाने को कुछ शेष नहीं है। हम अखबारों में लिखकर समाज को बदल सकते हैं, यह गुमान अगर पहले था भी तो पहली ही नौकरी के बाद वह नशा उतर गया था। मुझे अपनी सीमाएं पता थीं। चार-छह किताबें छपकर आईं तो छपने से प्राप्त नश्वर सुख से भी मोहभंग हो गया। आखिरकार कुछ कटु अनुभवों के साथ मैंने 2018 में दैनिक भास्कर को ही अलविदा नहीं कहा, मीडिया से ही बाहर आ गया। हमेशा के लिए। खाली हाथ।

आमतौर पर भ्रष्ट सरकारें, जो कि वह होती ही हैं, वे समाज की अन्य शक्तियों के साथ एक आरामदेह संतुलन में चलना पसंद करती हैं। वह शक्ति विपक्ष के शातिर नेताओं की हो सकती है, लचर न्यायपालिका की हो सकती है, सौदेबाज आंदोलनकारियों की हो सकती है और लोकतंत्र के स्वयंभू चौथे स्तंभ की भी हो सकती है। सरकारों को सुविधापूर्ण है कि वे पांच साल का समय शांति और सदभाव से काटें। मिलजुलकर देश को विकास के रास्ते पर ले जाएं। ‘सौजन्य’ से प्राप्त ‘सुख’ को बराबर बांट लिया जाए। एक दूसरे के दायरों का आदर किया जाए। दो टूक शब्दों में कहें तो आप अपना हिस्सा लीजिए, हमें अपना हिस्सा लेने दीजिए। नियम-कायदे मत बताइए। नैतिकता, निष्ठा और चरित्र उपदेशों और आलेखों में ही सजाइए। इन्हें आजमाना घातक सिद्ध हो सकता है।

मैं अपनी भूमिका पर लौटता हूं। हम पिछले कुछ सालों से कुछ ऐसा होते हुए देख रहे हैं, जो अभी-अभी अकल्पनीय था। कौन सोच सकता है कि कोई दैनिक भास्कर समूह की गिरेबां में हाथ डाल सकता है? आयकर की कार्रवाई ऐसी ही एक वारदात है। यह भास्कर समूह के लिए वैसी ही अग्नि परीक्षा है, जैसी भोपाल गैस हादसे के समय रमेशजी के समय थी। आज अगर रमेशजी होते तो पता नहीं यह हिसाब लगाते या नहीं कि वे बिना सरकारी मदद के कितने दिन अखबार निकाल सकते हैं। वे बड़ी जिंदा दिली से कहा करते थे कि भाई साब, जो है सो, पाठक ही हमारे मालिक हैं।

मुझे लगता है कि यह एक श्रेय देने वाली लुभावनी सी बात है, जो किसी भी अखबार के मालिक को करनी ही चाहिए। वर्ना पाठक किसी चंद्रलोक या मंगल ग्रह से आए हुए दूध के धुले नहीं हैं। वे उसी दोमुंहे समाज के हैं, जो अपने फायदे की घात में पूरे समय चौकन्ना है। जिसे भाषण ईमानदारी के देने हैं और बिना रिश्वत या कमीशन के कोई काम नहीं करना है। वह बात त्याग की करेगा और बेटे के लिए मालदार घराने की बहू चाहेगा। वह प्रतिभाओं को आगे लाने का उपदेश देगा और मौका लगते ही भाई, भतीजे, बेटे, बहू, पत्नी और प्रेमिका के लिए सिफारिश करेगा। उसे पांच रुपए का अखबार मुफ्त के तोहफे की स्कीमों के साथ चाहिए। भाषा को भ्रष्ट बनाने का दोष अखबार के माथे पर चिपकाएगा और अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजेगा।

दैनिक भास्कर के प्रति सद्भावना केवल इसलिए नहीं होनी चाहिए कि मैंने अपने जीवन के बेशकीमती बारह साल वहां बिताए। आयकर की कार्रवाई के दौरान एक प्रबुद्ध पाठक ने कहा कि देश में एक अच्छे और सच्चे अखबार की बेहद जरूरत है। एक ऐसा अखबार जिसकी आत्मा में भारत धड़के। जो न इस पंथ का हो, न उस धारा का। वह देश का अखबार हो।

