झांसी मिर्जापुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर महोबा जिला मुख्यालय से पंद्रह किलोमीटर आगे चलने पर अचानक पेड़ की पत्तियों का हरा रंग बदल कर धूसर सा दिखने लगता है। हवा में धूल की मात्रा बढ़ जाती है। गुजर रहे लोगों को अचानक से खांसी आने लगती है और वे दुआ करने लगते हैं कि कब ये रास्ता पार हो जिससे कि वे साफ हवा में सांस ले सकें। इतना सब झेलने के बाद उस राह से गुजरने वालों को अंदाजा हो जाता है कि वे उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी पत्थर मंडी कबरई से गुजर रहे हैं।
कबरई कस्बे की ये पहचान अब वहां के रहवासियों को परेशान करने लगी है। वे अब इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। मुख्य सड़क से दो-तीन किलोमीटर अंदर घुसने पर सड़क पर दिख रहा धूल का आसमान कुछ और गहरा हो जाता है। टूटी-फूटी रोड पर सैकड़ों ट्रकों का काफिले गुजर रहे हैं, जिसके गुजरने से उड़ रही धूल के गुबार से बचकर निकल पाना लगभग नामुमकिन है। गांव के अंदर आने-जाने वाले किसी को भी इसका सामना करना ही पड़ेगा।
कबरई की पत्थर मंडी का हाल जानने के लिए काली पहाड़ी गांव पहुंचे तो गांव के अंदर जाने वाले रास्ते पर सन्नाटा पसरा हुआ है। पेड़ की आड़ में छुपा एक आदमी किसी को भी कहीं आने जाने से रोक रहा है। गांव के बाहर बने घरों मे पूरे एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा है।
पेड़ की आड़ में छुपे उस व्यक्ति से जब हमने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि ये पहाड़ को तोड़ने के लिए ब्लास्टिंग का समय है। जब पहाड़ में ब्लास्ट होता है तो उसके टुकड़े हवा में उड़कर यहां वहां जाते हैं। इससे किसी को नुकसान न हो इसलिए एहतियातन सभी को अंदर रहने की चेतावनी दी जाती है। हम नहीं चाहते हैं कि इससे किसी को नुकसान हो।
यहां रहने वाले रहवासी कहते हैं कि हर रोज गुजर रहे हजारों ट्रकों का शोर, दिन में दसियों बार होने वाली ब्लास्टिंग का शोर, अंदर जाने के लिए कभी भी बज जाने वाले सायरनों का शोर सुनकर जिंदगी तंग आ गई है। सुकून से खाना नहीं खा सकते, घर पर कोई रिश्तेदार आ जाए तो उसके साथ घंटे भर बैठ नहीं सकते, छोटे बच्चों को खुला नहीं छोड़ सकते, अपनी मर्जी से हम कुछ भी नहीं कर सकते।
ये कोई जिंदगी है, इससे बेहतर तो जेल होती होगी, वहां कम से कम बैठने की घूमने फिरने की आजादी तो होती है। यहां तो वो भी नहीं है। उनका कहना है कि कोई भी इसको बंद करा दे और बदले में हम उसके लिए जो वो कहेगा करने को तैयार हैं। हम अब इस सबसे छुटकारा पाना चाहते हैं।
वे गुस्से में कहते हैं कि हमको नहीं चाहिए सबसे बड़ी पत्थर मंडी का खिताब, हमको तो बस साफ हवा, पीने के लिए साफ पानी और शांति से रहने के लिए एक घर चाहिए जो इन मशीनों और ट्रकों के शोर में खो गया है।
काली पहाड़ी गांव के रहने वाले राजेश सिंह बताते हैं कि पत्थरों की इस मंडी को शुरू हुए अभी दो दशक से भी कम समय हुआ है लेकिन इन बीस सालों में ही ये हालात हैं कि खेती करना मुश्किल हो गया है। अगर यही हाल रहा तो अगले कुछ सालों में कबरई के आसपास बसे गांव की पूरी की पूरी जमीन बंजर हो जाएगी। तब यहां के लोग पत्थर खाकर गुजारा करेंगे, इसके अलावा और कुछ तो यहां पैदा नहीं होगा।
