आंबेडकर विश्वविद्यालय में एग्रीकल्चर कोर्स; छात्र कभी खेत-नर्सरी या प्रयोगशाला तक नहीं गए और पूरी हो गई डिग्री


मध्यप्रदेश में हाल ही में कई कॉलेजों में कृषि पाठ्यक्रम शुरू किए गए हैं, जिसमें डॉ. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय भी शामिल है। हालांकि, इस विश्वविद्यालय में कृषि की पढ़ाई के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी है। यहाँ की प्रयोगशाला खस्ताहाल है, प्रयोगात्मक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं, और विद्यार्थियों को उचित प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है। कई छात्र अपनी पढ़ाई से निराश हैं और विश्वविद्यालय की व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं।


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उनकी बात Updated On :

मप्र में अब कई कॉलेजों में एग्रीकल्चर कोर्स शुरू हो गए हैं। यह एक नया कदम है जिसके आधार पर सरकार द्वारा दावा किया जा रहा है यह कदम प्रदेश में कृषि की पढ़ाई को लेकर एक बड़ा बदलाव लेकर आएगा। इसे लेकर खुद मुख्यमंत्री मोहन यादव गंभीर हैं और अधिकारी तो इसे सफल करने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हालांकि यह पहली बार नहीं है, ऐसे प्रयास पहले भी किए जा चुके हैं लेकिन इनकी सफलता पर कई सवाल भी साथ चल रहे हैं। यही वजह है कि इस प्रयोग को लेकर विधार्थी और पूर्व छात्र मुखर होकर विरोध कर रहे हैं।

गैर कृषि कालेजों में अब कृषि की पढ़ाई हो रही है, सरकार ने इसे लेकर फैसला ले लिया है और अब कई कॉलेजों में इसकी तैयारी होने लगी है। इन कॉलेजों के पास न जमीनें हैं और न ही दूसरे कोई संसाधन फिर भी इन पर जिम्मा है किसानों के पास ऐसे नौजवान पहुंचाने का जो उनकी खेती के ज्ञान में कुछ बढ़ोत्तरी कर सकें या उनकी किसी भी तरह से मदद कर सकें। हालांकि फिलहाल की स्थिति में ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है।

डॉ. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्विद्यालय महू

इंदौर जिले के महू में स्थित डॉ. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय में भी शायद ऐसा ही किया गया। साल 2015 में जब यह विश्वविद्यालय बना, उसी समय यहां सामाजिक विज्ञान की पढ़ाई के साथ कृषि की पढ़ाई भी शुरू की गई। यहां खेती बाड़ी की पढ़ाई होती है इसका सुबूत यहां बनी एक हाईटेक प्रयोगशाला देती है जो सड़क से ही नजर आती है। यह प्रयोगशाला साल 2017 में बनाई गई थी, जिसका उद्घाटन उस समय के कुलपति डॉ. आरएस कुरील और आरएसएस के विचारक सुनील आंबेकर की मौजूदगी में हुआ था। दरअसल यह प्रयोगशाला एक पॉली हाउस है जिसकी पन्नियां इस कदर फटी हुई हैं जो हवा में उड़ती रहती हैं।

पॉली हाउस के अंदर और बाहर बड़ी बड़ी घास उगी हुई है। हाईटेक नर्सरी के बोर्ड पर अब भी वह जानकारी नजर आती है जो शायद कभी यहां दर्ज की गई होगी। विश्वविद्यालय के विद्यार्थी बताते हैं कि उन्होंने अपने कोर्स के दौरान इस नर्सरी की हालत हमेशा ऐसी ही देखी है।

सामाजिक विज्ञान अध्ययन के लिए बनाए गए इस विश्वविद्यालय में आज एग्रीकल्चर कोर्स से ही सबसे ज्यादा आर्थिक मदद मिलती है, लेकिन यहां के छात्रों को किसी तरह की मदद नहीं मिलती। इस विश्वविद्यालय को शुरू करते समय तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि यह उनके जीवन का सबसे अच्छा काम है, लेकिन अपनी शुरुआत के बाद से ही विश्वविद्यालय की स्थिति अब तक ठीक नहीं है। यहां अब तक किसी भी कुलपति को अपना पूरा कार्यकाल करने का मौका नहीं मिला है। ऐसे में नए कुलपति रामदास अत्राम, नागपुर के एक संस्थान से आए हैं जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के करीबी बताए जाते हैं। विश्वविद्यालय का स्टाफ उम्मीद जताता है कि शायद इसी वजह से ये कुलपति अपना कार्यकाल पूरा कर पाएंगे।

