पुस्तक समीक्षा
कटघरे में साँसें “भोपाल गैस त्रासदी के चार दशक”
काश यह सब झूठ होता
चिन्मय मिश्र
समकालीन इतिहास पर लिखना और उसका विश्लेषण हमेशा बेहद जोखिम भरा होता है क्योंकि उस काल के साक्षी मौजूद होते हैं। यह एक बेहद साहसिक उपक्रम भी है। विभूति झा ने भोपाल गैस कांड के चालीस बरस बाद उन जख्मों को “कटघरे में साँसे” में कुरेदने की कोशिश की है, जो अभी भी भरे नहीं हैं। ये एक किस्म से उनके जीवन के उसे दौर की डरावनी सी “आत्मकथा” भी है, भोपाल में गैस रिसने से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के आने और उसके बाद मुआवजे के बटने की शुरुआत और उसमें व्याप्त निष्ठुरता और भ्रष्टाचार के पैर जमा लेने तक के काल की। इस पुस्तक को पढ़ने से ज्यादा समझने की जरूरत है। यह गंभीर किस्म की किस्सा गोई है और इसका हर शब्द बेहद यातनादायी सच्चाई से हमें रूबरू करवाता है।
भोपाल के ही शरद बिल्लौरे की कविता है , “तय तो यही हुआ था” इसकी शुरुआत में है, “सबसे पहले बायाँ हाथ कटा/ फिर दोनों पैर लहूलुहान हुए/ टुकड़ों में कटते चले गए/ खून धक्के के खा खाकर/ नसों से बाहर निकल आया/”
“कटघरे में सांसें” इसलिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज में तब्दील हो जाती है क्योंकि इसमें जिन तथ्यों को सर्वाधिक मुखरता से उभारा है वह हैं इस त्रासदी के बाद की हमारी न्याय प्रणाली की वास्तविकता, हमारी राजनीति का वास्तविक चेहरा, कार्यपालिका की निष्ठुरता गैर सरकारी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की सीमाएं और हमारे स्वास्थ्य सेवाओं की असहायता। और इन सबसे ऊपर सन 1600 ईस्वी में स्थापित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा जिस कंपनी राज की नीव डाली गई थी, उसकी भारत में निरंतरता को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड द्वारा बनाए रखना।
भोपाल गैस कांड ने यह सिद्ध कर दिया था कि हम अपनी औपनिवेशिक मानसिक गुलामी से स्वयं को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाए हैं। विभूति झा मार्केज को उद्धत करते हुए स्वयं के बारे में लिखते हैं, “Living to tell the Tale” “कहानी कहने के लिए ही जी रहे हैं।“ यह तय है भोपाल गैस कांड को लेकर काफी महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन हो भी चुका है, लेकिन यह पुस्तक इस मामले में अनूठी है कि इसकी रचना में ऐसा बहुत कुछ सामने आता है जो अभी तक अन्यत्र नहीं लिखा गया है।
विभूति झा तब भोपाल के रहवासी थे, विभीषिका की रात इससे प्रभावित भी हुए। अगले ही दिन अनायास ही एक प्रेषक/अवलोकनकारी की तरह घर से बाहर निकलें। परंतु तुरंत ही अपनी भूमिका बदलकर एक आंदोलनकारी व सक्रिय कार्यकर्ता और अंततः त्रासदी के भुक्त भोगियों के एकमात्र स्थानीय अधिवक्ता जो की स्थानीय न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक, शिद्धत से संघर्ष करता है, रहे हैं।
शरद की कविता में आगे है,
“तय तो यही हुआ था कि मैं /कबूतर की तौल के बराबर/
अपने शरीर का मांस काटकर/ बाज को सौंप दूं
और वह कबूतर को सौंप देगा।”
यह स्वाभाविक ही है कि जब कोई अपने कार्य को समाज के सामने रखता है तो उसमें बहुत सी जटिलताएं सामने आती हैं। प्रस्तावना में दोस्तोवस्की की सलाह, “आत्म लेखन में व्यक्ति या तो आत्मप्रशंसा अथवा अति विनम्र होने की उत्सुकता में अपने को महत्वहीन दिखाने के फेर में पड़ जाता है। दोनों ही मूलतः दंभ से उपजे हैं और दोनों से ही लेखक को बचना चाहिए।”
