हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस की करारी हार के बाद एक बार फिर पार्टी के भीतर आत्ममंथन की जरूरत महसूस की जा रही है। भूपिंदर सिंह हुड्डा, जो पार्टी के लिए हरियाणा में जीत की उम्मीद थे, खुद इस हार के केंद्र में हैं। हुड्डा, जिनकी उम्र 77 वर्ष है, कांग्रेस के लिए हमेशा से एक प्रभावशाली नेता रहे हैं, लेकिन इस बार उनके नेतृत्व में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। हुड्डा की जाट वोटरों पर अत्यधिक निर्भरता और पार्टी में गुटबाजी ने कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं।
हुड्डा का राजनीतिक करियर लंबा और संघर्षमय रहा है। वह 2005 में भजनलाल जैसे दिग्गज नेता को मात देकर मुख्यमंत्री बने थे और तब से उन्होंने हरियाणा कांग्रेस पर अपना वर्चस्व बनाए रखा। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने जाट वोटरों को साधने की कोशिश की, लेकिन इस बार वह गैर-जाट वोटरों को आकर्षित करने में असफल रहे, जिससे भाजपा को बढ़त मिली। हुड्डा की एकतरफा रणनीति ने भाजपा को उन वर्गों का समर्थन जुटाने का मौका दिया, जिन्हें कांग्रेस ने नजरअंदाज किया था।
इस चुनाव में, कांग्रेस ने 89 उम्मीदवारों में से 72 को हुड्डा के करीबी माने जाने वाले नेताओं को टिकट दिया, जिससे पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं, जैसे कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला, को हाशिए पर रखा गया। इसने पार्टी के भीतर गुटबाजी को और बढ़ावा दिया। कुमारी शैलजा की अनुपस्थिति और सुरजेवाला की सीमित भूमिका ने यह दिखाया कि पार्टी के भीतर मतभेद और अंतर्कलह जारी है। इसके अलावा, टिकट वितरण में भी विवाद रहा, जिसके चलते कई महत्वपूर्ण नेता, जैसे कि किरण चौधरी, भाजपा में शामिल हो गए।
भूपिंदर सिंह हुड्डा ने अपनी छवि और ताकत के दम पर पार्टी को फिर से खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन पार्टी के अभियान में अत्यधिक जाट केंद्रित दृष्टिकोण ने कांग्रेस के लिए मुश्किलें बढ़ा दीं। यह चुनाव कांग्रेस के लिए जीतने का था, लेकिन हुड्डा की जाट केंद्रित रणनीति और पार्टी के अन्य गुटों के साथ असहज संबंधों ने इसे कांग्रेस की हार में बदल दिया। भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नायब सैनी के नेतृत्व में हरियाणा में गैर-जाट वोटों को अपने पक्ष में किया और बड़ी जीत हासिल की।
वहीं, अगर हम मध्य प्रदेश के 2023 के चुनावों पर नजर डालें, तो वहां भी कांग्रेस के 77 वर्षीय नेता कमलनाथ ने पार्टी को हार की ओर धकेल दिया था। कमलनाथ की एकतरफा रणनीति, संगठन पर उनका केंद्रीकरण और गुटबाजी ने पार्टी को कमजोर कर दिया था। कमलनाथ ने मध्य प्रदेश में अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी की जमीनी पहुंच कमजोर हो गई थी। कांग्रेस वहां भाजपा की मजबूत चुनावी रणनीति के आगे टिक नहीं पाई, जिससे उसे भारी नुकसान हुआ।
हरियाणा और मध्य प्रदेश, दोनों राज्यों में, कांग्रेस की हार यह दिखाती है कि पुराने नेताओं का अत्यधिक प्रभुत्व और जमीनी स्तर पर कमजोर पकड़ पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित हो रही है। हुड्डा और कमलनाथ दोनों ही अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के प्रमुख चेहरे रहे हैं, लेकिन दोनों की नेतृत्व शैली और संगठन पर अत्यधिक नियंत्रण ने पार्टी के भीतर असंतोष को बढ़ावा दिया। अब कांग्रेस के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह अपने संगठन में नए नेतृत्व को मौका दे और जमीनी स्तर पर पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए व्यापक बदलाव करे।
कांग्रेस के लिए अब सवाल यह है कि क्या पार्टी इन सबक को आत्मसात कर अपने भविष्य के चुनावों के लिए नई रणनीति बना सकेगी या फिर पुराने ढर्रे पर चलते हुए और नुकसान उठाएगी। हरियाणा में भाजपा की जीत और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की हार, दोनों ही कांग्रेस के लिए एक स्पष्ट संदेश हैं: संगठन में नए विचार और ऊर्जा की जरूरत है, ताकि पार्टी फिर से अपनी खोई हुई जमीन वापस पा सके।
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