कर्नाटक के नाटक ने छोड़े ऐसे ही और नाटकों की पुनरावृत्ति के संकेत


कर्नाटक में नाटक का पटाक्षेप इस बार इतनी आसानी से हुआ कि उसमें नाटकीयता का कोई पुट बचा ही नहीं। लेकिन कर्नाटक के नाटक ने ऐसे ही और नाटकों की पुनरावृत्ति के संकेत छोड़ दिए हैं।


rakesh-achal राकेश अचल
अतिथि विचार Published On :
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भारत जैसे बड़े देश की केंद्रीय सत्ता में बैठी भाजपा शासित राज्यों में पहला विकेट कर्नाटक के उस्ताद माने जाने वाले वयोवृद्ध नेता येदियुरप्पा का गिरा। येदी ने चुपचाप अपना इस्तीफा पार्टी हाईकमान के निर्देश पर राज्यपाल को सौंप दिया।

कर्नाटक में नाटक का पटाक्षेप इस बार इतनी आसानी से हुआ कि उसमें नाटकीयता का कोई पुट बचा ही नहीं। लेकिन कर्नाटक के नाटक ने ऐसे ही और नाटकों की पुनरावृत्ति के संकेत छोड़ दिए हैं।

देश में राजनीतिक अस्थिरता के लिए कांग्रेस ही सुर्ख़ियों में रहती रही है। कांग्रेस को मध्यप्रदेश में हुए नाटक में अपनी सरकार गंवाना पड़ी लेकिन राजस्थान, और छत्तीसगढ़ में भाजपा सेंध नहीं लगा पायी।

भाजपा देश में बचे कुल 3 कांग्रेस शासित राज्यों को हड़पने के फेर में ही लगी रही, उधर उसके हाथ से कर्नाटक जाते-जाते बचा। भाजपा को झक मारकर कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन करना पड़ा।

भाजपा यदि कर्नाटक में हेकड़ी दिखाती तो वहां भाजपा की सरकार खतरे में पड़ सकती थी। बहरहाल कर्नाटक में जातीय आधार पर बोम्‍मई को येदियुरप्पा का उत्तराधिकारी बनाया गया है। बसवराज सोमप्पा बोम्मई कर्नाटक के अगले मुख्यमंत्री बनाये गए हैं। वे ‘जनादेश’ से नहीं ‘मनादेश’ से मुख्यमंत्री बने हैं।

बेंगलुरू में हुई भाजपा विधायक दल की बैठक के बाद केंद्रीय मंत्री और पार्टी पर्यवेक्षक धर्मेंद्र प्रधान ने उनके नाम का ऐलान कर दिया। 78 साल के येदियुरप्पा की तरह 61 साल के बोम्मई भी लिंगायत समुदाय से आते हैं। वे राज्य के गृहमंत्री हैं।

दुर्भाग्य से उत्तर भारत की तरह दक्षिण भारत में भी राजनीति का पहला आधार ही जाति है। जाहिर है कि कोई कितना भी प्रगतिशील बना रहे जातीय आधार से मुक्त नहीं हो पाया है।

दरअसल लिंगायत समुदाय की कर्नाटक में 17 फीसदी आबादी है और 224 में से 100 विधानसभा सीटों पर उसका सीधा असर है। ये भाजपा के परंपरागत वोटर रहे हैं। पिछली बार 55 विधायक इसी समुदाय से चुने गए थे।

भाजपा किसी भी दूसरे विकल्प के बारे में सोच ही नहीं सकती थी। येदियुरप्पा पुराने खिलाड़ी हैं, उनके ऊपर पर 2011 में भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। 2012 में उन्होंने भाजपा से अलग होकर कर्नाटक जनता पक्ष नाम की पार्टी बनाई।

2013 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा को सीधी चुनौती दी। इससे लिंगायत वोटर बंट गए और भाजपा को 70 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। उसे महज 40 सीटें मिलीं। वोट प्रतिशत भी 33.9 से घटकर 19.9 फीसदी पर आ गया।

जब येदियुरप्पा पार्टी में लौटे तो अपने वोट बैंक के साथ। जाहिर है कि इसका भाजपा को फायदा हुआ और उसने 2018 के चुनाव में 104 सीटें जीत लीं। येदियुरप्पा इसे अपनी अग्निपरीक्षा कहते हैं।

सत्ता से अलग येदियुरप्पा चौथेपन में अब पार्टी से तो विद्रोह करने से रहे, लेकिन उन्होंने देश में भाजपा के शेष 11 मुख्यमंत्रियों को बदलने का रास्ता खोल दिया है मध्यप्रदेश, हरियाणा, गोवा, गुजरात, असम, अरुणाचल, त्रिपुरा, मणिपुर, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भाजपा के मौजूदा मुख्यमंत्रियों के खिलाफ घोर असंतोष है।

