सौमित्र रॉय
कर्नाटक में चुनाव जीतने वाले एक–तिहाई विधायक लिंगायत समुदाय से हैं। 64% लिंगायत वोटरों ने बीजेपी को वोट दिया, जबकि 46% वोक्कालिगा ने जेडीएस को सपोर्ट किया था। फिर भी, कांग्रेस की जीत वोट शेयर और सीटों के हिसाब से 34 साल में सबसे बड़ी है। 1999 में कांग्रेस के ही एसएम कृष्णा करीब 41% वोट से 132 सीटें लेकर आए थे। कर्नाटक में 38 साल से सत्ताधारी पार्टी रिपीट नहीं हो सकी है। 1985 में हेगड़े यह करिश्मा कर पाए थे।
कर्नाटक में बीजेपी की हार बंगाल की पराजय से भी ज्यादा ज़ख्म दे गई है। बंगाल में तो बीजेपी कभी सत्ता के आसपास भी नहीं रही। कर्नाटक में उसकी समूची सत्ता ही ढह गई।
ये हार सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी के चेहरे की हार है। आम जनता के पैसों से 42 रैलियां और 28 रोड शो के बावजूद वे 50% सीटें भी नहीं निकाल पाए।
ये उनकी और दिल्ली के तख्त पर काबिज़ उनकी सरकार की हार है, जो रिमोट से बोम्मई सरकार को चला रही थी।
वजह सिर्फ दलाली और भ्रष्टाचार ही नहीं है, जिसकी बदौलत दिल्ली ने कर्नाटक की जनता से 1.30 लाख करोड़ से ज्यादा लूटा। ये तो सिर्फ एक ट्रिगर था गुस्सा बाहर निकालने का।
वजह हिज़ाब के बहाने वोटरों के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और बोम्मई सरकार का निकम्मापन भी है, जिसने 7% का वोट स्विंग कांग्रेस के पक्ष में कर दिया।
कर्नाटक की जनता को सलाम और कांग्रेस को जीत की ढेर सारी बधाइयां।
वैसे, कल तक खुद कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत की उम्मीद नहीं थी। विधायकों को चेन्नई ले जाने की तैयारी हो चुकी थी।
लेकिन, आज के जनादेश ने बीजेपी को ऑपरेशन लोटस का कोई मौका नहीं दिया। आगे भी यह मुश्किल है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र ने इसकी पोल खोल दी है।
दक्खन के दरवाज़े बीजेपी के लिए बंद हो चुके हैं। देश का दूसरा सबसे अमीर राज्य हाथ से निकल चुका है।
दलितों, मुस्लिम और आदिवासियों के समर्थन ने कांग्रेस का वोट शेयर 43% कर दिया। बीजेपी लिंगायत को साधती रही और जेडीएस वोक्कलिगा को।
कर्नाटक के वोटरों ने मुकाबले को सीधा कांग्रेस और बीजेपी के बीच रखा। नतीज़ा यह कि उन 12 विधायकों की भी शामत आ गई जो पाला बदलकर बीजेपी में गए थे।
यहां तक कि बीजेपी महासचिव सीटी रवि भी पिछड़ गए।
जनादेश का संदेश साफ है–मतदाता अब खोखले तमाशों से बहकने वाले नहीं हैं। उन्हें अपनी पीठ पर पड़ रहे सत्ता के हर चाबुक का हिसाब चाहिए।
उसे उन 13 लाख करोड़ का भी हिसाब चाहिए, जो अदाणी सेठ के फिसलने से डूबे। उसे उस लूट का हिसाब चाहिए, जिसे सत्ता और कॉर्पोरेट्स ने मिलकर लूटा है।
नरेंद्र मोदी आज जितने सवालों के घेरे में हैं, उतने कभी नहीं रहे। आगे ये सवाल और गहरे होंगे। राजस्थान, एमपी और छत्तीसगढ़ की किलेबंदी से पहले मुमकिन है कि सत्ता कुछ ऐसा खेल करे जो उसके लिए मुफीद हो। अभी तो, सियासत की शतरंज में चेक की स्थिति है।
(आलेख भड़ासफॉरमीडिया.कॉम से साभार)