इस सीख का इस पुस्तक में अक्षरश: पालन होता दिखता है। यह पुस्तक छोटे-छोटे सोलह अध्याय में हमारे सामने है और प्रत्येक अध्याय इस घटना के विमर्श को अगले पायदान पर ले जाता है। पहले दो अध्याय गैस रिसाव की भयानक त्रासदी को हमारे सामने लाते हैं और विभीषिका का खाका हमारे सामने आता है।
तीसरा “सरकार के सरोकार” में जो तथ्य सामने आए हैं वह तंत्र के डर और निष्ठुरता दोनों को बेबाकी से सामने लाते हैं। न्यायिक जांच आयोग के गठन से लेकर आरोपियों की पकड़ और त्वरित जमानत की गाथा स्पष्ट करती है कि शासन व्यवस्था का स्वरूप संवेदनशीलता जैसी भावना को कभी आत्मासात कर ही नहीं सकता। वह हमेशा स्वयं को सही सिद्ध करता है। यहीं पर सोलेझिस्तीन की अमर कहानी “We Never Makes Mistake” (हम कभी गलती नहीं करते) की याद हो आती है। भारतीय प्रशासन भी कभी गलती कर ही नहीं सकता। “जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा” के गठन की प्रक्रिया स्पष्ट करती है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों में अपने-अपने “कंपार्टमेंट” हैं और उससे बाहर निकल पाना बहुत कठिन होता है। इस वाक्य पर गौर करने से यह बात समझ में आ जाती है, “बैठक में शामिल लोगों के बीच मतभेद प्राथमिकताओं का था।
आंदोलन या अनुसंधान। हम सभी स्थानीय लोगों का मानना था, कि आंदोलन के बिना केवल अनुसंधान का कोई औचित्य नहीं है और ना ही उसका कोई त्वरित लाभ प्रभावितों को मिल सकता है। अनुसंधान और प्रयोग का विरोधी कोई नहीं था, लेकिन इस समय इसकी प्राथमिकता नहीं थी।” भयानक त्रासदी के दौर में भी एकमत ना हो पाना भारतीय नागरिक संस्थाओं की बदहाली का प्रमुख कारण है। “हमें ही सोचना है, हमें ही लड़ना है, ये हमारी ही लड़ाई है। यही सच्चाई है। “ यह पुस्तक कमोवेश हमारी “ही” लड़ाई बनाम हमारी “भी” लड़ाई जैसे अंतरद्वंदों की दास्तानगोई भी है।
पुस्तक परत दर परत सरकारी ठंडेपन को भी हमारे सामने लाती है। इस नरसंहार के आठवें दिन संयंत्र को पुनः प्रारंभ (बची गैस का उपयोग हेतु) करने का विवरण समझता है, “मुख्यमंत्री एक और कह रहे थे कि, “भोपाल को खतरा नहीं है” और दूसरी ओर भोपाल से बाहर ले जाने के लिए विशेष बसों का इंतजाम सरकार की ओर से किया जा रहा था। सरकारी दफ्तरों में विशेष आकस्मिक अवकाश की व्यवस्था भी जारी की जा रही थी। “अब पाठक स्वयं अपनी कल्पना दौडाएं। इसी क्रम में महत्वपूर्ण अध्याय है “जन आंदोलन”/ हताश, बीमार और अपने प्रियजनों को खो देने वाले समाज को कैसे संघर्ष के लिए खड़ा किया गया या जा सकता है। यह वर्णन वास्तव में बेहद रोमांचक है। पूरी तरह से नैराश्य में डूबा समाज कैसे एकजुट होकर संघर्षशील हो जाता है, वह भी विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के महज तीन हफ्ते बाद यह प्रक्रिया समझना बेहद महत्वपूर्ण है। साथ ही इस संगठन विघटन भी सबक लेने का विषय है। इस पुस्तक का एक बेहद सधा हुआ हिस्सा है गैस रिसाव से स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव, भोपाल में अस्पतालों व स्वास्थ्य कर्मियों की भूमिका तथा आई सी एम आर द्वारा सन 1984 से सन 1989 तक किए गए शोध, उनकी रिपोर्ट और बिना कारण बताएं शोध को बंद कर देना। जबकि यह तय हो चुका था कि संक्रमण पीढ़ी दर पीढ़ी चल सकता है। शोध बंद करने के पीछे क्या हृदयहीनता नहीं थी? ऐसा तब किया गया जबकि लगातार वर्ष दर वर्ष मरीज बढ़ रहे थे और पुराने मरीजों की समस्याएं और भी गंभीर होती जा रही थीं।
