जयप्रकाश चौकसे जी के व्यक्तित्व और उनकी उपस्थिति को ‘परदे के पीछे ‘ से इतर भी देखने वाले नज़दीकी मित्रों के लिए यह एक बड़ी और अच्छी खबर है कि उन्होंने अपने चर्चित कॉलम को अंतिम रूप से ‘विदा’ (अलविदा नहीं!) कह दिया है।
अच्छी खबर इस मायने में कि कॉलम को लिखने से बचने वाला अपना क़ीमती वक्त अब उस सबको और ज़्यादा सोचने और बाँटने में खर्च कर सकेंगे जिसे उन्होंने प्रयत्नपूर्वक सार्वजनिक नहीं होने दिया ; जिसका भंडार पिछले छब्बीस सालों के दौरान कॉलम के ज़रिए पाठकों को सौंपी गई जानकारी से कई गुना ज़्यादा और अलग है।
चौकसे जी को निकटता से जानने वाले लोगों को पता है कि पूर्व में वे जिस तरह का लेखन इसी कॉलम में करते थे और जिसे जारी भी रखना चाहते थे उसे तो उन्होंने काफ़ी पहले ही बंद-सा (या सीमित ) कर दिया था।
चौकसे जी फ़िल्मों को ही पिछले पाँच-छह दशकों से अपनी हरेक साँस के साथ जी रहे हैं। उन्होंने स्वयं की फ़िल्मों का निर्माण भी किया है।अतः उन्होंने कुशलतापूर्वक अपने पाठक-दर्शकों को कभी पता भी नहीं चलने दिया कि कब और कहाँ से शूट किए जा चुके दो-चार दृश्य या आलोचकों को चुभ जाने वाले संवाद सेंसर की कैंची तक पहुँचने के पहले ही ख़ूबसूरती के साथ कॉलम से ग़ायब कर दिए हैं।
चौकसे जी जिस प्रकार का लेखन करने की क्षमता रखते हैं वह उससे भिन्न होता जो हाल के कठिन सालों में प्रकाशित होकर प्रशंसा पाता रहा है। कहा जा सकता है कि चौकसे जी इन दिनों जो कुछ लिख रहे थे अगर वह भी पाठकों के दिलों को इतना छू रहा था तो उनका वह लिखा जिसे वे बातों-बातों में सहज रूप से व्यक्त करते रहते हैं अगर सार्वजनिक हो जाता (या हो जाए) तो उसके कारण निकलने वाली ‘वाह-वाह’ की केवल कल्पना ही की जा सकती है।
चौकसे जी में राजकपूर की आत्मा का निवास है। राज साहब एक विचारवान कलाकार थे। वे एक ग़ैर-वैचारिक फ़िल्मी दुनिया में अलग से नज़र आने वाले वैचारिक नायक थे।इसीलिए चौकसे जी के लेखन में भी राजकपूर का फटे-हाल ‘आवारा’ और ‘जोकर’ लगातार चहलक़दमी करता नज़र आता है।
जिस तरह से आज के जमाने के व्यावसायिक निर्माता-निर्देशकों के बजटों में नेहरू के सोच वाला राजकपूर फ़िट नहीं होता ,चौकसे जी का असली लेखन भी परदे के पीछे ही रहा।
राजनीतिक परिस्थितियों के चलते परदा पारदर्शी नहीं बल्कि मलमल का रखा गया (खादी या कॉटन का नहीं ) पर पढ़ने वाले उसमें भी बॉक्स ऑफ़िस के मज़े के साथ-साथ बम्बई के सम्पन्न राजनीतिक-फ़िल्मी अतीत की झलक प्राप्त करते रहे।
चौकसे जी के लेखन को फ़िल्मी पत्रकारिता की तंग सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता।उनके लिखे को ग़ैर-फ़िल्मी दुनिया के लोग ही ज़्यादा पढ़ते रहे हैं। चौकसे जी के साथ मुंबई के विशाल फ़िल्मी संसार में उन तमाम हस्तियों से मिलने ,बात करने और अख़बार के लिए लिखवाने के अवसर मिले जिनका ज़िक्र वे अपने कॉलम में समय-समय पर करते रहे हैं।
