बसंत के रंग, उपेक्षा के संग: मालवा-निमाड़ में पलाश संरक्षण पर नहीं कोई योजना


मालवा-निमाड़ के जंगलों में हजारों पलाश के पेड़ हैं, लेकिन इनके संरक्षण और उपयोग को लेकर कोई सरकारी योजना नहीं है। हर्बल रंगों और औषधीय गुणों से भरपूर पलाश को तेंदूपत्ता की तरह संरक्षित करने की जरूरत है।


आशीष यादव आशीष यादव
धार Published On :

बसंत ऋतु का सौंदर्य और होली का उल्लास पलाश के फूलों के बिना अधूरा माना जाता है। मालवा-निमाड़ के जंगलों में हजारों की संख्या में पलाश के पेड़ मौजूद हैं, लेकिन इनके संरक्षण और उपयोग को लेकर शासन की ओर से कोई ठोस योजना नहीं बनाई गई है। औषधीय गुणों और प्राकृतिक हर्बल रंग के रूप में इसकी उपयोगिता होने के बावजूद वन विभाग ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।

 

बसंत में पलाश के फूलों से खिल उठते हैं जंगल

बसंत ऋतु के आगमन के साथ ही पलाश के पेड़ों पर लाल, केसरी और सफेद रंग के फूल खिल जाते हैं, जो दूर से दीपक की लौ की तरह चमकते हैं। यह पेड़ खेतों की मेड़ों, जंगलों और सड़कों के किनारे बड़ी संख्या में मौजूद हैं। क्षेत्रीय बोलियों में इसे पलाश, टेसू, किंशुक और परसा के नाम से जाना जाता है। भारतीय साहित्य, संस्कृति और चिकित्सा में इस पेड़ का विशेष स्थान है।

 

पलाश के फूलों से बने रंगों का उपयोग प्राचीन काल में होली खेलने के लिए किया जाता था। यह रंग पूरी तरह प्राकृतिक होते हैं और त्वचा को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते। लेकिन, केमिकल रंगों के प्रचलन के कारण इस पारंपरिक विधि को बढ़ावा नहीं मिल पाया।

 

औषधीय गुणों से भरपूर, फिर भी उपेक्षित

आयुर्वेद में पलाश के पांच अंग—जड़, तना, फल, फूल और बीज को औषधीय दृष्टि से उपयोगी बताया गया है। यह त्वचा रोगों के उपचार से लेकर सौंदर्यवर्धक उत्पादों तक में इस्तेमाल किया जाता है। इसके बावजूद शासन ने इसके संरक्षण और प्रसंस्करण के लिए कोई नीति नहीं बनाई है।

 

वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि तेंदूपत्ता संग्रहण के लिए सरकार मजदूरों को लाभांश देती है, लेकिन पलाश के फूलों के संरक्षण और उपयोग को लेकर कोई ठोस पहल नहीं की गई। यदि इसे तेंदूपत्ता की तरह संरक्षण और संग्रहण योजना से जोड़ा जाए, तो इससे पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ दोनों हो सकते हैं।

 

विलुप्त होती पारंपरिक विधियां

कभी होली के प्राकृतिक रंगों के लिए प्रसिद्ध पलाश के फूलों से रंग बनाने की परंपरा अब धीरे-धीरे खत्म हो रही है। वर्तमान समय में रासायनिक रंगों का प्रचलन बढ़ने से हर्बल रंगों की मांग कम हो गई है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि अगर सरकार हर्बल रंगों को बढ़ावा देने के लिए अभियान चलाए और केमिकल रंगों पर रोक लगाए, तो पलाश का महत्व फिर से बढ़ सकता है।

वन विभाग कर रहा प्रयास, लेकिन सरकारी योजना नहीं

धार के डीएफओ अशोक कुमार सोलंकी ने बताया कि वन विभाग ने कुछ समितियों के माध्यम से पलाश के फूलों से प्राकृतिक रंग तैयार करने का कार्य शुरू किया है। यह रंग होली के त्योहार में उपयोग किए जाते हैं और बाजार में बेचे भी जा रहे हैं। हालांकि, अभी तक सरकारी स्तर पर कोई विशेष योजना नहीं बनाई गई है।

वन विभाग की भूमि में मौजूद पलाश के पेड़ों की देखरेख की जिम्मेदारी विभाग की है, लेकिन इनके संरक्षण और संवर्धन के लिए कोई पृथक योजना नहीं बनाई गई। मालवा-निमाड़ क्षेत्र के जंगलों में पलाश के पेड़ बड़ी संख्या में हैं, लेकिन इनके महत्व को संरक्षित करने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।

 

 ये हो सकते हैं सुधारात्मक कदम?

1. पलाश संरक्षण योजना: तेंदूपत्ता की तरह पलाश के फूलों के संग्रहण और संरक्षण के लिए सरकारी योजना बनाई जाए।

2. हर्बल रंगों को बढ़ावा: केमिकल रंगों पर प्रतिबंध लगाकर, प्राकृतिक पलाश रंगों को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान चलाया जाए।

3. औषधीय उपयोग को प्रोत्साहन: पलाश के औषधीय उपयोग को बढ़ाने के लिए अनुसंधान और प्रसंस्करण इकाइयां स्थापित की जाएं।

4. वन विभाग की सक्रियता: जंगलों में पलाश के पेड़ों की सुरक्षा और नए पौधों के रोपण के लिए विशेष अभियान चलाया जाए।

5. स्थानीय लोगों को रोजगार: पलाश के फूलों से रंग और औषधीय उत्पाद बनाने के लिए स्थानीय लोगों को रोजगार से जोड़ा जाए।

 



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