पेट के लिए पलायन जरूरी है, कोई वोट डालकर पेट नहीं भरा जा सकता दो वक्त की रोटी के लिए मजदूरी भी जरूरी है…
ये आदिवासी इलाके में पलायन करते मजदूर का दर्द है और पलायन उस समय हो रहा है जब वहां लोकसभा चुनाव जारी हैं। सरकार मतदान प्रतिशत बढ़ाने की बात करती है मगर जमीनी स्तर पर जिले से कई ऐसे मजदूर अन्य प्रदेशों में पलायन कर चुके हैं जो अपनी रोजी-रोटी को ज्यादा बड़ा संकट मानते हैं बजाए अपना सांसद चुनने के, क्योंकि अब तक उनका यह चुनाव उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं ला सका है।
धार, झाबुआ और अलीराजपुर जैसे इलाकों में आज भी कई ग्रामीण अन्य जिलों में पलायन करते हुए नजर आ जाएंगे। इन मजदूरों को रोकने के थोड़े बहुत प्रयास भी हो रहे हैं लेकिन अधिकारियों के लिए यह मुश्किल काम है। अन्य दिनों की बात करें तो इस पलायन को रोकने के लिए केवल खानापूर्ती ही होती है।
धार जिले में आंकड़ों की बात करें तो अभी भी सरकारी अधिकारी पलायन कर चुके मजदूरों का आंकड़ा तकरीबन 10 हजार बता रहे हैं लेकिन जमीनी स्तर पर यह आंकड़ा इससे चार गुना ज्यादा है।
जिले में आदिवासी अंचल में रोजगार के पर्याप्त साधन नहीं होने के कारण यह दिक्कत है। यहां आज भी आजादी के बाद आदिवासी क्षेत्र में कोई बड़े उद्योग व बड़ी कंपनियां नहीं है, ऐसे में कोई रोजगार नहीं है और धार जिले के लोग दूसरे शहरों या प्रदेशों में जाकर काम कर रहे हैं।
पिछले काफी समय से रोजगार की तलाश में निकले ग्रामीणों के पलायन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। राज्य सरकार के द्वारा स्थानीय स्तर पर काम उपलब्ध कराने के कई दावों के बावजूद हर रोज सैकड़ों की संख्या में जिले के अलग अलग इलाकों से ग्रामीण रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं।
पलायन करने के पीछे एक अहम वजह खराब मौसम से फसल बर्बाद होना और उसका कोई ठोस मुआवजा न मिलना भी है।
मप्र के कई जिलों में पलायन एक बड़ी और गंभीर समस्या है लेकिन इसके बावजूद सरकार इसे लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है।
पश्चिमी मध्यप्रदेश के इन आदिवासी जिलों से बड़ी संख्या में लोग पीथमपुर में भी मजदूरी करते हैं लेकिन यहां सभी को रोजगार नहीं मिलता।
क्योंकि उद्यमी स्थानीय लोगों की संख्या बढ़ाकर किसी तरह का असंतुलन नहीं बनाना चाहते ऐसे में पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में दूसरे प्रदेशों के लोगों की संख्या स्थानियों के मुकाबले ज्यादा है।
चुनाव में समय इन मजदूरों को वापस लाने का प्रयास भी प्रशासन की ओर से किया जा रहा है। हालांकि विडंबना यह है कि एक तरफ गुजरात जाकर मजदूरों को मतदान के लिए वापस लाने की तैयारी है तो दूसरी ओर डही के साथ कुक्षी , बाग, गंधवानी, सरदारपुर, राजगढ़, मनावार, धरमपुरी, सहित अन्य तहसीलों से अनेक बसों में प्रतिदिन मजदूर गुजरात व अन्य प्रदेश जा रहे हैं। शादी-ब्याह के लिए जो गांव और रिश्तेदारी में आए थे, वे भी शादियों का सीजन खत्म होते ही जाने लगे हैं। प्रशासन और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों की ओर से फिलहाल इन मतदाताओं को यहां रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन यह काफी नहीं हैं।
