प्रयागराज में 24 फरवरी, 13 अप्रैल और 15 अप्रैल तीन ऐसी तारीखें हैं जब उत्तर भारत के ज्यादातर मीडिया पर हत्याकांड, एनकाउंटर और फिर हत्याकांड के सीसीटीवी फुटेज, वीडियो और लाइव वीडियो तैर रहे थे। प्रयागराज में 15 अप्रैल की रात मेडिकल के लिए जाते हुए सरकारी अस्पताल परिसर में अतीक अहमद और अशरफ की पुलिस सुरक्षा में हत्या कर दी जाती है। हत्या का वीडियो मीडिया चैनलों पर लाइव दिखाया जा रहा था।
घटना के बाद प्रयागराज के पुलिस कमीश्नर रमित शर्मा ने बताया कि हमलावर मीडियाकर्मी बन कर आए थे। बात साफ है कि अपराधी भी यह जानते थे कि मीडिया के वेश में शक की गुंजाइश सबसे कम है। बेहद वीभत्स और सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने वाली यह घटना जंगल में आग की तरह फैलने लगी। इसके बावजूद, न्यूज़ चैनलों पर इसे बार-बार और अलग-अलग एंगल से दिखाया जाता रहा।
ऐसी कवरेज से पहले भी अपराधियों को मिली है मदद –
यह मामला मुंबई हमले के बाद होने वाले मीडिया कवरेज की याद दिलाता है। नहीं भूलना चाहिए कि आतंकियों ने मीडिया के लाइव कवरेज का अपने पक्ष में इस्तेमाल किया। आतंकियों ने सुरक्षाकर्मियों को न सिर्फ निशाना बनाया बल्कि, लंबे समय तक बचते रहे और निर्दोषों को निशाना बनाते रहे। अतीक और उसके गैंग के खिलाफ हो रही कार्यवाही को पहले ही सांप्रदायिक रूप दिया जा चुका था। ऐसे में अतीक और अशरफ की हत्या के लाइव वीडियो का प्रसारण करना क्या सही है?
मामला केवल कानून-व्यवस्था का नहीं है –
यह केवल कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। इससे उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के सांप्रदायिक सौहार्द के बिगड़ने का खतरा है। योगी आदित्यनाथ के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद कई पुलिसवालों की हत्या करने वाले विकास दुबे का 2020 में एनकाउंटर हुआ। इस घटना के तीन साल बाद 24 फरवरी 2023 को उमेश पाल सहित दो पुलिसवालों की दिनदहाड़े हत्या के बाद अतीक के बेटे सहित चार आरोपियों को पुलिस एनकाउंटर में ढेर कर दिया जाता है।
इसी मामले में आरोपी अतीक अहमद और अशरफ की भारी सुरक्षा के बीच मीडिया के लाइव कवरेज के दौरान सरेआम हत्या यूपी पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़ा करती है। यह अपराध के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस की नीति का खुला मुखौल उड़ाने वाली घटना है।
ऐसे हालात में होती है असली परीक्षा –
पुलिस के सामने अतीक और अशरफ की सरेआम हत्या ने किसी संप्रदाय या क्षेत्र नहीं बल्कि, यूपी के हर आम आदमी को दहशत में जीने को मजबूर कर दिया है। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के चैाथे स्तंभ यानी, मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। लाइव प्रसारण या किसी घटना की फुटेज दिखाते समय इस बात ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए कि इसका क्या असर होगा।
लोगों तक जानकारी पहुंचाना और उकसाने या भड़काने वाली जानकारी परोसने में बहुत मामूली अंतर होता है। इसी का फ़ायदा बहुत लंबे समय तक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म चलाने वाली कंपनियां उठाती रहीं हैं। आज भी वाट्सऐप से लेकर इंस्टाग्राम और फेसबुक से लेकर ट्विटर पर विद्वेषपूर्ण और भड़काऊ बयानबाजी या पोस्ट डालने का सिलसिला जारी है।
बोलने की आजादी का दुरुपयोग करते धंधेबाज –
लोकतंत्र में बोलने की आजादी के नाम पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने लोगों को वह सब करने, कहने और दिखाने का बहाना दे दिया जिसकी किसी भी सभ्य समाज में इज़ाजत नहीं दी जा सकती। यही वजह है कि अमेरिका और यूरोप जैसे देशों में इनके खिलाफ सख्त कार्यवाहियां की गईं हैं।
भारत जैसे देश में इनके खिलाफ किसी भी कार्यवाही को आसानी से राजनीतिक रंग दिया जा सकता है। इस बात को सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्म चलाने वाली कंपनियां बखूबी जानती हैं। यही कारण है कि किसी भी संवेदनशील घटना के बाद सरकार को सबसे पहले इंटरनेट बंद करने जैसी कार्यवाही करनी पड़ती है क्योंकि, इनकी मदद से बड़ी आसानी से आग में घी डाला जा सकता है।
प्रयागराज में 15 अप्रैल की रात अतीक और उसके भाई अशरफ की हत्या की घटना के बाद सरकार ने इंटरनेट पर भड़काने वाली टिप्पणी करने वालों के खिलाफ तुरंत कड़ा संदेश जारी किया। हालांकि, सरकार ने न्यूज़ चैनलों को हत्या की लाइव कवरेज को रोकने का कोई फरमान नहीं दिया क्योंकि, इसे आसानी से बोलने की आजादी पर हमला बता कर सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता।
इस माहौल में बस एक उम्मीद जिंदा है –
15 अप्रैल की रात प्रयागराज में जो कुछ हुआ वह यूपी की कानून व्यवस्था पर ऐसा धब्बा है जिसे धुलने में सरकार और पुलिस दोनों को लंबा वक्त लगेगा। पहले से ही बदनाम यूपी पुलिस की छवि को इस घटना ने और भी धूमिल किया है। नकारात्मकता और द्वेष के इस माहौल में जब सरकार और पुलिस से नाउम्मीदी मिलने लगे, तो नागरिक समाज की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
ऐसे में सोशल मीडिया या मीडिया चैनलों से किसी सकारात्मक भूमिका की उम्मीद करना बेमानी होगी। उम्मीद केवल नागरिक समाज से ही रह जाती है जो इन दोनों माध्यमों के सबसे बड़े ग्राहक और उपयोगकर्ता हैं।
इन माध्यमों को देखने, पढ़ने, सुनने या इस्तेमाल करते वक्त हम अपनी भूमिका और जिम्मेदारी को समझें और जिम्मेदारी के साथ प्रतिक्रिया देकर ही आग को ठंडा होने में मदद कर सकते हैं। हालांकि, मीडिया और सोशल मीडिया के मालिकान से सेल्फ रेगुलेशन की उम्मीद फिर भी बनी रहेगी।