मांग की कमी से जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था को २७ रुपये प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति देने वाला कृषि सेक्टर क्या उबार सकता है?


अनाज जैसे महत्वपूर्ण माल का उत्पादन करने के बाद महज ₹27 प्रतिदिन की कमाई करने वाला कामगार अगर मेहनत की वाजिब कीमत हासिल करे तो भारत की अर्थव्यवस्था में घटती हुई मांग दर में भारी इजाफा हो सकता है, भारत की अर्थव्यवस्था भी आगे बढ़ेगी और भारत का आम आदमी भी आगे बढ़ेगा।


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रोटी-कपड़ा Published On :

बखान करने और गला फाड़कर सतही अंदाज़ में मंच से भाषण देने से देश नहीं चलता है। ना ही विज्ञापनों से देश चलता है। देश उन नेताओं के बूते की बात भी नहीं जो खूब पैसा और सांप्रदायिकता झोंक कर चुनाव जीतते हैं। देश को सुचारु रूप से चलने के लिए सबकी जेब में ठीक-ठाक जिंदगी जीने लायक पैसा होनाआवश्यक है। पैसा कमाने के लिए रोजगार होना चाहिए। रोजगार पैदा करने के लिए समृद्ध अर्थव्यवस्था होनी चाहिए। अगर ठीक से भारत के नागरिकों की समृद्धि आंकी जाए तो भारत की क्रूर बदहाली ही सामने दिखती है।

अगर खर्चों के आधार पर भारत की जीडीपी को देखें तो भारत की जीडीपी का तकरीबन 55 से 60 फ़ीसदी हिस्सा प्राइवेट फाइनल कंजप्शन एक्सपेंडिचर से बनता है। तकरीबन 33 फ़ीसदी हिस्सा उद्योग धंधों में किए गए निवेश से बनता है। बचा-खुचा तकरीबन 10 से 11 फ़ीसदी हिस्सा सरकारी खर्चों से जुड़ा होता है।

कहने का मतलब यह कि अगर लोगों ने खर्च करना बंद कर दिया तो भारत की पूरी जीडीपी गड़बड़ा सकती है। अपनी रफ्तार गंवा सकती है। क्योंकि भारत की जीडीपी का तकरीबन 60 फ़ीसदी हिस्सा प्राइवेट कंजप्शन से जुड़ा हुआ है। यही हिस्सा उद्योग धंधे और कल कारखानों पर होने वाले निवेश को भी प्रभावित करता है। इसलिए भले ही कॉर्पोरेट टैक्स में कमी करके सरकार यह बताना चाहे कि उद्योग धंधों का विकास होगा, लेकिन यह फॉर्मूला काम नहीं करता। क्योंकि जब खरीदने वाले ही नहीं रहेंगे तो उत्पादन धरा का धरा रह जाएगा। निवेश धरा का धरा रह जाएगा। उद्योग धंधे धरे के धरे रह जाएंगे। यही हो रहा है। कॉरपोरेट को दिया गया प्रोत्साहन अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं ला पा रहा है।

जाने-माने आर्थिक पत्रकार उदित मिश्रा इस पूरे खेल को समझाते हुए इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि साल 2004 -2005 की जीडीपी की कीमतों को आधार बनाते हुए देखें तो साल 2011-12 तक भारत की अर्थव्यवस्था में प्राइवेट फाइनल कंजप्शन की बढ़ने की दर 8.2 फ़ीसदी सालाना रही है। साल 2011-12 की कीमतों के आधार पर जीडीपी को देखें तो साल 2011-12 से लेकर साल 2020 तक भारत की अर्थव्यवस्था में प्राइवेट कंजप्शन में बढ़ने की दर घटकर 6.4 फ़ीसदी सालाना ही रह गई है।

साल 2017-18 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में गिरावट शुरू हुई। साल 2020 में कोरोना की महामारी ने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। इस तरह से देखें तो साल 2012 से लेकर साल 2021-22 से 1 वर्ष तक प्राइवेट कंजप्शन बढ़ने की दर महज 5 फ़ीसदी रही है। अगर 2017-18 की जीडीपी के आधार पर देखें तो प्राइवेट कंजप्शन बढ़ने की दर महज 3.2 फीसदी सालाना रही है। मतलब पिछले 5 साल की कहानी यह है कि लोगों ने खर्च करना कम कर दिया है। खर्च कम करने के पीछे तमाम कारण होते हैं। तमाम कारण यही बताते हैं कि लोगों का जीवन स्तर कमजोर हुआ है। लोगों की समृद्धि उनसे बहुत दूर चली जाती रही है।

आरबीआई के ऑर्डर बुक्स, इन्वेंटरी एंड कैपेसिटी यूटिलाइजेशन सर्वे के आंकड़े भी इसी तरफ इशारा करते हैं। इस सर्वे के मुताबिक कंपनियां और फर्म अपनी क्षमता का 75% भी इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं। अपनी कुल क्षमता से 25 फ़ीसदी कम माल बनाने के बाद भी माल बिक नहीं पा रहा है। मतलब कई छोटी-मोटी कंपनियां डूब गई होंगी। कई कंपनियां रोजगार देने से कतरा रही होंगी। कई कंपनियां कर्मचारियों को कम वेतन दे रही होंगी और कई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों की छंटनी कर दी होगी।

इस गणित के साथ भारत के कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति कमाई से जुड़े हाल फिलहाल के आंकड़े को देखना चाहिए। भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र से जुड़ा सिचुएशन एसेसमेंट रिपोर्ट जारी किया है। इस सर्वे से पता चलता है कि साल 2018-19 में भारत के किसानों ने प्रतिदिन महज ₹27 की कमाई की। भारत के कृषि क्षेत्र में भारत के कार्यबल का तकरीबन 40 फ़ीसदी हिस्सा लगा हुआ है। कृषि क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। लेकिन कमाई महज ₹27 प्रतिदिन की है।

सरकार कॉरपोरेट सेक्टर को प्रोत्साहन देने के बजाय, कॉरपोरेट टैक्स कम करने की बजाय, कृषि क्षेत्र से जुड़े कार्यबल को केवल वाजिब आमदनी देने की ईमानदार कोशिश करे तो भारत की पूरी अर्थव्यवस्था पटरी पर आ सकती है। अनाज जैसे महत्वपूर्ण माल का उत्पादन करने के बाद महज ₹27 प्रतिदिन की कमाई करने वाला कामगार अगर मेहनत की वाजिब कीमत हासिल करे तो आप खुद सोच कर देखिए कि भारत की अर्थव्यवस्था में घटती हुई मांग दर में कितना बड़ा इजाफा होगा। भारत की अर्थव्यवस्था भी आगे बढ़ेगी और भारत का आम आदमी भी आगे बढ़ेगा। यह सच्चाई कोई रॉकेट साइंस नहीं है। भारत के सभी अर्थशास्त्रियों को दिख रही होगी। लेकिन सवाल यही है कि आखिरकर सरकार कृषि क्षेत्र को फोकस कर नीतियां क्यों नहीं बनाती, जहां पर भारत की सबसे बड़ी आबादी अपनी जिंदगी का गुजारा करने के लिए लड़ रही है?

 

लेखकः अजय कुमार

न्यूज क्लिक से साभार



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