कविता की अगली पंक्तियां और भी प्रासंगिक हो जाती हैं,
“सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था/ शरीर का एक बड़ा हिस्सा और तराजू पर था,
और कबूतर वाला पलड़ा फिर भी नीचे था
हार कर मैं /समूचा ही तराजू पर चढ़ गया।।”
पूरा भोपाल शायद इसी तरह तड़प रहा था। परंतु दूसरी ओर तोल मोल और मोल भाव करना भी शुरू हो गया था। यह पुस्तक इस प्रक्रिया पर भी भरपूर प्रकाश डालती है। साथ ही जांच आयोग के नाम पर भोपाल और देश की जनता को जिस तरह धोखे में रखा वह वर्णन भी बेहद रोमांचक है। वस्तुतः आयोग तो केंद्र सरकार को गठित करना था, क्योंकि यूनियन कार्बाइट का गठन तो उन्हीं से समझौते के आधार पर हुआ था। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा गठित आयोग का गठन, कार्य निष्पादन और बीच में ही विघटन बहुत कुछ समझा देता है। इस बीच अमेरिका से बड़ी कानूनी फार्मों के “एम्बुलेंस चेंजर” भी भोपाल पहुंच गए थे। इस त्रासदी पर अपना स्वार्थ साधने का यह घृणित कृत्य भी इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
कटघरे में साँसें का संभवत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्याय है, “अंतरिम मुआवजा – अंतरिम जीत” गैस रिसाव के कुछ दिनों के भीतर ही अमेरिका के नामी वकील भोपाल “पधार” गए थे और पीड़ितों की बस्तियों में स्थानीय वकीलों की मदद से मुआवजा आदि के लिए वकालतनामे भरवा रहे थे जो एकतरह से आंख में धूल झोंकने जैसा था। इस बीच सरकार ने एक असाधारण कदम उठाते हुए एक अध्यादेश 20 फरवरी 1985 को, “भारत गैस विभीषिका (द्वारा कार्यवाही) अध्यादेश, 1985” जारी कर दिया। बाद में इसे कानून में भी परिवर्तित कर दिया। इस विचित्र एवं निष्ठुर पहल के माध्यम से भारत सरकार ने यह अधिकार प्राप्त कर लिया कि वह गैस पीड़ितों की एकमात्र प्रतिनिधि होगी। किसी भी (जी हां किसी भी) गैस पीड़ित को यह अधिकार नहीं होगा कि वह स्वयं कोई दावा या मुकदमा कंपनी के खिलाफ कर सके। इस कानून के दुष्परिणाम अभी भी गैस पीड़ित भुगत रहे हैं। परंतु या रोचक है कि गैस पीड़ितों के संघर्ष और सत्यता ने जिला न्यायालय को इतना साहस दिया कि उसने इसको “बायपास” कर गैस पीड़ितों के पक्ष में असाधारण निर्णय दिया। यह पूरा मुकदमा विभूति झा ने अदालत में लड़ा था और यही गैस पीड़ितों की संभवतः पहली और आखिरी परिपूर्ण विजय थी।
गौरतलब है स्वतंत्र भारत के इतिहास में संभवत: पहली बार किसी जिला अदालत में भारत के अटॉर्नी जनरल और सालिसिटर जनरल दोनों और कार्बाइड की ओर से फली एस. नरीमन उपस्थित थे। इसके बावजूद फैसला पीड़ितों के पक्ष में आया। जिला न्यायालय ने 350 करोड़ रु. का अंतरिम मुआवजा दिया उसी दौरान कार्बाइड के प्रतिनिधि होलमन ने विभूति झा को यह प्रस्ताव दिया था। “मिस्टर झा दिस न्यूली कंस्ट्रक्टेड हाउस विल भी फिल्ड विद डॉलर्स।” प्रस्ताव यह था कि न्यायालय द्वारा स्वीकृत राशि न्यायालय में न रखकर उनके घर में रख दी जाए यानि 350 करोड रु.। जवाब जानने के लिए पुस्तक को पढ़ना जरूरी है।
शरद की कविता का अंतिम पंक्तियां हैं,
“आसमान से फूल नहीं बरसे/कबूतर ने कोई दूसरा रूप नहीं लिया,
और मैंने देखा /बाज की दाढ़ में
आदमी का खून लग चुका है।”