मैं मानता हूं कि भास्कर ऐसा हो सकता है। वह बहुप्रसारित है। साधन संपन्न है। अगर मॉडल में कुछ दोष है तो वह सुधारा भी जा सकता है। एक लंबी यात्रा के बाद वह इतने ऊंचे पड़ाव पर आया है। किसी नए खिलाड़ी को अखबार निकालना छटी का दूध याद करने जैसा होगा। रिअल स्टेट, कॉलेज-यूनिवर्सिटी और पान-गुटखा के धंधेबाज अरबों कमा और लगाकर भी अखबार में आकर अपने चेहरों पर हवाइयां उड़ा रहे हैं।

सुधीरजी अगर कुछ कम अग्रवाल हो जाएं तो बात बन सकती है। जिंदगी में जो कमाना था, दशकों पहले कमा चुके। उनके पास प्रतिभा है, क्षमता है, दृष्टि है, दूर दृष्टि है और सबसे बड़ी बात खबरों और लेआउट तक की पैनी समझ है, अखबार उनके लिए एक जुनून है, जिद उनके पास है ही, जज्बे की भी कभी कमी नहीं देखी। पुराने कमाऊ मॉडल के नटबोल्ट ही तो सीधे कसना है।

कोई जरूरत नहीं कि एडिटर पांच या दस लाख रुपए महीने की तनख्वाहों पर रखे जाएं। उनसे ज्यादा गुणी और समझदार अनगिनत पत्रकार और बेहतर इंसान कई ऐसे हैं,, जो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुके हैं और अच्छी पत्रकारिता की खातिर उनके एक आव्हान पर केवल दो समय की दाल-रोटी यानी सम्मान से गुजारे लायक वेतन पर अखबार में आ जाएंगे। कॉर्पोरेट जगत की चमक-दमक से अखबार को मुक्त कर दीजिए। दो कौड़ी के भ्रष्ट अफसरों को मुंह मत लगाइए, उन्हें आइना दिखाइए।

किसी समीर जैन में दम नहीं कि आपका आदर्श बन सके। किसी गणेश शंकर विद्यार्थी या किसी माधवराव सप्रे में प्रकाश की कोई किरण ढूंढ लीजिए। वह वहीं मिलेगी। अवश्य मिलेगी। अपनी ताकत पहचानिए। आपकी ताकत बहुत बड़ी है। किसी से किसी तरह की गोटियां साधने की जरूरत ही नहीं है। एक नया मॉडल विकसित कर दीजिए, जो भारत और भारतीय भाषा से प्राणित हो। अखबार का हर पेज रंगीन हो यह किसी डॉक्टर गोयनका या डॉक्टर भंडारी ने नहीं कहा। अपना टीवी चैनल ले आइए, जो प्राइम टाइम की परिभाषा बदल दे। इस मॉडल को निवेशक नहीं मिलेंगे, कोई नहीं मानेगा।

और सबसे आखिर में, हमारे पुण्यवान, हिंदी प्रेमी, भाषा ज्ञानी, चरित्रवान, महान पाठक अपने अखबार से यह कह सकते हैं कि श्रीमानजी, कोई कंपनी मत चलाइए। किसी धंधे में मत जाइए। विज्ञापनों के लिए किसी सरकार पर निर्भर मत रहिए। हम पचास नहीं, सौ रुपए में अखबार खरीदेंगे। आप मूल्यों की पत्रकारिता कीजिए। समाज आपको आधार देगा। आप सिर्फ सच को सामने लाइए। समाज को दिशा दीजिए। असरदार और प्रेरक खबरें कीजिए। भाषा काे समृद्ध कीजिए, भारत की जड़ों को सींचिए। सरकारें आएंगी, जाएंगी। आप देश को सबसे पहले रखिए। हम तन, मन और धन से आपके साथ हैं? है कोई ऐसी आवाज?

इतना सन्नाटा क्यों है भाई?

(आलेख लेखक के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)