 

बीते साल तक यहां एग्रीकल्चर कोर्स से एमएससी की पढ़ाई भी होती थी, लेकिन किन्हीं वजहों से इस साल से वह पढ़ाई भी बंद हो गई। फिलहाल इस विश्वविद्यालय में बीएससी एग्रीकल्चर की साठ सीटें हैं, ऐसे में सभी सत्रों में मिलाकर करीब ढाई सौ विद्यार्थी यहां पढ़ाई कर रहे हैं।

 

मप्र के कई जिलों से विद्यार्थी यहां कृषि की पढ़ाई करने के लिए आते हैं। इनमें से एक फैज़ान भी हैं, जो सिवनी जिले से पढ़ने के लिए आए हैं। उन्होंने हाल ही में अपनी चार साल की डिग्री पूरी की है। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का माहौल बताते हुए फैज़ान कहते हैं कि शुरुआत में उन्हें समझ नहीं थी कि बीएससी एग्रीकल्चर की पढ़ाई आईसीएआर से संबंधित किसी संस्थान से करना ज्यादा बेहतर होता है और न ही यह पता था कि यह आंबेडकर विवि आईसीएआर से संबंधित नहीं है। ऐसे में उन्होंने यहां दाखिला ले लिया। लेकिन इसके बाद उन्हें इस भूल का अहसास हुआ।

कृषि कोर्स के छात्र रहे फैजान

फैज़ान बताते हैं कि चार साल में उन्होंने बीएससी एग्रीकल्चर की डिग्री पूरी कर ली है लेकिन आज तक उन्होंने फील्ड पर कोई काम नहीं किया है। फैज़ान कहते हैं कि उन्होंने खेती की इस पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय की ओर से किसी भी प्रशिक्षण कार्यक्रम में खेत देखे तक नहीं। वे बताते हैं कि यहां एग्रीकल्चर कोर्स के विद्यार्थियों के लिए जरूरी किसी भी तरह की प्रयोगशाला भी नहीं है।

 

फैज़ान आगे बताते हैं कि बीएससी एग्रीकल्चर के करीब ढाई सौ विद्यार्थियों की पढ़ाई पूरी करवाने के लिए यहां एक परमानेंट प्रोफेसर और छह विजिटिंग फैकल्टी हैं। ऐसे में पढ़ाई किसी भी तरह से पूरी नहीं हो पाती। वे कहते हैं कि अपने कोर्स के दौरान उन्होंने दस से बारह गेस्ट फैकल्टी को हर कुछ महीनों में जाते हुए देखा है। स्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि ज्यादातर बार तो क्लास लगती ही नहीं है।

 

वे कहते हैं कि विश्वविद्यालय में बीएससी एग्रीकल्चर के मुख्य नियमों का पालन भी नहीं किया गया है। इसे समझाते हुए वे कहते हैं कि सिलेबस में छठवें सैमेस्टर में एजुकेशनल टूर होता है, लेकिन वह भी नहीं हुआ। इसके अलावा, सातवें और आठवें सैमेस्टर में रावे (Rural Agricultural Work Experience) के तहत कृषि विज्ञान केंद्रों से अनुबंध करके विद्यार्थियों को ग्रामीण इलाकों में खेती-बाड़ी का अनुभव लेने का मौका दिया जाता है, लेकिन आंबेडकर विवि में यह भी नहीं करवाया गया। फैज़ान कहते हैं कि वे निराश हैं क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पढ़ने का मौका नहीं मिला जबकि उन्होंने अपनी पूरी फीस जमा की थी। जो इसी पढ़ाई के लिए ली गई थी।

विश्वविद्यालय में कृषि विभाग

फैज़ान के बैच में सौरभ भी हैं, जिन्होंने अपनी बीएससी की डिग्री पूरी करके एक अन्य यूनिवर्सिटी में एडमिशन ले लिया है। वे कहते हैं कि उन्हें खुशी है कि उन्होंने डिग्री पूरी कर ली, लेकिन इस तरह से पढ़ाई पूरी करना अच्छा अनुभव नहीं रहा। वे कहते हैं कि विश्वविद्यालयों का काम विद्यार्थियों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा देना है, न कि केवल डिग्री बांटना। सौरभ ने भी अपनी पढ़ाई के दौरान कभी लैब या खेत नहीं देखा।

 