यूपी को छोड़ और किसी राज्य में भाजपा बहुत सुविधापूर्ण स्थितियों में नहीं है, इसलिए यदि चौतरफा दबाव बढ़ा तो भाजपा को मुश्किल हो सकती है, यानि भाजपा के सामने एक नहीं अनेक कर्नाटक हैं, जहां कभी भी नाटक हो सकता है।

देश के कुल एक दर्जन राज्यों की सत्ता पर काबिज होकर दिल्ली के तख़्त को सम्हालना आसान काम नहीं है, लेकिन कांग्रेस की दुर्गति और बिखरे विपक्ष की वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा के जहाज को रेत में भी चलाने का चमत्कार दिखा रहे हैं।

उनके सामने कर्नाटक के नाटकों की पुनरावृत्ति रोकने के साथ ही कांग्रेस की तीन सरकारों को भी लंगड़ा करने की चुनौती है। लेकिन ये सब इतना आसान है नहीं, जितना कि माना जा रहा है।

भाजपा के पास दक्षिण में पांव रखने की जगह है नहीं, दक्षिण के स्थानीय राजनीतिक दलों की पकड़ किसी भी सूरत में ढीली नहीं पड़ रही। बंगाल भाजपा हाल ही में हार कर आयी है। बिहार में उसे सत्ता में जेडीयू का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ रहा है।

महाराष्ट्र उसके हाथ से पहले ही निकल चुका है। झारखंड में भी स्थानीय दल ने भाजपा का रास्ता रोका हुआ है। आंध्र, तेलंगाना, ओडिशा में भाजपा के लिए कोई संभावना निकट भविष्य में है नहीं।

नगालैंड भी स्थानीय दलों के साथ खड़ा हुआ है, पुडुचेरी, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, जैसे सीमावर्ती राज्यों का भाजपा से रिश्ता केर-बेर का है और सबसे बड़ी बात दिल्ली के तख़्त के नीचे खड़े होकर आम आदमी पार्टी लगातार दूसरी बार अपना झंडा ऊंचा किये हुए है।

इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के चलते भाजपा हाईकमान कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन के लिए विवश हुआ है। इससे जाहिर है कि भाजपा में भी सब कुछ बेहतर नहीं है। जो दशा कांग्रेस की है, वही रोग सत्तारूढ़ भाजपा को लगा हुआ है।

कांग्रेस को गांधी परिवार से बाहर नेता नहीं मिल रहा है और भाजपा को नागपुर से बाहर का नेतृत्व पसंद नहीं। भाजपा में ऐसा कोई मुख्यमंत्री नहीं है जो कांग्रेस के किसी मुख्यमंत्री के मुकाबले कम विवादास्पद या कम भ्रष्‍ट हो।

योगी आदित्यनाथ हों या शिवराज सिंह चाहकर भी मोदी के लिए चुनौती खड़ी नहीं कर पा रहे, किन्तु ये दोनों ही मोदी के लिए मुसीबतें जरूर खड़ी कर रहे हैं। आने वाले दिनों में देश की जनता को भाजपा शासित राज्यों पर नजर रखना चाहिए, क्योंकि इन राज्यों में ही सियासी नाटकों के होने की गुंजाइश है।

कांग्रेस शासित तीन राज्यों में से पंजाब में नाटक हो चुका है, छत्तीसगढ़ में नाटक की गुंजाइश नहीं है और राजस्थान ने नाटक को रिहर्सल के पहले ही निपटा लिया है। आपको याद रखना चाहिए देश को स्थिरता का भरोसा दिलाने वाली भाजपा ने कर्नाटक में तीन साल में तीन बार मुख्यमंत्री बदले हैं।

बोम्मई चौथे मुख्यमंत्री हैं। 2018 से 2021 के बीच कर्नाटक को चौथा मुख्यमंत्री मिलने वाला है। मई 2018 में येदियुरप्पा ने छह दिन, मई 2018 से जुलाई 2019 के बीच एचडी कुमारस्वामी ने एक साल 61 दिन और फिर जुलाई 2019 से जुलाई 2021 के बीच येदियुरप्पा ने दो साल दो दिन सरकार चलाई। अब बोम्मई मुख्यमंत्री होंगे।

राज्य में अगले चुनाव 2023 में होने हैं। ये उस मध्यप्रदेश की राजनीति की पुनरावृत्ति है जिसमें 1977 में सत्ता में आयी भाजपा ने ढाई साल में तीन और फिर 2003 में दोबारा सत्ता में आने के बाद तीन साल में तीन मुख्यमंत्री बदल दिए थे। यानि भाजपा में मुख्यमंत्रियों की हैसियत बड़ी ही असुरक्षित है। हालांकि अपवाद शिवराज सिंह चौहान जैसे भी हैं।

(आलेख साभारः मध्‍यमत)