पुस्तक भारतीय न्याय व्यवस्था का जो वास्तविक चित्र हमारे सामने लाती है, वह सचमुच हैरान कर देता है। गैस पीड़ितों की सहमति के बिना भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड में आपसी समझौता और कंपनी के अधिकारियों पर से आपराधिक प्रकरण समाप्त करना। भारतीय न्यायिक इतिहास को कलंकित करने वाला दिनांक 14 और 15 फरवरी 1989 का यह आदेश गैस पीड़ितों ओर उनके ओर से निरंतर संघर्ष कर रहे संगठन और लोगों के लिए कभी न भरने वाला गहरा घांव छोड़ गया। “यूनियन कार्बाइड के कारखाने से गैस रिसाव से पहले विभीषिका 3 दिसंबर 1984 की थी और दूसरी 14/15 फरवरी 1989 की।” वास्तव में इसके बाद की न्यायालयीत गतिविधियां बेहद दुखदाई प्रतीत होती हैं।
इस पुस्तक की यह पंक्तियां आंख खोलती हैं, “चार मई, 1989 का आदेश प्रसारित करने के कुछ ही समय बाद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस आर.एम.पाठक अंतरराष्ट्रीय न्यायालय “दी हेग” के स्थायी न्यायाधीश बन गए।” इसी क्रम में आगे वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.आर.कृष्णअय्यर का कथन उद्धत है. “जनसाधारण में यह भ्रांति है कि न्यायालयों द्वारा न्याय प्रदान किया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि हमारे न्यायालय अन्याय के प्रतीक है।” न्यायमूर्ति की बात को आगे बढ़ते हुए विभूति झा लिखते हैं, “न्याय व्यवस्था में न्यायपालिका के जितने उच्च स्तर पर जाएं, अन्याय उतना ही बढ़ता जाता है।” पुस्तक में भोपाल एक्ट की संवैधानिकता और उसे दौरान हुआ घटनाक्रम/निर्णय आदि की विवेचना बेहद सारगर्भित ढंग से की गई है। इससे यह पता चलता है कि समझौते वाला निर्णय क्यों जल्दबाजी में लिया गया।
भारत सरकार एक ही विषय पर चल रहे दो मुकदमों में क्यों विरोधामासी रुख रखती है? इसके पश्चात मुआवजे के बंटवारे में धांधली, भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था की क्रूरता को बड़ी स्पष्टता से सामने लाता है।
यह पुस्तक लेखक की अपनी स्मृति के सबसे दुखद पक्ष का सिंहावलोकन भी है। प्रस्तावना में उन्होंने ग्रेब्रियल गार्सिया मार्कोज को उद्धत करते हुए लिखा भी है, “जीवन वह नहीं होता जो कोई जीता है, बल्कि व्यक्ति क्या याद रखना है और उसका दोबारा बयान करते हुए उसे कैसे याद करता है, होता है। यह पूरी किताब वस्तुतः एक डरावने स्वप्न की तरह हमारे सामने आती है और हम सहसा प्रार्थना सी करने लगते हैं कि, “काश यह झूठ होता” । पर यह एक ऐसे सच की तरह सामने आता है जिससे हमारी विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका, तीनों, अभी तक आंख नहीं मिला पा रहे हैं। पीथमपुर के जहरीले कचरे के निपटान की कार्यवाही इसी के प्रमाण के रूप में हमारे सामने है। कुल मिलाकर यह पुस्तक एक विभीषिका का दुखभरा लेकिन तथ्यपरक कठोर सच से भरा बयान है और हम सबको भारत में सतत यातना झेल रहे और पूरे देश के पर्यावरण के दूषित और जहरीले होते जाने के प्रति सचेत कर रही है।
अंत में लेखक की भोपाल के नागरिकों द्वारा गैसपीड़ितों की उपेक्षा से उपजी पीड़ा पर निदा फ़ाज़ली की पंक्तियां विभूति झा के लिए अपने पर बनी फिल्म “यह कहाँ आ गए हम” में वह कहते हैं, “शहर जाने वाले का कुछ दिन रास्ता देखता है और जब जाने वाला वापस नहीं लौटता तो शहर खुद अपनी जगह से दूर चला जाता है। और जब लौटने वाला वापस आता है तो इतनी देर हो चुकी होती है कि उसका शहर अपने ही शहर में नहीं मिलता।” लेखक का मूल भोपाल भी कहीं खो गया है।
पुस्तक : कटघरे में साँसे, भोपाल गैस त्रासदी के चार दशक
लेखक-विभूति झा
प्रकाशन-प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, भारत
मूल्य – 360 /-