नृत्य इंसान की नैसर्गिक जरूरत है और अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम भी, लेकिन हर कोई नाच नहीं सकता। नाचना एक शास्त्रीयता है। देह को नियंत्रित कर अपने इशारों पर संचालित करना जितना महिलाओं के लिए आसान है उतना शायद पुरुषों के लिए नहीं, लेकिन बिरजू महाराज ने इस मिथक को तोड़ा और अंतत: वे नृत्य की कथक शैली के पर्याय बन गए। उन्हें मंच पर नाचता देखकर किसी भी दर्शक का मन मयूर नाचने के लिए विवश हो जाता था। लेकिन अब बिरजू महाराज कभी नहीं नाचेंगे। वे चिर निद्रा में लीन हो गए हैं।
जब से होश संभाला है और नृत्य संगीत के बारे में समझ विकसित हुयी है, तभी से मैं बिरजू महाराज को थिरकते हुए देख रहा हूँ। कोई आधी सदी से बिरजू महाराज को जानता हूँ। तब से जब उन्हें नाचते हुए देखने के लिए सीधे मंच के सामने ही बैठना पड़ता था। तब न घर-घर टीवी हुआ करता था और न सोशल मीडिया। लखनऊ के बिरजू महाराज ने नृत्य की सबसे पुरानी शैली ‘कथक’ को चुना था। चुना क्या था कथक उन्हें विरासत में मिला था। कहा जाता है कि ‘कथक’ महाभारतकालीन नृत्य शैली है।
नृत्य यानि कथक बिरजू महाराज की धमनियों में बहता था। वे खानदानी नर्तक थे। कथक में बिरजू महाराज के घराने को कालिका बिंदादीन घराना कहा जाता था। उनके पितामह और पिता अच्छन महाराज भी सिद्धहस्त ‘कथक’ गुरु थे। आप कह सकते हैं कि बिरजू महाराज को कथक घुट्टी में मिला था। बिरजू महाराज का पूरा घर नर्तक था, चाचा, ताऊ सब एक से बढ़कर एक नर्तक थे। बिरजू महाराज न केवल अच्छे नर्तक थे बल्कि एक उच्चकोटि के गायक भी थे। मैंने उन्हें पहली बार खजुराहो के एक समारोह में नाचते हुए देखा था। मेरे पिता उन दिनों खजुराहो के निकट बिजावर में राजस्व निरीक्षक थे। बिरजू महाराज को नाचते देखा मैं उनका मुरीद हो गया था, लेकिन उनसे मिल नहीं पाया।
बिरजू महाराज से पहली भेंट कब हुई मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि जब उनसे मिला तो वे एकदम युवा थे और उनकी देह में बिजलियाँ बसती थीं। मुंह में पान चबाते हुए बिरजू महाराज में जो सहजता थी वो भी उनके नृत्य की ही तरह लाजवाब थी। बिरजू महाराज से अंतिम भेंट कई वर्ष पहले ग्वालियर में ‘उद्भव’ संस्थान के एक समारोह के सिलसिले में हुई थी। इतने वर्षों में कुछ भी नहीं बदला था, सिवाय उनकी काया में आयी झुर्रियों के।
पूरी दुनिया में ‘कथक’ का ध्वज फहराने वाले बिरजू महाराज नृत्य के महाराजा ही थे। उन्होंने आजीवन ‘कथक’ को समृद्ध करने का ही काम किया।
पहले भारतीय कला केंद्र के जरिये और बाद में अपनी संस्था कलाकेंद्र के जरिये। बिरजू महाराज ने विवादों की फ़िक्र नहीं की। आरोप-प्रत्यारोप से बचते रहे, लेकिन जहां जरूरत पड़ी वे बोले भी। उन्होंने गुरु शिष्य परम्परा को खूब समृद्ध किया। कथक तो वाजिद अली शाह खुद भी करते थे लेकिन बिरजू महाराज की तरह वे खुद कथक गुरु नहीं थे। बिरजू महाराज ने कथक में नयी संभावनाओं को तलाशा। अनेक पौराणिक नृत्य नाटिकाओं को कथक की विषय वस्तु बनाया, इसी वजह से कथक की लोकप्रियता लगातार बनी रही।
