अरविंद यादव
हमारे घरों और जीवन को अपनी मधुर चीं..चीं की धुन से महकाने वाली चिड़िया अब नहीं आती। यह नन्हा सुंदर पक्षी कभी हमारे घरों का एक महत्वपूर्ण सदस्य हुआ करता था जब हम सब बचपन से इनके साथ बड़े हुए। चिड़िया का गीत सुनकर सवेरे-सवेरे उठते थे, भोजन साझा करते थे और न करें तो ये अपना हिस्सा मांगने थाली में आ कर बैठ जाती थी। धूप में पानी पीते, रेत में नहाते देख ताली बजाना और शाम को इनके घोंसले में जाने के बाद सोना, यह सब हमारी दिनचर्या के हिस्से थे।
अब स्थिति बदल गई है। न चिड़िया दिखती है और ना उन का गीत सुनता है।इन्सानों ने अपनी नासमझी से गौरैया का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया है। इनकी संख्या इतनी कम हो गई है कि कहीं..कहीं तो अब यह बिल्कुल दिखाई नहीं देती।
विश्व भर में गौरैया की 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से 5 भारत में देखने को मिलती हैं। मनुष्य के साथ गौरैया का रिश्ता करीब 10 हजार साल पुराना है।
गौरैया ने इंसानों के साथ रहने के लिए सबसे अधिक क्रम-विकास किया है। वास्तव में ये चिड़ियां इन्सानों पर लगभग पूर्णतः निर्भर हो गयी और शायद यही इनके विनाश का मुख्य कारण है।
ग्रामीण परिवेश में अभी भी ठीक ठाक संख्या में संघर्षरत हैं परन्तु शहरी इलाकों में तो लगभग समाप्त ही हो चुकी हैं। जो थोड़ी बहुत बची थी वो भी शहरों की मार से बचने के लिए ग्रामीण इलाकों की ओर पलायन कर चुकी हैं।
इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इनकी संख्या आंध्र प्रदेश में 80 फीसदी तक कम हुई है और केरल, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में इसमें 20 फीसदी तक की कमी देखी गई है।
इसके अलावा तटीय क्षेत्रों में यह गिरावट निश्चित रूप से 70 से 80 प्रतिशत तक दर्ज की गई है। यह ह्रास ग्रामीण और शहरी..दोनों ही क्षेत्रों में हुआ है।
ब्रिटेन और यूरोप में तो गौरैया की आबादी संकट की स्थिति में पहुंच चुकी है और इसे ‘रेड लिस्ट’ में डाला गया है।
यदि गौरैया के संरक्षण के समुचित प्रयास नहीं किए गए तो निकट भविष्य में यह इतिहास की चीज बन जाएगी और आने वाली पीढ़ियों को शायद देखने को भी न मिले।
जब तक मानवजाति गौरैया के संरक्षण के लिए जागरूक नहीं होगी तब तक इनका संरक्षण नहीं किया जा सकता। इसी दिशा में होने वाले प्रयासों के फलस्वरूप *20 मार्च 2010 को विश्व गौरैया दिवस* के रूप में घोषित कर दिया गया। इसके बाद इनके संरक्षण की ओर कुछ और कदम भी उठाए गये।
भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और बिहार सरकार ने गौरैया को अपना राजकीय पक्षी भी घोषित किया। परन्तु समावेशी जागरुकता के अभाव में कुछ निर्णायक सफलता प्राप्त नहीं हुई।
मुझे याद है बचपन में मां सुबह सुबह पहले दो रोटी गाय और चिड़िया के लिए बनाती थी। आंगन में हम छोटे छोटे टुकड़े उनको खिलाते थे।मां जब अनाज पिछोड़ती और चक्की पीसती तो ढेरों चिड़िया आस पास चुग रही होती थी।
सारे घर, आंगन और दालान में पीने के पानी की कोई कमी नहीं थी। छप्पर, रोशनदान, छत के कोने सब घोंसलों से भर जाते थे। गली गलियारों में सूखे स्नान के लिए मिट्टी की कमी न थी।
बेरी के झाड़, नीम, आमला, शहतूत और पीपल के पेड़ फलों से लदे रहते थे। इस माहौल में हम और चिड़ियां साथ साथ फलते फूलते थे।
हमारी आधुनिक जीवन शैली गौरैया को सामान्य रूप से रहने के लिए बाधा बन गई। पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई, खेतों में कृषि रसायनों का अधिकाधिक प्रयोग और घरों में शीशे की खिड़कियाँ इनके जीवन के लिए प्रतिकूल हैं।
जहां कंक्रीट की संरचनाओं के बने घरों की दीवारें घोंसले को बनाने में बाधक हैं वहीं अत्याधुनिक शहरीकरण के कारण उसके प्राकृतिक भोजन के स्त्रोत समाप्त होते जा रहे हैं।
जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण गौरैया की घटती आबादी का कुछ प्रमुख कारण है। हजारों मोबाइल टावर अब शहरों और गाँव में लगाए जा रहे हैं जो गौरेया के लिए प्रमुख खतरा है।
इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें इनके अंडों मे पल रहे भ्रूण का तापमान बढ़ जाता है और उसकी जन्म से पहले ही मृत्यु हो जाती है।
गौरैया ज्यादातर छोटे-छोटे झाड़ीनुमा देसी पेड़ों में रहती हैं लेकिन सुंदर पार्क बनाने के लिए हमने इन को काट कर विदेशी पेड़ लगा दिए।
गौरैया तो छोड़िए, इस नए माहौल में तो स्वस्थ इंसान नहीं पनप सकते। बहुत हुआ। कुदरत दस्तक दे रही है कि जागने का समय आ गया है।
अभी अगर कुछ ठोस नहीं किया गया तो बच्चों को चिड़िया इंटरनेट पर ही देखने को मिलेगी। और कुछ बहुत बड़ा काम नहीं करना है। बस अपनी जीवनशैली को थोड़ा सा कुदरत के नजदीक ले जाना है। अगर हम दैनिक जीवन में कुछ छोटे छोटे बदलाव कर सकें तो हमें बड़े पैमाने पर परिणाम मिल सकते हैं।
गौरैया के लिए घोंसले की जगह छोड़िए। जूते के डिब्बों, प्लास्टिक की बड़ी बोतलों और मटकियों में छेद करके इनका घर बना कर उन्हें उचित स्थानों पर लगाए। और किस्मत से अगर गौरैया आपके घर में घोसला बनाए तो उसे बनाने दें उसे हटाए न।
रोजाना अपने आंगन, खिड़की, बाहरी दीवारों पर उनके लिए दाना-पानी रखें।
घरों के आसपास देसी और फल-फूल वाले पेड़-पौधे एवं झाड़ियां लगाएं न कि आकर्षक विदेशी झंखाड़।
प्रजनन के समय उनके अंडों की सुरक्षा का ध्यान रखना रखें।
कुछ इस प्रकार के कार्यों को करके हम गौरैया को वापस अपने घर आने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण है आम आदमी के अंदर यह सामाजिक चेतना का संचार और जागरूकता। एक सामूहिक प्रयास के रूप में अगर हम पर्यावरण को बदलेंगे तभी यह विकट समस्या सुलझेगी और हम अपनी आने वाली पीढ़ी को ऐक बार फिर गाते सुन सकेंगे –
“चूं चूं करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया”।
लेखक अरविंद यादव भारतीय सेना के अधिकारी होने के साथ साथ एक पर्यावरण और पक्षी प्रेमी हैं।