सरयूसुत मिश्रा।
भारत में सामाजिक क्रांति का आज एक नया दिन शुरू हुआ है। भारत की सर्वोच्च अदालत ने अनारक्षित सामान्य वर्ग के 10 फीसदी ईडब्ल्यूएस आरक्षण को विधि सम्मत और संवैधानिक करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने संविधान के 103वें संशोधन अधिनियम 2019 की वैधता को बरकरार रखा है। बहुमत के फैसले में कहा गया है कि आर्थिक मापदंडों पर आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता। यह आरक्षण समानता की संहिता का भी उल्लंघन नहीं करता।
भारत में आरक्षण पर विवाद अक्सर उठते रहते हैं। संविधान के अंतर्गत अनुसूचित जाति एवं जनजाति को आरक्षण की व्यवस्था स्वतंत्रता के बाद से ही की जाती रही है। जातिगत राजनीति के उभार के बाद पिछड़े वर्गों को आरक्षण के लिए मंडल और कमंडल की राजनीति में विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपनी सरकार गंवानी पड़ी थी। तमाम संघर्ष के बाद ओबीसी को आरक्षण दिया गया था। इस आरक्षण में भी गरीबी को आधार बनाया गया था। ओबीसी में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू है। इस वर्ग के अमीर लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। अनुसूचित जाति और जनजाति में क्रीमी लेयर की व्यवस्था नहीं है। वहां तो जाति के प्रत्येक व्यक्ति को आरक्षण का बुनियादी अधिकार मिला हुआ है।
अनुसूचित जातियों और जनजातियों तक आरक्षण की व्यवस्था जब तक कायम रही तब तक इसे सर्वसमाज द्वारा स्वीकार किया जाता रहा। संविधान में आरक्षण की व्यवस्था के लिए ऐतिहासिक रूप से पिछड़ेपन और कमजोर होने को आधार माना गया था। इसी आधार पर इन वर्गों को आरक्षण मिलता रहा है। जब मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद पिछड़े वर्ग की सत्ता में हिस्सेदारी बढ़ी तब इन वर्गों के आरक्षण को राजनीतिक सफलता के पैमाने के रूप में उपयोग किया जाने लगा। नौकरियों और शिक्षण संस्थानों के साथ पंचायतों और नगरीय निकायों में ओबीसी आरक्षण को लेकर अब भी कशमकश जारी है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने सही डाटा के आधार पर आरक्षण की अनुमति प्रदान कर दी है, लेकिन डाटा पर प्रश्नचिन्ह कई राज्यों में अभी भी लगाए जा रहे हैं।
एससी-एसटी और ओबीसी को आरक्षण मिलने के बाद फिर समाज में बहुत कम समुदाय ऐसे बचे थे जो आरक्षण की श्रेणी में नहीं रह गए हों। मुस्लिम समाज की ओबीसी जातियों को भी आरक्षण मिल रहा है। प्रमुख रूप से सवर्ण समाज के लोग सामान्य वर्ग के दूसरे समुदाय और सामान्य मुस्लिम, ईसाई, सिख समाज के लोग ही आरक्षण में कवर नहीं होते थे।
बड़े चिंतन और विचार विमर्श के बाद पहली बार भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने 2019 में ईडब्ल्यूएस आरक्षण के नाम पर गैर आरक्षित वर्गों के लिए 10 फीसदी आरक्षण देने का संविधान संशोधन किया। इस संविधान संशोधन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में बहुत सारी याचिकाएं दायर की गई थीं। ये याचिकाएं राजनीति से प्रेरित भी प्रतीत हो रही थीं। यहां तक कि कुछ राजनीतिक दलों की ओर से भी याचिकाएं अदालत में लगाई गई थीं।
ऐसे राजनीतिक दल जो दलित और पिछड़े वर्गों की राजनीति के आधार पर ही अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगे रहते हैं। उनके द्वारा ईडब्ल्यूएस आरक्षण को पसंद नहीं किया जा रहा था। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद ‘सबका साथ, सबका विकास’ की रणनीति शासन की विचारधारा बनी। बीजेपी को मुस्लिमों का हितैषी नहीं माना जाता। इसके बाद भी बीजेपी ने सरकारी योजनाओं में धर्म और जाति को आधार नहीं बनाने का ऐतिहासिक कदम उठाया, जिसका उन्हें लाभ मिला और आज बीजेपी के समर्थकों में सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों का एक बड़ा समूह बन गया है।
आरक्षण के समर्थक ईडब्ल्यूएस आरक्षण को जातिगत आरक्षण की व्यवस्था में बाधा के रूप में देख रहे थे। ऐसे लोगों को लग रहा था कि यदि आरक्षण में गरीबी का आधार संवैधानिक रूप से स्थापित हो जाता है तो आरक्षण का यह टाइम बम हमेशा आरक्षण की राजनीति करने वालों को डराता रहेगा। ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस आरक्षण को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया जाएगा लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने बहुमत से अपने फैसले में सामान्य वर्गों को गरीबी के आधार पर दिए गए आरक्षण को संविधान सम्मत मानते हुए ऐतिहासिक फैसला दिया है।
इस फैसले पर जिस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं उससे दलित राजनीति करने वाले समूहों में निराशा का माहौल दिखाई पड़ रहा है। वहीं जो भारत की अस्मिता और भारत के सभी समुदायों को समान अवसर देने में विश्वास रखते हैं उनमें खुशी का माहौल है।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण विधि सम्मत घोषित होने से अब भारत में कोई भी समाज ऐसा नहीं बचेगा जिसको आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। गरीबी के आधार पर हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी वर्ग आरक्षण की सुरक्षा के हकदार बन गए हैं। ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ सामान्य वर्ग की सभी जातियों को मिलेगा। इसके साथ ही अल्पसंख्यकों को भी इसका लाभ मिलेगा। सर्वोच्च अदालत द्वारा ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए पात्रता का निर्धारण भी कर दिया है।
भारत में आरक्षण संतोष और असंतोष का बड़ा कारण बनता रहा है। सीधी भर्तियों में तो आरक्षण एक बार लोग पचा भी जाते थे लेकिन पदोन्नति में आरक्षण से तो सिस्टम में असंतोष घर कर रहा था। पदोन्नति में आरक्षण फिलहाल रुका हुआ है। यह प्रकरण भी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। पदोन्नति में आरक्षण के मामले में भी अब न्यायसंगत और समानता के सिद्धांत पर निर्णय की उम्मीद लगाई जा सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय का ईडब्ल्यूएस आरक्षण का फैसला दूरगामी प्रभाव वाला साबित हो सकता है। गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप होती है। गरीबी कभी जाति देख कर नहीं आती। हर वर्ग में गरीबी का अभिशाप भोगने वाले मौजूद हैं। जो जातियां परंपरागत रूप से कमजोर मानी जाती हैं उनके साथ ही गरीबी को आरक्षण का आधार बनाना भारत के लिए ऐतिहासिक साबित हो सकता है। इससे कई तरह के नए विचार और संस्कार देश में उभर सकते हैं। इस फैसले के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था पर भी पुनर्विचार की जरुरत है।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)