नरसिंहपुर। बाबा नागार्जुन, मैथिलीशरण गुप्त, शिवमंगल सिंह सुमन जैसे साहित्यकार और कवियों की कविताएं गंभीर हैं जो मन को अंदर तक भेदती हैं। कभी इनकी कविताओं मेंं तालियां नहीं बजी। जबकि अब वही कवि सफल माने जाते हैं जो बोले तो तालियां बजें। यह तालियों का गणित तो मंच के लिए तो ठीक हो सकता है लेकिन कविता के लिए नहीं। कविता के लिए गंभीर चिंतन जरूरी है।
यह कहना है गुरू प्रसाद सक्सेना उर्फ़ सांड नरसिंहपुरी का। ऐसे सरस्वती सेवक जिन्होंने राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय सैकड़ों कवि सम्मेलनों में हिस्सा लिया और अनेक पुरस्कार प्राप्त किए। जानिये बसंत पंचमी पर गुरू प्रसाद सक्सेना क्या कहते है…
सवाल- आपका मूल लेखन पहले व्यंग्य पर केन्द्रित था, आप हास्य व्यंग्य के ही पुरोधा माने जाते हैं। पर अब अब पुराणों, ग्रंथों के नारी पात्रों पर लिखना शुरू किया है। सीता, शूर्पनखा, श्रवण कुमार की पत्नी और कैकई पर भी आपने लिखा है। इन नारी पात्रों का और बेहतर उजाला पक्ष रखा, क्या यह नारी सशक्तिकरण के लिए उनके चरित्र को सकारात्मक दिखाने के लिए है?
जवाब- अलग-अलग युगों में नारी का सही मूल्यांकन नहीं किया गया है। ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से क्या मूल्यांकन होना चाहिए। नारी के आदर्श क्या हैं इस पर विचार होना चाहिए। अनेक कवियों ने श्रवण की पत्नी हो, या शूर्पनखा, उसे कर्कशा या कामातुर सिद्ध किया। शूर्पनखा के पति की हत्या हुई है तो वह अपने पति की हत्या का बदला लेना चाहती है। बदले के लिए वह योजना बनाती है। मेरी कृति शूर्पनखा में इसका वर्णन है। मैंने कोशिश की है कि नारी की विराट छवि समाज में आए।
सवाल- हास्य व्यंग्य स्तर का लेखन पहले काफी बेहतर माना जाता था अब उसका स्थान कामेडी शो ने ले लिया है जो स्तरहीन दिख रहे हैं।
जवाब- सस्ताई करण हो गया है उसमें स्तर नीचे आएगा ही। सहजता में हास्य के लिए जो बात होती है उसमें स्तरहीनता के कारण हंसी तो आ जाती है लेकिन स्थाई छाप नहीं आती। कवि भी कवि न होकर प्रस्तुतकर्ता हो गए हैं। लोग शार्टकर्ट जाना चाहते हैं। हम धीरे-धीरे जल्दी लोकप्रियता चाहते हैं। सस्ती लोकप्रियता के कारण मूल्यों में हस तो होगा ही।
सवाल- आपने हिन्दी में विलुप्त हो रहे छंदों को पुन: सृजित किया है। इस बारे में क्या कहेगें।
जवाब- हमने परंपरागत ढंग से यह अध्ययन किया तो पाया कि हमारे हिन्दी साहित्य में छंद की बहुत बड़ी श्रृंखला है। विद्वानों ने उनका सृजन किया है। लेकिन समय के साथ छंदबद्ध कविता कम हुई। तथाकथित साहित्यकारों ने छंद को गायब ही कर दिया है। ऐसे में नई पीढ़ी को छंद के कथ्य शिल्प से कौन अवगत कराया। इसी विचार से मैंने उन तमाम छंदों को अपनी रचनाओं में शामिल किया है जो विलुप्त हो रहे थे। छंदों को संग्रहित करने के उददेश्य से मेरा यह प्रयास जारी है।
सवाल- मौजूदा राजनीति से कलाकार साहित्यकार खिन्न दिख रहे हैं।
जवाब- मुझे 50 साल से ज्यादा हो गए साहित्य और संस्कृति के लिए कार्य करते हुए। मप्र की राजनीति में कभी इसका मूल्यांकन नहीं किया गया। बाहर के लोग आते हैं और पुरस्कृत होकर चले जाते हैं जबकि मप्र के लोग उपेक्षित रहते हैं। मप्र सरकार के पुरस्कार बाहरी लोगों को दे दिए जाते हैं। इसका मतलब हमारे क्षेत्र में प्रतिभाएं नहीं हैं या फिर हम उनका आंकलन नहीं कर रहे।
सवाल- नामवर सिंह जैसे समालोचक अब नहीं है। आपकी दृष्टि में इस स्तर के साहित्यकार कौन है?
जवाब- नामवर सिंह जी बहुत बड़े समालोचक रहे हैं। रामविलास शर्मा भी आए। धनंजय वर्मा ने भी काम किया। नामवर सिंह के जो मापदंड थे उन पर लोगों ने काम नहीं किया। समालोचना के मूल्यों का हृास हुआ। आलोचना की भी अब कसौटी भी नहीं बची है। राजनीति ने यहां भी अपना सिक्का जमा लिया है।
सवाल- लोकभाषाओं में आपका लेखन कैसा रहा है?
जवाब- लोक को लेकर जो लेकर चले वह लोकभाषा है। मेरा प्रारंभ तो लोकभाषा से ही हुआ है। कीर्तन मंडल, बसंत ऋतु में जो फाग गाई जाती है उनके दंगल होते हैं। उनमें भी लेखन किया, उनको भी गाया। लोकशैली में कविताएं भी लिखी फागे भी लिखीं। मेरे लिखे भजन व फागें अनेक मंडलियां आज भी गाती है। लोकभाषाई रचनाओं का जितने जल्दी लोक में प्रसार-प्रसार होता है उतना मीडिया भी नहीं कर पाता। लोक साहित्य मौखिक-मौखिक आगे बढ़ जाता है।
सवाल- बाजारीकरण और काव्य दोनों में किस तरह की अब तारतम्यता है?
जवाब- मैनें बाजार को अपने स्वरूप में देखा है। यह देखा है कि लाखों पेमेंट लेने वाले कवि मंच पर 30 सालों से 3 कविताएं ही पढ़ रहे हैं उन्होंने इसके बाद कोई कविताएं नहीं लिखी। यही सब चल रहा है।
सवाल- नए रचनाकार भी अब लिख रहे हैं?
जवाब- नए रचनाकारों को चाहिए कि लिखने से पहले खूब पढ़े। छंद को समझें, अच्छी रचनाओं को पढ़े। आज ही रचना कल साहित्य का आईना बनेगी।