
महू, 12 अप्रैल — बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के जन्म महोत्सव की शान मानी जाने वाली गौरव यात्रा इस बार महू में फीकी पड़ गई। हर साल हजारों की संख्या में अनुयायी और समाजजन इस यात्रा में उत्साह से शामिल होते हैं, लेकिन इस बार नजारा कुछ और ही था। यात्रा में ना तो भीड़ थी, ना ही वह जोश, और ना ही वह सामाजिक एकजुटता, जो इसे खास बनाती थी।
पहले यह यात्रा 14 अप्रैल को कलश यात्रा के रूप में निकाली जाती थी। शहर में गूंजते भीम गीत, नारों की गूंज और समाज की भारी भागीदारी इसे एक पर्व जैसा बना देती थी। लेकिन इस बार यह यात्रा न केवल 14 की जगह 12 अप्रैल को निकाल दी गई, बल्कि उसमें शामिल होने वालों की संख्या सौ के पार भी नहीं पहुंची।
44 घोड़ों पर बालिकाएं सवार थीं और चार बग्घियों में कुछ भिक्षु बैठे थे, लेकिन यह सजावट भी माहौल नहीं बना सकी। पैदल चलने वालों की गिनती इतनी कम थी कि कई राहगीर इसे एक छोटा सा शोभायात्रा समझ बैठे।
समाज के ही कुछ लोगों ने दबी जुबान में इस बात को स्वीकारा कि नई समिति की मनमानी और तुगलकी फैसलों ने आयोजन का आकर्षण खत्म कर दिया है। यात्रा की तारीख को बार-बार बदलने से बाहर से आने वाले अनुयायियों का उत्साह भी टूटा है। पहले जो लोग सैकड़ों किलोमीटर दूर से 14 अप्रैल के लिए अपनी यात्रा तय करते थे, वे अब कंफ्यूजन और अनिश्चितता के कारण शामिल ही नहीं हो पाए।
इस बार की यात्रा में एक और बड़ा बदलाव यह रहा कि अन्य समाजों की ओर से भी ना कोई भागीदारी रही, ना ही स्वागत। पहले जिस तरह रास्ते भर जगह-जगह स्वागत द्वार बनते थे और सामाजिक समरसता की मिसाल पेश की जाती थी, वह नज़ारा पूरी तरह गायब रहा।
यह आयोजन सिर्फ एक शोभायात्रा नहीं, बल्कि बाबा साहेब के विचारों और संघर्षों की स्मृति होता है। लेकिन जब इसमें समाज की भागीदारी ही ना हो, तो उसका मकसद भी अधूरा रह जाता है। यदि समिति और समाजजन अब भी नहीं चेते, तो आने वाले वर्षों में यह आयोजन मात्र औपचारिकता बनकर रह जाएगा।