नरवाई जलाना: किसानों की लाचारी या मिट्टी की तबाही?


नरवाई जलाना किसानों की आर्थिक मजबूरी बनता जा रहा है, लेकिन इससे मिट्टी की उपजाऊ शक्ति, पर्यावरण और इंसानी सेहत पर गंभीर असर पड़ रहा है। जानिए इस मुद्दे के पीछे की पूरी कहानी और संभावित समाधान।


आशीष यादव
धार Published On :

“साहब! खेत जलाना कोई शौक नहीं, मजबूरी है,” — धार जिले के एक किसान की आंखों में झांककर यह बात कोई भी समझ सकता है। गेहूं की कटाई के बाद खेत में बची नरवाई को आग के हवाले करना अब कई किसानों के लिए अंतिम विकल्प बचा है। लेकिन यह मजबूरी अब मिट्टी की सेहत और आसमान की साँस दोनों छीन रही है

हर साल मार्च-अप्रैल की गर्म दोपहरों में खेतों से उठती धुएं की लपटें केवल सूखी घास नहीं जलातीं, बल्कि मिट्टी के भीतर की वह ताकत भी भस्म हो जाती है जो अगली फसल का सहारा होती है। सरकार ने नरवाई जलाने पर सख्त पाबंदी लगा रखी है, लेकिन खेत में बुझे हुए ट्रैक्टर, डीजल की बढ़ी कीमतें और खाद-बीज की महंगाई किसानों को झुलसने पर मजबूर कर रही हैं।

 

महंगाई की मार, मिट्टी की हार

एक ओर किसान की जेब खाली है, दूसरी ओर खेत में पड़ी सूखी नरवाई को समेटने के लिए न तो पर्याप्त मशीनें हैं और न ही श्रमशक्ति। डीजल की कीमतों ने पहले ही ट्रैक्टर चलाना घाटे का सौदा बना दिया है। स्ट्रारीपर जैसे यंत्रों की बात होती है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि ज़्यादातर छोटे और सीमांत किसानों के पास इन आधुनिक संसाधनों तक पहुंच नहीं है।

 

कागज़ों में योजनाएं, ज़मीन पर आग

कृषि विभाग की ओर से हर साल “नरवाई न जलाएं” अभियान चलाया जाता है। किसानों को प्रशिक्षण देने की बातें होती हैं, पोस्टर लगते हैं, लेकिन खेतों में सुलगती आग और धुएं में घिरी फसलें इन प्रयासों की सच्चाई बयान कर देती हैं। कई बार यह आग पास के खेतों, घरों और गोदामों तक पहुंच जाती है और भारी नुकसान हो जाता है।

 

मिट्टी की मौन चीख

कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि नरवाई जलाने से खेत में मौजूद नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश जैसे पोषक तत्व जल जाते हैं। यही नहीं, मिट्टी के भीतर रहने वाले केंचुए, बैक्टीरिया और सूक्ष्मजीव भी नष्ट हो जाते हैं। परिणामस्वरूप भूमि कठोर हो जाती है और उसकी जल धारण क्षमता घटती जाती है। यह केवल एक मौसम की बर्बादी नहीं, बल्कि आने वाले कई वर्षों की पैदावार पर प्रभाव डालता है।

 

किसान क्या करें?

फिलहाल किसानों के पास विकल्प सीमित हैं। कुछ किसान कल्टीवेटर या रोटावेटर से नरवाई को जमीन में मिला रहे हैं, लेकिन यह भी हर किसी के लिए संभव नहीं। सरकारी योजनाओं में अगर इन संसाधनों को साझा उपयोग के लिए पंचायत स्तर तक लाया जाए तो बात बने। इसके अलावा, भूसा बनाने और जैविक खाद तैयार करने की विधियों को सरल और सुलभ बनाना होगा।

 

एक किसान की आवाज़

धार के एक किसान ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “फसल का भाव नहीं मिलता, खाद-बीज के दाम आसमान पर हैं, हम क्या करें? सरकार बड़े उद्योगों को राहत देती है, हमें नरवाई जलाने के लिए सज़ा क्यों?”

 


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