हाथरस में जो हुआ वह न तो इस तरह का पहला हादसा है ना आखिरी। हर बार अखबारों के पन्ने रंगे जाते हैं टीवी पर एंकर चीखते हैं । पुलिस को निकम्मा और सरकार को अपराधी करार दिया जाता है । हम आम लोग कभी मोमबत्ती जलाकर कभी – हे भगवान, कितना बुरा समय आ गया है ! जैसे कुछ जुमले बोलकर , अपनी आरामफ़हम जिंदगी में लौट जाते हैं , किसी दूसरे हादसे की खबर तक !
दो हादसों के दरमियानी वक्त में हमें सोचना चाहिए कि हर हादसा एक लंबे सिलसिले की आखिरी कड़ी होता है । जिस जहरीली बेल का यह फल आपको अचानक दिखता है उसका बीज बहुत पहले कहीं आपने ही बोया होता है । आपने ही जाने-अनजाने उसे खाद पानी भी दिया है । फिर आप क्यों हैरान होते हैं ?
इस हादसे को ही लीजिए । इस तरह के अपराधों की जड़ में तीन बातें होती हैं । जाति का अहंकार , औरतों को पुरुषों से कमतर और इस्तेमाल चीज़ समझना और तीसरा यौन कुंठाऐं ! ये प्रश्न राजनीति के नहीं समाज शास्त्र के हैं । हम इसलिए इन से बचते हैं ।
हाथरस के जुर्म को ही लीजिए क्या इसकी बुनियाद , ‘जाति’ जैसी प्रथा पर नहीं रखी है ? क्या आप नहीं जानते कि आप उस समाज का हिस्सा हैं , जो यह मानता है कि व्यक्ति अपने जन्म की वजह से ऊंचा या नीचा हो सकता है ! एक खास जाति में पैदा हुआ व्यक्ति दूसरी जाति के व्यक्ति पर अधिकार रखता है , जो खेतों में बेगार करवाने से लगाकर उसकी बहन बेटियों पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है , सिर्फ अपनी जरूरत के लिए ही नहीं , कभी-कभी तो बस उन्हें उनकी ‘औकात’ दिखाने के लिए भी !
हम यह भी जानते हैं कि इन हादसों के दरमियानी वक्त में ‘उन्हें’ , ‘उनके’ कुंओं से पानी नहीं भरने दिया जाता ! उन्हें बारात निकालने ,मंदिर जाने ,यहां तक की पंगत में घी के इस्तेमाल जैसी छोटी मोटी बातों की भी इजाजत नहीं है । मौजूदा राजनीति इस विष बेल का इस्तेमाल भले ही करती हो पर यह बेल हमने खुद ही बोई थी और सैकड़ों बरसों से हम इसे खाद पानी भी हम ही दे रहे हैं । फिर हम अपनी जिम्मेदारी से कैसे भाग सकते हैं ?
मेरे एक नेता मित्र से गांव का सरपंच और उपसरपंच मिलने आए । उप सरपंच महोदय मित्र के साथ कुर्सी पर बैठे और सरपंच जमीन पर ! मित्र ने बहुत कहा कि आप कुर्सी पर बैठिये पर वह नहीं माने । उपसरपंच ने खुलासा किया – यह हमारे साथ ऊपर नहीं बैठ सकते !