जनपद सीईओ को किया आदेशित: पिछले दिनों जिला पंचायत से एक आदेश निकाला गया था, जिसमें धार जिले की 13 जनपद पंचायतों के सीईओ को अपने जनपद से पलायन कर चुके मतदाताओं की जानकारी लेकर उनको मतदान के लिए प्रेरित करने के लिए कहा गया है। यह अधिकारियों के लिए बेहद कठिन साबित हो रहा है। वे लोगों के पास जाकर उन्हें समझा तो रहे हैं लेकिन यह काफी नहीं है क्योंकि लोग उनसे भी रोजगार और अपने नुकसान की भरपाई मांगते हैं।
ऐसे में ये ग्रामीण मतदान के लिए कैसे आएंगे यह बड़ा सवाल है। और जाहिर है कि अगर मतदान के लिए इन्हें बुलाया जाता है तो उन्हें अपनी ही जेब से खर्च करना होगा। ऐसे में उनका आना मुश्किल दिखाई देता है।
रोजगार के लिए ग्रामीणों का अन्य राज्यों में पलायन मतदान प्रतिशत बढ़ाने में चुनौती बना हुआ है, जिन्हें वापस बुलाने के लिए जिले से पांच सौ किमी दूर जाकर अधिकारियों ने मजदूरों को वोटिंग का निमंत्रण दिया। गुजरात के जामनगर में कई मजदूर काम के लिए गए हैं। बाग जनपद के दल ने तीन दिन तक ग्रामीण मजदूरों से संपर्क कार्य किया। आंकड़ों के अनुसार बाग ब्लॉक से 2126 मजदूर रोजगार के लिए पलायन कर गए हैं।
सरकारी कामों में मशीनों का इस्तेमाल: जहां एक और प्रदेश सरकार मनरेगा में मजदूरों की मजदूरी समय पर नहीं डालती है। वहीं कहीं आदिवासी अंचलों में आज भी गरीब मजदूरों का काम जेसीबी कर रही है। जिले की कई जनपदों में अधिकांश पंचायतों व आरईएस विभाग , वन विभाग व सहित तमाम विभाग जो ग्रामीण स्तर पर लोगों को रोजगार देते हैं वे आजकल मशीनों के सहारे हैं। उनके मुताबिक मनरेगा से काम करवाना पेचीदा हो चला है। ऐसे में मनरेगा मजदूरों का कोई काम नहीं बचा है और जो काम उन्हें मिल रहा है वह बस कागजों पर है।
हालांकि जो मजदूर लाए जा रहे हैं या लाने का प्रयास हो रहा है उन्हें लेकर भी अभी तक यह तय नहीं है कि इन्हें लाने और वापस छोड़ने की व्यवस्था कैसे होगी। 13 मई को वोट पड़ेंगे। ऐसे में मजदूरों को एक दिन पहले 12 मई को आना है और 14 को वापस लौटना होगा। इस तरह तीन दिन उनकी मजदूरी प्रभावित होगी। इसके साथ ही आने-जाने में जो पैसा खर्च होगा। उसकी भरपाई कैसे और कौन करेगा, यह सवाल खुद अधिकारियों के सामने भी है।
आधाई पर मिलती है वहां जमीन: जिले के अधिकांश मजदूर गुजरात में पलायन इसलिए करते हैं क्योंकि इन्हें वहां लोग आधाई यानी किराए पर खेती दे देते हैं। जिसमें इनको अच्छा लाभ मिलता है इसलिए वह चार महीने गुजरात में ही रहते हैं तो कुछ लोग तो साल भर के लिए वहीं अपना ठिकाना बना लेते हैं और बस तीज त्यौहार पर ही अपने घर आते है। इनके मुताबिक वहां मजदूरी हो या खेती मुनाफा ज्यादा मिलता है।
जिले में हर रोज सैकड़ों की संख्या में लोग पलायन कर रहे हैं। भाजपा सरकार नही चाहती है कि आदिवासी लोग वोट करें इसलिए पलायन को लेकर ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। निर्वाचन आयोग को इस ओर ध्यान देकर पलायन को रोकना चाहिए, जिससे आदिवासी भाई मतदान कर सकें। सरकार को आदिवासी इलाकों में उघोग स्थापित करना चाहिए ताकि उनको रोजगार मिल सके और अन्य प्रदेशों में नहीं जाना पड़े। उमंग सिंघार, नेता प्रतिपक्ष