पिछला सिंहस्थ मेला की यादें वैसे तो नही आती पर पुण्यदाई क्षिप्रा नदी की फिर वही दारुण दशा देखकर तिल तिल कर मारी जा रही नदियों का दर्द उभर आता है। गन्दगी सीवर व विषाक्त तत्वों से भरे किसी कुंड में आप कितनी देर रह पायेंगे ?
फिर नदियों का जल जीवन प्रदूषित सीवर में कैसे जीवित रहता होगा। इसलिए क्षिप्रा व अन्य सरिताओं को गन्दगी से मुक्त करना कितना जरूरी है। क्षिप्रा शुद्धि का वचन देकर गए गुणी धनी शिर्ष साधु संतों, समाज व सरकार से वह खुद को बचाने की गुहार बार बार लगाती रही है क्योंकि ये दर्द जनता व सरकार का दिया हुआ है इसलिए आस भी इन्हीं से लाजिमी है।
क्या कारण है इन्सानी पाप ढोती क्षिप्रा की दारुण कथा सन्त समाज, जनता व सरकार को किसी बड़े धार्मिक पर्व पर या चुनाव व सिंहस्थ के समय ही याद आती है? बावजूद इसके मृत प्रायः अवस्था में ला दी गई वह पावन पवित्र सरिता, सरकार व समाज के नदी व प्रकृति विरोधी व्यवहार, अतिदोहन व मंतव्यों को पूरा कर देती है। इसलिए कि इसी बहाने कोई सच्चा धर्मालु उसकी सुध ले लेगा।
बीते सिंहस्थ से पहले वाले सिंहस्थ की गाथा भी कम नही थी जब क्षिप्रा को गन्दगी से बचाने का भ्रम पैदाकर सीवरेज की गंदगी जगह जगह रोकी। यह खेल बारिश ने बिगाड़ दिया। देखते देखते सीवर के सरकारी बांध टूटते चले गए। यह और भी चिंताजनक हो गया था क्यों कि उस समय क्षिप्रा नदी में शाही स्नान की बदहाली व मोक्ष की डुबकी लगनी थी।
इतना सब होने के बाद भी 24 बरस के दो सिंहस्थ में श्रद्धालुओं ने नदी के अशुद्ध पानी को भी अमृत मानकर पापों की धुलाई में कोर-कसर बाकी नही छोड़ी थी। साधु-संतों ने भी शाही स्नान से खूब पुण्य हासिल किया होगा।
इन सबमे से अधिकांश ने फिर पलटकर क्षिप्रा की ओर नही देखा है। तब से अब तक सहज, सरल पुण्यदायी, गम्भीर, नर्मदा नदी से लाये उधार के व कान्ह के भयावह दुषित पानी से किसी तरह बहती क्षिप्रा नदी अनगिनत श्रद्धालुओं के पापों की गठरियाँ जैसे-तैसे ढोती रहीं।
भगवान विष्णु हो या महाकाल किसी ने भी उस युग मे नहीं सोचा होगा कि पवित्र गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों का पुण्यदायी होना ही उनका दुर्भाग्य हो जायेगा! क्योंकि इस समय तक तो प्रकृति के वरदानों पर मानव के पाप बहुत भारी पड़ रहे हैं।