धारा गांव के लोग चलने वाली स्टोन क्रशर से परेशान हो चुके हैं गांव के निवासी भर्तू बताते हैं,
“गांव का कोई भी घर ऐसा नहीं है की जिसकी दीवारें और फर्श चटका न हो। यह सब लगातार और रोज होने वाली ब्लास्टिंग का नतीजा है। पहाड़ तोड़ने के लिए जब ब्लास्ट किया जात है तो गांव के घर हिल जाते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे भूकंप आ गया हो। इतनी मेहनत से एक-एक रुपये जोड़कर घर बनाते हैं लेकिन वो कुछ महीनों में ऐसा हो जाता है जैसे दशकों पहले का बना हो। हम तो चाहते हैं कि इसको बंद कर दिया जाए। इससे बचने का हमारे पास कोई तरीका नहीं है सिवाय इसके कि हम अपना गांव और घर छोड़ दें लेकिन ऐसा कर पाना संभव नहीं है।”
सरकारी नियमों के अनुसार स्टोन क्रशर किसी भी ऐसी जगह पर नहीं लगाई जा सकतीं जहां रिहाईशी बस्ती हो। इनको लगाने के लिए हाईवे से भी एक निर्धारित दूरी का ध्यान रखा जाना चाहिए लेकिन कबरई और उसके आसपास के गांवो में चल रही क्रशरों में इन मानकों का ध्यान नहीं रखा गया है।
इसका नुकसान आसपास के गांव वालों को चुकाना पड़ रहा है। बेहिसाब और अवैध तरीके से चल रहीं स्टोन क्रशरों के दुष्प्रभाव यहां के लोगों पर दिखने लगा है। कम उम्र के लोग बूढ़े दिखने लगे हैं। यहां के ज्यादातर लोग हर समय खांसी, दमा की समस्या से जूझ रहे हैं।
पेशे से पत्रकार और यहां के रहने वाले पंकज सिंह बताते हैं कि
यहां चलने वाली क्रशरों से सबसे ज्यादा असर यहां रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर हो रहा है। ज्यादातर लोग सिलकोसिस से जूझ रहे हैं, कोई भी घर ऐसा नहीं है जहां सिलोसिस के एक दो मरीज न हों। यहां रहने वाले लोगों की कमाई का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च हो रहा है। सिलकोसिस जैसी बीमारी जो लंबे समय तक रहती है उसका इलाज भी देर तक चलने वाला और खर्चीला होता है। कई बार तो ये सालों चलता है। ऐसे में यहां के लोग जो कमाते हैं वो इलाज और दवाओं पर खर्च कर देते हैं।
वैध या अवैध रूप से चलने वाली क्रशरें यहां के लोगों के लिए रोजगार का एक बड़ा स्रोत हैं। इस कारण यहां लोग दो मतों में बंटे हुए हैं। एक जिनका मानना है कि इनसे फायदे कम और नुकसान ज्यादा हो रहा है। दूसरे वे लोग हैं जिन्हें इनसे फायदा मिला हुआ है।
वे कहते हैं कि यहां से क्रशरों को हटाना तब तक ठीक नहीं है जब तक रोजगार की दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाती। मौसम की अनियमितता और लगातार पड़ रहे सूखों से खेती करना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में अगर क्रशरें यहां से हटाई जाती हैं तो आसपास के दस पन्द्रह गांवों के लोगों को एक साथ पलायन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। एक साथ इतने लोगों का पलायन किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है और इनको यहां से हटाना कोई विकल्प भी नहीं है।
पंकज सिंह बताते हैं कि महोबा जिले में दो सौ से ज्यादा क्रशर हैं, जिसमें डेढ़ सौ के लगभग अकेले कबरई में हैं। क्रशरों का सीधा संबंध नेताओं से है जो नहीं चाहते कि ये बंद हों। भले ही उससे पर्यावरण और लोगों की जिंदगी पर कुछ भी प्रभाव पड़े।