चौकसे जी का जो सम्मान (स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से) अब उनके मुंबई में निवास नहीं करते हुए भी क़ायम है वह उन बड़े-बड़े फ़िल्मी पत्रकारों-लेखकों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है जो मायानगरी में ही जीवन जी रहे हैं।
चौकसे जी अगर अपना कॉलम नहीं लिखते तो दीन-दुनिया को कभी पता ही नहीं चल पाता कि फ़िल्मों के निर्माण ,उनके कथानक और उन्हें बनाने वालों की निजी जिंदगियों को परदों में क़ैद रखते हुए भी कितनी ख़ूबसूरती के साथ बेपरदा किया जा सकता है।
एक ऐसे समय जबकि चारों ओर सकारात्मक पत्रकारिता की सूनामी बरपा है, अपना कॉलम बंद करके चौकसे जी ने (शायद) दैनिक भास्कर के (वर्तमान) सम्पादकों को भी राहत प्रदान करने का काम कर दिया है।
चौकसे का लिखा कॉलम जब तक सम्पादकों के टेबलों तक नहीं पहुँच जाता था, उनमें धुकधुकी बनी रहती थी कि उन्होंने कोई ऐसी नहीं टिप्पणी कर दी हो (या नाम जोड़ दिए हों ) कि उसे हटाने या काटने के लिए ‘ऊपर’ से निर्देश लेना पड़ें! इसे हिंदी पत्रकारिता की बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए कि एक कॉलम लेखक के सम्मान में अख़बार के पहले पन्ने पर उसके मालिक विदाई-गीत लिख रहे हैं।
चौकसे जी ने अपने विदाई कॉलम में रणधीर कपूर , सलीम साहब , जावेद अख़्तर ,बोनी कपूर आदि का ज़िक्र किया है। रणधीर कपूर से उनके सम्बंध उस लम्बी यात्रा की लगभग अंतिम कड़ी है जो राज साहब के साथ शुरू हुई थी और जो उन्हें उनके (राजकपूर के) तीनों बेटों के साथ इंदौर भी लाई थी।
सलीम खान साहब तो चौकसे जी और राजेंद्र माथुर साहब के इंदौर शहर के ही हैं। आज के जमाने के नायक-नायिकाओं के सम्पर्क में तो चौकसे साहब के छोटे बेटे आदित्य हैं जो मुंबई में ही बस गए हैं। पर आदित्य ने अभी लिखना शुरू नहीं किया है।
मुझे थोड़ी जानकारी है कि अपने कॉलम को लेकर चौकसे जी कितने दबाव में रहते आए हैं। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से लड़ते हुए भी वे उनका लिखा कॉलम जब तक हरकारे द्वारा घर से कलेक्ट किया जाकर , फ़ैक्स होकर दैनिक भास्कर के ऑफ़िस तक ठीक-से पहुँच नहीं जाता और बिना किसी काट-छाँट के अगली सुबह प्रकाशित नहीं हो जाता चौकसे जी का तनाव क़ायम रहता था ; और तब तक तो अगले दिन का नया कॉलम लिखने का दबाव शुरू हो जाता था।
छब्बीस सालों तक बिना एक दिन का भी चैन लिए की गई लगभग दो बनवासों जितनी यात्रा की समाप्ति के बाद प्राप्त हुई इस आराम और इत्मिनान की ज़िंदगी के चौकसे साहब पूरी तरह से हक़दार हैं।
देश भर में फैले हुए चौकसे साहब के लाखों पाठकों को इस उपलब्धि पर जश्न मनाना चाहिए कि वे अब और ज़्यादा सालों तक हमें उपलब्ध रहेंगे।उनके उस सारे अनलिखे को भी उनकी आँखों की भाषा के ज़रिए या बातचीत में हम पढ़ सकेंगे जो अन्यान्य कारणों से व्यक्त होने से रह गया है।चौकसे साहब के ‘परदे से बाहर’ आ जाने का स्वागत किया जाना चाहिए !