श्रद्धालुओं की छोड़ें , राजनीति व सरकारों के भी पाप धोते- धोते पवित्र नदियां, मैला ढोने के नाले बना दी गई है। ये नदियां समाज व सरकारों के अनैतिक आचरण, व्यवहार, लालच, भोग-विलास आदि के खतरनाक प्रदुषण से शापित कर दी गईं हैं। इस श्राप से मुक्ति की कामना करती तड़पती क्षिप्रा को उम्मीद थी कि एक नहीं तो दूसरे सिंहस्थ के बाद ही सही, सरकार व समाज उसे नया जीवन देकर स्वच्छ कर देगा। यह उम्मीद भी भ्रम साबित हुईं।
भला हो ,उन संतों का, जिन्होंने कुछ समय पहले क्षिप्रा की दुर्गति पर हल्ला मचाया व आंदोलन की राह पकड़ी। तब कुछ दिनों के बाद सरकार जागी। हमेशा की तरह दौड भाग हुई फिर वही ढाक के तीन पात। जब भी कोई धार्मिक पर्व आ जाए तो जल प्रदुषण याद आ जाता है।
बस, इतने तक ही क्षिप्रा की चिंता होती है।पवित्र नदियों की आवाज भी सनातनी धर्म की वाहक सरकारे ही नही सुनती। बीते दिनों साधु संतों ने विरोध किया तो सरकार ने सम्बन्धित 4 जिलों के अफसरों को दौड़ा दिया। सख्ती हुई।
बहते जल की जांच होकर निगरानी हो रही है। पर इतने से बात नहीं बनने वाली है। क्षिप्रा में कान्ह नदी/नाले का प्रदुषण और दूसरे क्षेत्रों की गन्दगी भी स्वार्थी तत्वों द्वारा प्रवाहित/समाहित करवाई जा रही है इसलिए उपाय नाकाफ़ी व तात्कालिक है, टिकाऊ नही।
इन सब परिस्थितियों पर विचार के बाद प्रसिद्ध शहर नियोजक व उज्जैन विकास प्राधिकरण के टाउन प्लानर रहे जयवंत दाभाड़े व उनके टेक्नोक्रेट साथियों ने हालातों के मद्देनजर अपने तईं बीड़ा उठाया है।
उज्जैन वाले सोशल ग्रुप समन्वयक दाभाड़े ने आईआईटी व अन्य इंजीनियर्स के साथ पर्यावरण संरक्षण में लगे मित्रों ने तकनीकी उपाय खोजे हैं। इन पर बड़ी धन राशि खर्च हो चुकी है।
यह समूह अपने तईं करीब 50 लाख रुपये क्षिप्रा शुद्धि के लिए जुटाएगा। क्षिप्रा के पानी को स्वच्छ रखने के लिए दाभाड़े को राष्ट्रीय संघ सेवक संघ व स्वयंसेवी सव जनसेवा वाले समुहों का सहयोग मिल रहा है।
विषय के जानकार मिलकर संशोधित नई तकनीकों के प्रयोग प्रदूषित पानी को साफ करने के लिए कर रहे है। क्षिप्रा में अभी भी बीओडी सीमा से कही ज्यादा है। युट्रोफ़ीकेसन भी प्रदुषण बढ़ा रहा है।
इधर, इंदौर व उज्जैन शहर की गंदगी को कान्ह व क्षिप्रा में नही मिलने दिया जा रहा है। ऐसे दावे किए गए हैं। तो फिर सवाल पूछा जाता है कि क्षिप्रा का पानी, गन्दगी का शिकार क्यों हो रहा है?
