इंदौर। जल के लिए कार्य करने वाले समाजसेवी और पर्यावरण प्रेमी राजेंद्र सिंह ने मंगलवार को प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले इंदौर में थे। शहर में स्थित श्री वैष्णव इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट में हुए आयोजन के दौरान उनका यहां के लोगों से कहना था कि आपका मध्यप्रदेश भगवान का सबसे लाडला बच्चा है, तभी तो यहां की मृदा बहुत अच्छी है। यहां वर्षा भी अनुकूल ही होती है और यहां वन-पर्वत भी खूब हैं। मगर कभी-कभी जो बच्चा ज्यादा लाड़ला होता है, वह बिगड़ जाता है। ऐसा लगता है कि यही हाल अब इस प्रदेश का हो रहा है। जीवनदायिनी नर्मदा ही नहीं, बल्कि यहां की सभी नदियों की स्थिति अच्छी नहीं है।
श्री वैष्णव इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट में विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें राजेंद्र सिंह ने कहा कि नर्मदा को हम मां कहते हैं, लेकिन मां की तरह उसके साथ व्यवहार भी तो करें। नर्मदा नदी को शुद्ध करने का जो प्रयास जरूरी है, वह हुआ ही नहीं। यदि नदी को पुनर्जीवित करना है, तो हमें उसके साथ जीना होगा। नर्मदा इन दिनों आईसीयू में है और रेत खनन करके उसमें बड़े घाव कर दिए गए हैं।
उनका कहना था कि जिस मालवा को लेकर कभी पग-पग रोटी, डग-डग नीर वाला कहा जाता था, उस मालवा की हालत अब ठीक नहीं। यहां भूजल की स्थिति बहुत संतोषदायक नहीं है। हमें जल पुनर्भरण की सुचारू व्यवस्था करनी होगी।
पानी वाले बाबा के नाम से विख्यात राजेंद्र सिंह ने कहा कि खेती को व्यावसायिक दृष्टिकोण से हटाकर प्राकृतिक व प्राथमिक दर्जे पर लाना होगा। भारत की खेती संस्कृति है, मगर अफसोस कि वह अब उद्योग की श्रेणी में आ गई है। फसल चक्र व वर्षा चक्र को समझना होगा, तब हम 40 प्रतिशत पानी बचा सकेंगे।
राजेंद्र सिंह ने कहा कि पहले दो विश्व युद्ध आमने-सामने हुए, लेकिन तीसरा विश्व युद्ध पूरी दुनिया में एक साथ होगा। कुछ अर्थों में यह शुरू हो भी चुका है। भारत इसे नहीं रोक पाएगा। इसे रोकने के लिए भारत की सहभागिता तभी तक थी, जब तक भारत की धरा पर 60 प्रतिशत पानी था। अब तो भारत की 72 प्रतिशत भूमि का पेट खाली है। पानी ही नहीं होगा, तो रिजर्व बैंक आफ इंडिया की मुद्रा की क्या कीमत बचेगी। हम पानी नहीं बचा पाएंगे, तो दूसरे देशों को क्या सलाह देंगे।
जल को संरक्षित करने के लिए हमें उसे चलना सिखाना होगा। दौड़ते पानी को चलना सिखाएं अर्थात उसकी गति धीमी करें। जब वह चलना शुरू कर दे, तो उसे पकड़कर बैठा लें। जब वह बैठेगा तो जमीन में उतरेगा। जब धरती में उतरेगा, तो स्वत: ही भूजल बढ़ जाएगा। वर्षा जल को अगर बहने से रोक दिया, तो काफी हद तक पानी सहेज सकेंगे। इससे बाढ़ भी नहीं आएगी। वर्षा जल तेजी से बहेगा नहीं, तो मिट्टी भी नहीं कटेगी और जंगल भी बचेंगे। जब पानी के साथ मिट्टी बहकर जाती है, तो वह नदी में मिल जाती है और नदी की गहराई कम होती है। जब नदी की गहराई कम होगी, तो पानी कम ही संग्रहित होगा।
प्रकृति को सहेजने के लिए हमें शिक्षा नहीं, विद्या की जरूरत है। जैसलमेर में 700 वर्ष पहले बने गडीसर तालाब की बदौलत शहर विश्व का सबसे बड़ा उद्योग केंद्र हुआ करता था। तब रोज 1500 ऊंट और दो हजार व्यापारी यहां आते थे। वर्ष में केवल नौ इंच वर्षा के बावजूद यह तालाब सबकी पूर्ति करता। यहां रोज प्रतिव्यक्ति पांच लोठा व ऊंट को 15 लोठा पानी पीने को मिलता था। यह जल प्रबंधन की बात है। हमें यही विद्या सीखनी होगी। आज शिक्षा से ज्यादा विद्या की जरूरत है।
उन्होंने इन बिंदुओं व बातों पर ध्यान देने की बात कही –
- वर्षा के जल को संग्रहित करने के लिए चेक डेम बनाएं
- पानी के बहाव को धीमा कर मिट्टी के कटाव को रोकें
- नदी में पानी को एक स्तर तक रोकें और फिर उसे छोड़ें ताकि पानी जमीन में उतर सके
- जल को यदि ईश्वर मानते हैं तो उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें
- आधुनिक दौर में जो भौगोलिक परिस्थितियां बदली हैं, उसे समझते हुए कृषि करें
दो पुस्तकों का विमोचन भी हुआ –
इस आयोजन में राजेंद्र सिंह की दो पुस्तकें ‘सभ्यता की सूखती सरिता’ और ‘जलपुरुष की जलयात्रा’ का विमोचन हुआ। यह विमोचन वैष्णव विश्वविद्यालय के कुलाधिपति पुरुषोत्तम दास पसारी, कुलपति डॉ. उपिंदर धर, डॉ. संतोष धर, डॉ. उत्तम शर्मा और विद्यापीठ ट्रस्ट के सचिव कमलनारायण भुराड़िया द्वारा किया गया। संचालन डॉ. नम्रता जैन ने किया जबकि आभार सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट की चेयरपर्सन डॉ. संतोष धर ने माना।
(इनपुट – नईदुनिया)