किसान आंदोलन के मैनेजमेंट सबक!


कई विद्वान मानते हैं कि इन बिलों के अधिकांश प्रावधान किसान विरोधी नहीं बल्कि उनके हित में हैं । आढ़तिये कोई दूध के धुले नहीं हैं । महाजनों द्वारा बही खातों में अंगूठा लगवा कर किसानों की जमीन हड़पने के कई किस्से हम आदिकाल से सुनते पढ़ते आ रहे हैं। सब जानते हैं मंडी में किसान को जो भाव मिलता है , ग्राहक तक पहुंचते वह 5 से 10 गुना हो जाता है । फिर मंडी और आढ़तिये अचानक किसानों के हितेषी कैसे हुए?


संजय वर्मा
अतिथि विचार Updated On :

निर्णय लेना हम इंसानों को खुशी देता है । जब हम निर्णय लेते हैं , तो उस समय पावरफुल महसूस करते हैं ,खासतौर पर तब , जब वह किसी और इंसान या समूह की जिंदगी से जुड़ा हुआ निर्णय हो । यह परमात्मा होने जैसा है , उस समय हम दूसरों की जिंदगी के विधाता होते हैं । यह मज़ा ओर उसकी चाहत सहज मानवीय दुर्बलता है । मगर जब आप किसी ऊंचे पद पर होते हैं तब इस मजे की बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है । एक प्रोफेशनल मैनेजर या लीडर को अपनी इस दुर्बलता पर काबू पाना चाहिए । कृषि बिलों पर उपजे हालिया आंदोलन से हम यह सबक सीख सकते हैं।
मोदी सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया में हमेशा ही एक शॉक एलीमेन्ट होता है । वे हौले हौले नदी का प्रवाह नहीं बदलते , बादल की तरह फट जाते हैं ! अचानक ! अक्सर शक होता है इस फैसले का उद्देश्य सुधार की चाहत थी ,या बस पीछे से अचानक आकर धप्पी बोल कर चौंका देने का बचपना ! अचानक नोटबंदी , अचानक लॉकडाउन , अचानक जीएसटी ! आज रात 8:00 बजे से …! फैसले का मकसद फैसला था या फैसला करते हुए दिखने की चाहत और उसका मजा ? क्या वे उस समय विधाता होने का सुख ले रहे होते हैं ? ऐसे में कोई अच्छा फैसला भी लोगों को नाराज कर सकता है । शायद कृषि कानूनों के साथ भी ऐसा ही हुआ।
मैं कोई कृषि विशेषज्ञ नहीं हूं । इसलिए इस लेख का उद्देश्य कृषि बिलों की समीक्षा करना नहीं है । यह लेख सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया में जो फ़ेलूयर हुआ उसे मैनेजमेंट के एंगल से समझने की कोशिश है।
कई विद्वान मानते हैं कि इन बिलों के अधिकांश प्रावधान किसान विरोधी नहीं बल्कि उनके हित में हैं । आढ़तिये कोई दूध के धुले नहीं हैं । महाजनों द्वारा बही खातों में अंगूठा लगवा कर किसानों की जमीन हड़पने के कई किस्से हम आदिकाल से सुनते पढ़ते आ रहे हैं। सब जानते हैं मंडी में किसान को जो भाव मिलता है , ग्राहक तक पहुंचते वह 5 से 10 गुना हो जाता है । फिर मंडी और आढ़तिये अचानक किसानों के हितेषी कैसे हुए ?
यह सच है कि कारपोरेट भी अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकता है , मगर कानून के राज में वह झूठे बही खाते तो नहीं बना सकता । उसे कम से कम कागज का पेट तो भरना ही पड़ता है । रही बात एमएसपी की तो इस पर भी बहस होना चाहिए कि एमएसपी से देश या किसानों को कितना फायदा हुआ है । इस प्रणाली की समस्याएं हैं। कई विद्वानों का मानना है इसकी वजह से गैरजरूरी फसलों का अधिक उत्पादन होता है। फिर यह आखिरकार उसी तरह की सब्सिडी है , जिससे भारत को आज नहीं कल बाहर निकलना होगा । इससे खरीदा अनाज उसी भ्र्ष्ट और नाकारा पब्लिक डिसटीब्यूशन सिस्टम में जाता है जिससे निजात पाने का वक्त आ गया है।
टेक्नोलॉजी ने डायरेक्ट कैश ट्रांसफर को आसान बना दिया है। आज नहीं कल भारत को गरीबों के खाते में सीधे कैश ट्रांसफर कर सभी तरह की सब्सिडीयां बंद करनी होंगी । ऐसे में एमएसपी क्यों रहे ! यदि किसान गरीब है तो उसके खाते में सीधे ही पैसा क्यों न दे दिया जाए , बजाय एमएसपी के घुमावदार तरीके के ! गुरचरण दास कहते हैं कि यह 1991 जैसा ऐतिहासिक पल है।
1991 में जब बाजारों को विदेशी कंपनियों के लिए खोला गया तब घरेलू उद्योग जगत में उसी तरह के डर और आशंकाएं थीं, जैसी फिलहाल किसान समुदाय में हैं । लोगों ने कहा घरेलू उद्योग बर्बाद हो जाएंगे , मगर इसका उल्टा हुआ । उन सुधारों की बदौलत आज वह भारत जिसमें टेलीफोन कनेक्शन के लिए मंत्री की सिफारिश लगानी पड़ती थी , उसी भारत में चौराहों पर मोबाइल कनेक्शन दिए जा रहे । हैं । एक मामूली स्कूटर खरीदने के लिए लोग अपने विदेशी रिश्तेदारों की चिरौरी करते थे ताकि 7 साल का वेटिंग टाइम घटकर 7 महीने हो जाए । आज उसी भारत में सड़क पर झाड़ू लगाने वाला मजदूर भी मोटरसाइकिल पर बैठकर आता है।
इस भूमिका के लिए क्षमा ! यह इसलिए जरूरी थी कि यदि ये बिल किसानों के हित में थे तो मोदी सरकार ने ऐसी क्या गलती की जो आज लाखों किसान सड़कों पर हैं । मेरे प्रिय मैनेजमेंट गुरु शरू रांगनेकर कहते हैं , हर इंसान पावरफुल महसूस करना चाहता है । दूसरों पर अधिकार स्थापित करना चाहता है। यह पावर हम 3 तरीकों से हासिल करते हैं । पहला पदानुक्रम या हायरार्की से । मसलन एक सरकारी अधिकारी का अपने मातहत पर पावर या अधिकार उसके पद की वजह से मिलता है । वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को जैसा चाहे वैसा करने के लिए मजबूर कर सकता है ।
दूसरा तरीका होता है पावर ऑफ एक्सीलेंस ! जब हम किसी काम में दूसरों के मुकाबले अधिक दक्ष होते हैं , तो हमें अपने आप ही दूसरों पर अधिकार मिल जाता है । सब हमारी बात सुनते और मानते हैं , क्योंकि हम उस विषय के मामले में ज्यादा जानते हैं।
लेकिन एक तीसरे किस्म का पावर भी होता है । वह पावर अक्सर मां के पास होता है उसका नाम है पावर ऑफ कंसर्न । मां न तो पदानुक्रम में परिवार में ऊपर होती है ,और ना ही वह किसी विषय विशेष में दूसरों से अधिक ज्ञान या हुनर रखती है । लेकिन फिर भी घर के ज्यादातर सदस्य उसका आदेश मानते हैं । वे जानते हैं कि उनकी मां उनसे प्यार करती है और हर हाल में उनका भला चाहती है । जब हम किसी को यह एहसास करा देते हैं कि हम सचमुच उसका भला चाहते हैं तो वह हमारी सत्ता को स्वीकार कर लेता है । यह प्रेम की ताकत है । भावनाओं की सत्ता है।