प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के एक पूर्व अधिकारी डॉ. दिलीप वाघेला कहते हैं फैक्ट्री वाले अपने प्रदुषण को उपचारित नहीं करके कान्ह व क्षिप्रा में डाल देते है, इससे प्रदूषित पानी व खतरनाक अपशिष्ट नदियों को जहरीला बना देता है।
जानकर बताते है कि नदी के जल में हैवी मैटल भी है। अब भी समर्पित प्रयास नहीं किए तो यह हालात बद से बदतर होते जाएंगे हमेशा की तरह। सिर्फ सरकार कुछ कर देगी यह उम्मीद बेकार है।
जनता जनार्दन की धार्मिक जीवन शैली में पूजा पाठ के इतर नदियों को शुद्ध पानी के साथ पवित्र बनाए रखने का दायित्व बोध नहीं आएगा तब तक क्षिप्रा व बाकी सब नदियों की किस्मत में सरकारों व जन कृपा से गन्दगी ढोते, बहते रहने का मानवीय अभिशाप ही बचा है।
जाहिर है कमी इच्छा शक्ति की है। इंसान व सरकार की सुविधा जनक जीवनशैली और फटाफट परिणाम पाने की लालसा ने नदियों को पूरी तरह संकट में डाल दिया है। सरकारी तंत्र के भरोसे हर समस्या का समाधान डाल देने से संकट बढ़ते जा रहे है। यह अनेकों बार साबित हो गया है।
बीते सिंहस्थ के ही उदाहरण लें क्षिप्रा और नर्मदा नदी को स्वच्छ, हरा-भरा करने के दावे व वादे करते रहने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से सन्तों ने दोनों नदियों को साफ सुथरा व सदा नीरा बनाने का संकल्प लिया था।
इस अवसर पर कुम्भ के क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप की भूमिका में माने जा रहे प्रमुख राष्ट्रीय सन्त समाज ने भी उस समय क्षिप्रा नदी के लिए वही सब कहा था जो नेता अफसर अक्सर कहते रहते हैं।
छह बरस पहले इन्हीं दिनों में उज्जैन के सिंहस्थ मेला में विशिष्ट शासकीय अथितियों के रूप में पधारे सन्त जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर अवधेशानंद महाराज, स्वामी चिदानन्द महाराज, जैन मुनि सन्त रमेश जी मुन्जी ने नर्मदा क्षिप्रा एक्शन ग्रुप बनाकर दोनों नदियों को पुनः स्वच्छ व हरियाली से आच्छादित करने का वचन दिया व शपथ दिलाई।
सरकार से भी वादा कराया। कुम्भ की आखिरी आहुति स्वामी चिदानन्द महाराज के साथ देते हुए स्वच्छता व सरिता का नारा खुद शिवराज सिंह ने दिया था। यह अनुकरणीय था परन्तु परदेशियों की तरह सब ऐसे गए कि अपने हाल पर रोती बिलखती क्षिप्रा व नर्मदा को पिछे मुड़कर किसी ने नहीं देखा।
कुम्भ के तम्बू उखडे 6 बरस हो गए। यह जरूर हुआ नर्मदा की घाटी में 6 करोड़ पौधे वर्ल्ड रिकॉर्ड के लिए लगे। हो सकता है इनमें से बहुत कम पौधों के जीवित रहने का भी रिकॉर्ड बना हो।
6 बरस बाद आने वाले सिंहस्थ का आधा सफर पूरा हो गया लेकिन दम तोड़ती अन्य पवित्र नदियों की तरह क्षिप्रा की पीड़ा वेदना भी वैसी ही है जैसी तीन सिंहस्थ पहले थी। 2004 के सिंहस्थ में क्षिप्रा को नर्मदा व गम्भीर नदी के जल व टैंकरों के भरोसे छोड़ा गया।
यह सरकारी भगीरथी प्रयास बारिश में रेत के किले की तरह ढह गये थे। रातभर सरकार की सांसें ऊँची नीची होती रही। बरसते पानी व आँधी तूफान के बीच आधी रात गए अकेली सरकार (शिवर) ढहते तम्बुओं के डंडो को पकड कर सिंहस्थ को बचाने के जतन करते रहे। यह जतन बेकार साबित हुए।
हफ्तों से रोके गए कुंभ मेले व उज्जैन के गन्दगी भरे सीवरेज को रोकने के लिए बनाए बन्धन भरभराकर बह गए। क्षिप्रा व उसके चारों ओर सिंहस्थ के अमृत की जगह मल मूत्र व भयावह विषाक्त प्रदूषण का रैला था। क्षिप्रा के रौद्र रुप से सरकार व समाज ने कोई सबक नहीं लिया।
यह साबित करता है कि समाज व सरकार में धर्म का पाखंड हावी है। ऐसे में नदियों के स्वच्छ होने की आस बेकार है। इन हालातों में यह उम्मीद की किरण है कि विपरीत परिस्थितियों में कुछ टेक्नोक्रेट व पर्यावरण मित्रों ने क्षिप्रा को अपने बूते गन्दगी से राहत दिलाने की चुनौती स्वीकार की है।