यहां राजनीति ने पद आरक्षित कर दिया मगर समाज ने ओहदा नहीं माना ।
राजनीति को हर बात पर कोसने वाले लोग अपने बच्चों के किसी दूसरी जाति में शादी करने के विचार मात्र से दहल जाते हैं । खास तौर पर यदि उनकी बेटी प्रेम करे तो बात उनके ‘ऑनर’ पर आ जाती है , जिसके लिए ‘किलिंग’ भी की जा सकती है । अपने आसपास देखिए हर आदमी अपनी जाति के नाम पर बने किसी न किसी क्लब का सदस्य है । जाति के गौरव गान के लिए इतिहास के पन्नों से नई नई कहानियां खोजी और गढ़ी जा रही हैं । ऐसा माना जाता था कि जाति की बुराई सिर्फ गांव में है मगर जाति के संगठन शहरों में भी बढ़ते जा रहे हैं ।
यहां तक कि निचली कही जाने वाली जातियों में ,जिन्होंने इस जाति प्रथा की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, वह भी जाति को मिटाने के बजाय अपनी जाति के संगठन बनाकर आपस में भी ऊंच-नीच करने लगे हैं। मोटरसाइकिल और कारों पर नए किस्म के स्टीकर दिखाई देने लगे हैं जिन पर अपनी जाति की घोषणा गर्व से की गई होती है । अंबेडकरवादी राजनीति का मकसद तो जाति को खत्म करना था मगर जाति की जड़े शायद हमारे मन में इतने गहरे गड़ी हैं कि वे खुद अब एक नया जाति समूह बनते जा रहे हैं।
हम जो इन हादसों के बाद में मोमबत्ती जुलूस में शामिल होते हैं लौट कर अपने घर की महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते । हमारी सामाजिक व्यवस्था , हमारा व्यवहार , हमारी भाषा , सब कुछ औरतों को उपभोग की वस्तु मानती है । जाहिर है ऐसे पारिवारिक वातावरण में पले बढ़े बच्चे जब बड़े होते हैं तो उन्हें औरतों के साथ इस तरह का व्यवहार सामान्य लगता है। यही हाल यौन संबंधी बातचीत का है । सेक्स को हमने टैबू बना रखा है । उसे लेकर कोई बातचीत नहीं होती । एक जवान हो रहा लड़का अपने तईं इस जटिल सवाल को हल करने की कोशिश करता है ,और अक्सर उसके हाथ आधा आधा अधूरा , उलझन बढ़ाने वाला ज्ञान ही मिलता है । तरह तरह की बंदिशें लगा कर हमने एक बहुत बड़ी आबादी को यौन कुंठाओं का जीता जागता बम बना दिया है जो चिंगारी लगते ही फट जाता है । एक स्वस्थ यौन जीवन शायद इस तरह के अपराधों को कुछ हद तक कम कर सके ।
आजादी की लड़ाई के दौरान भगत सिंह गांधीजी अंबेडकर समेत कई नेता मानते थे कि अंग्रेजों के चले जाने भर से सब कुछ ठीक नहीं हो जाएगा । सामाजिक क्रांति के बगैर राजनीतिक क्रांति अधूरी ही रहेगी । वैसा ही हुआ । यह सामाजिक क्रांति हम सदियों से मुल्तवी करते आ रहे हैं । संविधान की धारा आर्टिकल 15 कहती है – कि जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता , मगर जमीन पर इसका कोई खास असर नहीं दिखाई देता । शायद यह सामाजिक सुधार का मामला ज्यादा है जिसे अकेले राजनीतिक औजारों से पूरी तरह हल नहीं किया जा सकता । इस तरह की घटनाओं के बाद ठहर कर सोचना चाहिए कि आखिर क्यों भारत सदियों से जाति और छुआछूत के जंजाल से नहीं निकल पाया । बताते हैं यूरोप भी चौथी सदी से लगाकर लगभग एक हज़ार साल तक इसी तरह के अंधविश्वासों में उलझा हुआ था । इसे वे अपना अंधकार युग कहते हैं । फिर वहां धार्मिक सुधार आंदोलन हुआ , और उसे वैज्ञानिकों कलाकारों ने रेनेसां नामक सांस्कृतिक पुनर्जागरण अभियान चलाकर सहारा दिया । इस तरह यूरोप पुराने अंधविश्वासों की जकड़न से निकलकर ज्ञान विज्ञान की रोशनी में दमकने लगा ! शायद यही वजह थी कि उन्होंने अपने ज्ञान विज्ञान तकनीक के दम पर आधी दुनिया पर राज किया ।
हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं हुआ ? यहां पर भी कबीर जैसे संत लगभग उसी काल में हुए जिन्होंने जाति और तमाम सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अभियान छेड़ा , पर हमने कबीर के बदले तुलसी का रास्ता चुना । तर्क के बजाय भावना को महत्व दिया । शायद यही वह ऐतिहासिक पल है जहां से हिंदुस्तान बदल सकता था । हमने वह मौका गंवा दिया !
इसलिए सरकार और पुलिस को कोसने से कुछ नहीं होगा । हर बार इस तरह की हादसों के बाद आप नेताओं को दोष देते हैं मगर चुनाव में फिर अपनी ही जाति के नेता को वोट देकर आते हैं । जाति के आधार पर ऊंच-नीच और छुआछूत का विरोध कीजिए । मोमबत्ती जलाकर जुलूस में शामिल होने से कुछ नहीं होगा । रोशनी की असल जरूरत आपके भीतर है। आपके दिमाग के अंधकार भरे तहखाने में! वहां उजाला कीजिए ,बाहर अपने आप सब कुछ ठीक हो जाएगा।