बीएससी की पढ़ाई कर रहे एक अन्य छात्र भी व्यवस्थाओं के प्रति अपना असंतोष जताते हुए कहते हैं कि उनके क्लासरूम नियमित नहीं हैं। वे कहते हैं कि उनकी कक्षाएं आज यहां तो कल वहां लगती हैं। उन्होंने कहा कि हमने सुना है कि विश्वविद्यालय में लैब है, लेकिन यह कहाँ है, इसका पता नहीं। वे कहते हैं कि इस बार भी उन्हें विजिटिंग फैकल्टी कोर्स शुरु होने के करीब ढ़ाई महीने बाद ही मिली है।

 

विश्वविद्यालय की आमदनी का सबसे बड़ा हिस्सा एग्रीकल्चर विभाग से ही आता है, लेकिन इस विभाग में विद्यार्थियों के लिए किताबें भी नहीं हैं। एनएसयूआई की छात्र राजनीति से जुड़े विक्रांत सिंह परिहार बताते हैं कि लाइब्रेरी में एग्रीकल्चर के लिए किताबें ही नहीं थीं। इसके लिए उन्होंने कुछ छात्रों के साथ मिलकर विरोध जताया और फिर थोड़ी संख्या में किताबें आईं, लेकिन उनमें भी ज्यादातर अंग्रेजी में थीं। विक्रांत कहते हैं कि गांव-देहात से आने वाले विद्यार्थियों के लिए, जहां हिन्दी में यही विषय पढ़ाने वाले प्रोफेसर भी नहीं हैं, उन्हें बिना सोचे-समझे अंग्रेजी की किताबें खरीद दी गईं।

विक्रांत सिंह परिहार, छात्र नेता

विक्रांत कहते हैं कि कृषि छात्रों के लिए विश्वविद्यालय ने आज तक किसी भी तरह का प्रायोगिक ज्ञान नहीं दिया। वे बताते हैं कि विश्वविद्यालय से पांच सौ मीटर दूर कृषि उपज मंडी है और तीस किलोमीटर दूर देश का नामी सोयाबीन रिसर्च सेंटर और मशहूर सरकारी कृषि कॉलेज है, लेकिन आज तक विद्यार्थियों को वहाँ भी नहीं ले जाया गया है।

 

विश्वविद्यालय में एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट के प्रमुख और इकलौते पूर्णकालिक शिक्षक असिस्टेंट प्रोफेसर अरुण कुमार से जब हमने इस स्थिति के बारे में पूछा, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि वे विश्वविद्यालय की ओर से बोलने के लिए अधिकृत नहीं हैं। लेकिन दोबारा पूछने पर उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय में फिलहाल कोई लैब नहीं है, लेकिन वे विश्वविद्यालय में मौजूद छोटे प्लॉट्स को तैयार करके विद्यार्थियों को प्रैक्टिकल करवाने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने बताया कि विभाग की बेहतरी के लिए उन्होंने बजट बनाकर भेजा है। हालांकि इसके बाद प्रो. अरुण कुमार ने आगे कुछ भी नहीं कहा।

कृषि विभाग, आंबेडकर विश्वविद्यालय, महू

आंबेडकर विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार राजेंद्र सिंह बघेल कहते हैं कि एग्रीकल्चर की पढ़ाई को संवारने के लिए यहां के वाइस चांसलर रामदास अत्राम लगातार प्रयास कर रहे हैं और इसके लिए आगे कुछ और नए कदम उठाने की योजना है। बघेल कहते हैं कि यह एक प्रयोग है, जो धीरे-धीरे सफल होंगे और निश्चित रूप से विद्यार्थियों के लिए लाभदायक साबित होंगे। उन्होंने कहा कि कोर्स के लिए जरूरी सहूलियतें देने के लिए बजट तैयार हो रहा है। वहीं, जो हाईटेक लैब के रूप में जो खस्ताहाल पॉलीहाउस है, उसके लिए भी उपाय खोजे जा रहे हैं।

 

जरूरी संसाधनों के बिना एग्रीकल्चर की पढ़ाई पर क्या असर पड़ सकता है, इंदौर के आंबेडकर विश्वविद्यालय की स्थिति इसके बारे में काफी कुछ बताती है। यही वजह है कि प्रदेश सरकार के इस निर्णय का वर्तमान और पूर्व के कई कृषि छात्र विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वालों में एग्रीकल्चर कॉलेजों के प्रोफेसर भी हैं, लेकिन वे शासन की कार्रवाई के डर से इस बारे में खुलकर नहीं बोलने से कतरा रहे हैं।

 



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