जगन्नाथ महाराज के कुलदीपक बिरजू महाराज का नाम बृजमोहन था लेकिन घर वाले प्यार से उन्हें बिरजू कहते थे और बाद में वे इसी नाम से स्थापित भी हुए। सचमुच बिरजू महाराज की हर नृत्य मुद्रा मन मोहक थी। उनके नृत्य में इतना लास्य था कि उसका वर्ण नहीं किया जा सकता। मात्र 7 साल की उम्र से मंचों पर थिरकनें बिखेरने वाले बिरजू महाराज को उनके अपने चाचाओं ने निखारा, क्योंकि उनके पिता का निधन जब हुआ तब वे मात्र 9 साल के थे।
बिरजू महाराज बताते थे कि वे नृत्य के लिए ही धरती पर आये थे। उन्होंने अपने जमाने के मूर्धन्य फिल्म निर्माता निर्देशक सत्यजीत रे के कहने पर शतरंज के खिलाड़ी फिल्म के लिए न केवल नृत्य संयोजन किया बल्कि खुद नाचे भी। बाद में उनकी इस कला का इस्तेमाल देवदास, डेढ़ इश्किया, उमराव जान और बाजी राव मस्तानी के निर्माताओं ने भी किया। लेकिन बिरजू महाराज मंच से कभी विमुख नहीं हुए। मंच उनकी पहली प्राथमिकता बनी रही।
जैसे बिरजू महाराज ने कथक को अपना सब कुछ दिया उसी तरह कथक ने भी बिरजू महाराज को तमाम मान-सम्मान दिया। भारत सरकार ने उन्हें पदम् विभूषण से सम्मानित किया, इसके अलावा संगीत नाटक अकादमी सम्मान। कालिदास सम्मान, लता मांगेशकर सम्मान, फिल्म फेयर सम्मान उनके पास खुद चलकर आये, उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि से भी सम्मानित किया गया।
बिरजू महाराज ने ताल की थापों और घुँघुरुओं की रुनझुन को महारास के माधुर्य में तब्दील करने में महारत हासिल की थी। पांच बच्चों के पिता बिरजू महाराज जितने कथक के प्रति समर्पित थे उतना ही प्यार वे अपने परिवार से भी करते थे। उन्होंने अपना नृत्य कौशल अपने बच्चों के जरिये अक्षुण्ण रखने की पूरी कोशिश की।
एक जमाने में कथक राज्याश्रय प्राप्त नृत्य था। कथक के तीन प्रमुख घराने थे, इनमें जयपुर, लखनऊ और बनारस घराना प्रसिद्ध था, लेकिन एक रायगढ़ घराना भी पहचान बना चुका था। बिरजू महाराज कथक के लिए तबले के अलावा पखावज पर जब 108 घुंघरुओं का वजन अपने पांवों में बांधकर थिरकते थे तब ऐसा लगता था जैसे पूरा मंच थिरक रहा हो।
कथक में ठाठ, आमद, सलामी, परन, गत, लड़ी और तिहाई का विशेष स्थान है। बिरजू महाराज एक-एक चीज को अपने दर्शकों को समझाते हुए नाचते थे। उन्होंने कथक के लखनऊ घराने को जो मान-प्रतिष्ठा दिलाई उसके लिए ये घराना हमेशा उनका ऋणी रहेगा।
नृत्य के इस आधुनिक देवता को कल की पीढ़ी एक किंवदंती मानेगी लेकिन हमारी पीढ़ी गर्व से कह सकेगी कि हमने बिरजू महाराज को देखा है। उनका नृत्य अभिनय, भाव भंगिमाओं और अंग संचालन के लिहाज से सबसे अलग था। वे सचमुच ब्रज के मोहन की तरह नाचते थे। विनम्र श्रद्धांजलि!
(आलेख वेबसाइट मध्यमत.कॉम से साभार)