इंदौर। मोहर्रम के दौरान महू में भी काफी धूम होती है। यहां का पीपल पत्ते का ताज़िया काफी प्रसिद्ध है। जो शहर का सबसे प्रमुख ताज़िया होता है। इसके निर्माण को लेकर एक रोचक कहानी है इस पीपल पत्ते के ताजिये का निर्माण डेढ़ सौ साल पूर्व शुरू हुआ था और आज तक उसी शाह परिवार की पीढ़ियां इसे बना रहीं हैं। इसका निर्माण शहर के पंडित परिवार के बिना पूरा नहीं होता और वे इसे कंधा देने के लिए सबसे पहले आते हैं। ज़ाहिर है ये परंपरा हिन्दू और मुसलमान परिवारों के पुरखों ने शुरु की थी जिसे उनकी पीढ़ियां आज भी निभा रहीं हैं।
मोहर्रम के पर्व पर निकलने वाला ताजियों के जुलूस में सबसे खास महत्व पीपल पत्ते का ताजिये का है। पीपल पत्ते के ताजिये का निर्माण करीब डेढ़ सौ साल पूर्व सन 1888 में होना शुरू हुआ था तब यह पत्ता ताजिया करीब 40 फीट ऊंचा हुआ करता था लेकिन अब ये छोटा है क्योंकि शहर में बिजली के तारों का जाल बिछा हुआ है। ऐसे में अब इसकी उंचाई केवल 11 फुट रह गई है।
पुराने समय में इस ताजिये पर सेहरा बांधने के लिए कोतवाली चौराहा स्थित अब्बास बिल्डिंग के ऊपर चढ़ा जाता था लेकिन शाह परिवार की छठी पीढ़ी इसका निर्माण कर रही है। ताजिये बनाने का काम मोहर्रम के करीब पांच महीने पहले से ही शुरु हो जाता है।
सबसे पहले एक आकार के करीब एक हजार पीपल के पत्ते तोड़े जाते हैं और फिर उन्हें भिगोया जाता है। ताजिये में 500 पत्तों की छाल का प्रयोग होता है। इसे बनाने वाले दावा करते हैं कि भारत में केवल महू में ही इस तरह पीपल के पत्ते और उसकी छाल का ताजिया बनाया जाता है। इसे बनाने में करीब 40000 रुपये खर्च होते हैं।
इस ताजिये कई और पुरानी खूबियां आज भी हैं। इनमें से एक यह कि ये ताजिया आज भी बिना बिजली की रोशनी के बिना निकलता है। इसे रोशन करने के लिए केवल लालटेन का ही सहारा लिया जाता है। शाह परिवार के लोग कहते हैं कि कुछ साल पहले उन्होंने इसमें बिजली से रोशनी करने की कोशिश की थी लेकिन परिणाम ठीक नहीं रहे ऐसे में उन्होंने अपनी परंपरा को वैसे ही अपनाया जैसा उनके पुरखे निभाते थे।
मोर्हरम के जुलूस में ये ताज़िया सबसे आगे चलता है और इसके पीछे ही बाकी सभी ताजिये आते हैं। इसके उठने तक इसका इंतज़ार किया जाता है। रास्ते में यह ताजिया केवल काले सैय्यद की दरगाह पर सलामी देने के लिए रुकता है।
दरगाह पर भी सलामी देने के लिए या अकेला ही जाता है इसके अलावा इस ताजिये को बनाने एवं उठाने में भी हिंदू परिवार का अहम योगदान होता है। नौशाद शाह बताते हैं कि हरी फाटक के नजदीक ही रहने वाला शर्मा परिवार तथा अरविंद गुरु परिवार इसकी इसके नीचे बल्लियां बांधते हैं।
दरअसल केवल यही परिवार जानता है कि ताजिये की बल्लियां कहां लगाई जानी हैं और सुरक्षित रखने के लिए किस तरह बांधनी हैं। ये बताते हैं कि इनकी ये परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है, पहले इनके पिता, दादा और परदादा ऐसे ही बल्ली बांधते थे और अब ये जिम्मेदारी इनके साथ इनकी अगली पीढ़ी को जाएगी। ताजिये को उठाने के लिए बल्ली बांधने वाला परिवार सबसे पहले इस ताजिये को अपना कांधा भी देता है। यही परंपरा है रही है। इसके पहले कोई मुस्लिम समाज का आदमी भी ऐसा नहीं करता। ये इनकी परंपरा का सम्मान है।
यहां पहुंचे लोग बताते हैं कि उन्हें इससे कभी कोई ऐतराज़ नहीं हुआ क्योंकि जो परंपरा एकता और बंधुत्व की सीख दे उसमें कैसी बुराई होगी। इस पर्व के दौरान यहां कोई भेद दिखाई नहीं दिया। ज़ाहिर है धर्म और जाति में टूटते समाज में पीपल पत्ते का यह ताजिया और इसके जैसी परंपराएं एक पुल हैं जो हमेशा जोड़ने का काम करती रहेंगी।