 

किसी छोटी कम्पनी का बॉस हो या भारत जैसे बड़े देश का मुखिया सबको याद रखना चाहिए कि सबसे अच्छा अधिकार तब स्थापित होता है जब लोग माने कि आप उनका भला चाहते हैं । मेरे प्रिय मित्र मैनेजमेंट गुरु संदीप अत्रे

Sandeep Atre

कहते हैं – people do not care how much you know untill they know how much you care ..!

यह केयर, यह कंसर्न वह बात है जहां मोदी सरकार चूक गई । उन्होंने इस निर्णय को अपने पदानुक्रम के अधिकार से इस्तेमाल करना चाहा । ठीक वैसे ही जैसे कोई मिलिट्री का जनरल अपने सैनिकों पर इस्तेमाल करता है । मगर वह भूल गए कि भले ही आप लोगों का भला कर रहे हो तब भी उन्हें यह जतलाना और फिर उनका यह मानना जरूरी है कि आप सचमुच उनका भला चाहते हैं । शायद सत्ता के अहंकार ने उन्हें इस बात की जरूरत ही महसूस नहीं होने दी । बेशक वे किसानों के भले के बारे में बेहतर जानते हों ,लेकिन किसानों का यह जानना भी जरूरी था कि वे उनका भला चाहते हैं।
आप अपने घर या ऑर्गेनाइजेशन में जब कोई निर्णय लें ,तो मोदी सरकार जैसी भूल मत कीजिएगा।