साहू और राजपूत ने बदली राजनीतिक दिशा, जीत-हार के होंगे बड़े मायने


बुंदेलखंड की सुरखी सीट से ज्योतिरादित्य सिंधिया के खास माने जाने वाले गोविंद सिंह राजपूत विधायक थे और अब भाजपा से प्रत्याशी हैं। वहीं पारुल साहू की भारतीय जनता पार्टी को लेकर प्रतिबद्धता केवल टिकिट न मिलने पर बदल गई है।


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भोपाल। मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार आने के बाद से ही कुछ सीटें बड़ी महत्वपूर्ण मानी जा रहीं थीं। इनमें बुंदेलखंड की सुरखी सीट भी शामिल है, जहां से ज्योतिरादित्य सिंधिया के खास माने जाने वाले गोविंद सिंह राजपूत विधायक थे और अब भाजपा से प्रत्याशी हैं।

वहीं कांग्रेस को आखिरी समय में पारुल साहू का साथ मिला जो पहले इसी सीट से भाजपा की प्रत्याशी रहीं हैं।

मार्च के बाद सागर जिले की राजनीति भी काफी बदली है और सबसे ज्यादा बदलाव सुरखी विधानसभा में आया है। इन उपचुनावों में ये बदलाव प्रत्याशियों और उनके सर्मथकों और पार्टी कार्यकर्ताओं को भी अच्छी तरह समझ नहीं आ रहा है।

छह साल बाद आमने-सामने लेकिन बदल गई है पार्टी

2013 में यहां से जिन प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था, छह साल बाद भी वे ही लड़ रहे हैं। फर्क बस इतना है कि दोनों ने अपनी पार्टी बदल ली है।

उंची मजबूत कदकाठी के गोविंद सिंह राजपूत ने ज्योतिरादित्य की सरपरस्ती में कांग्रेस सरकार गिराकर भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया है और अब भाजपा की ओर से मैदान में हैं।

सिंधिया के साथ पार्टी छोड़ने वाले गोविंद सिंह राजपूत से कांग्रेस नाराज़ है और उन्हें यहां तरह-तरह की संज्ञाएं दी जा रहीं हैं।

तो वहीं 2018 तक यहीं की विधायक रहीं विदेश में पढ़ीं सौम्य शालीन पारुल साहू को भाजपा ने फिर टिकिट नहीं दिया। लिहाजा वे भी पार्टी से नाराज़ हैं।

हालांकि साहू के इस कदम को मजबूत माना जा रहा है। उनके रुप में कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में एक बड़ा चेहरा मिला है जिसकी उम्मीद शायद किसी को नहीं थी।

पारुल साहू की मुश्किल है कि उन्हें उस पार्टी से चुनाव लड़ना पड़ रहा है, जहां पार्टी के पूर्व नेता ने ही जड़ें कमजोर की हैं। ऐसे में उन्हें मुश्किल के बीच सहानुभूति भी मिल रही है।

पार्टी कार्यकर्ताओं की टीम भी है पशोपेश में

दोनों ही प्रत्याशियों को अब उस टीम पर भरोसे के साथ काम करना पड़ रहा है जो कुछ समय पहले तक उनकी विरोधी थी। पार्टी कार्यकर्ताओं की यह टीम भी इसी पशोपेश में हैं।

कांग्रेसी कार्यकर्ता जहां गोविंद सिंह राजपूत के जाने के बाद खुद को ठगा सा महसूस कर रहे थे तो वहीं बहुत से भाजपा कार्यकर्ताओं का भी हाल कमोबेश यही है। उन्हें एक नया नेता दे दिया गया है। वो नेता जिसकी वे अब तक आलोचना करते रहे हैं।

खबरें बताती हैं कि कार्यकर्ताओं ने कई बार गोविंद सिंह राजपूत का साथ देने को लेकर असमंजस जताया है। खुद गोविंद सिंह की कार्यशैली भी उनके भीतर के इसी असमंजस को दिखाती रही है।

वोटर भी नहीं समझ पा रहे किस नेता पर करें भरोसा

जिस विधानसभा क्षेत्र में प्रत्याशी, नेता और कार्यकर्ता असमंजस में हों वहां वोटर का हाल क्या अलग होगा। सुरखी विधानसभा के वोटर समझ नहीं पा रहे हैं कि वे इस बार किस नेता पर भरोसा करें।

भाजपा के प्रति जहां गोविंद सिंह राजपूत के बोल जनवरी-फरवरी तक कुछ और थे तो अब कुछ और हैं। वहीं पारुल साहू की भारतीय जनता पार्टी को लेकर प्रतिबद्धता केवल टिकिट न मिलने पर बदल गई है।

जीत-हार से निकलेंगे कई बड़े मायने

पारुल साहू और गोविंद सिंह दोनों ही प्रत्याशियों ने अपनी राजनीतिक दिशा बदल ली है और दोनों की ही जीत हार के बड़े मायने निकलेंगे।

गोविंद सिंह अगर जीतते हैं तो जिले में भाजपा का एक और विधायक बन जाएगा और नेताओं की कतार कुछ और लंबी हो जाएगी।

वहीं पारुल साहू अगर जीतती हैं तो ये उनके लिए बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि उन्होंने मौजूदा परिदृश्य में कमजोर नजर आ रही पार्टी को चुनकर न केवल उसके बागी को हराया होगा बल्कि इस दौरान मंत्री भूपेंद्र सिंह जैसे नेताओं को भी सीधी टक्कर दी, जो यहां भाजपा का सबसे अहम चेहरा बने हुए हैं।


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